जब सुनील दत्त-नरगिस ने मीना कुमारी को पाकीजा फिल्म पूरी करने के लिए मनाया
जब सुनील दत्त-नरगिस ने मीना कुमारी को पाकीजा फिल्म पूरी करने के लिए मनाया
आलेख - मंजूषा शर्मा
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आपके पांव देखे .. बहुत हसीन है, इन्हें ज़मीन पे मत उतारीएगा मैले हो जाएंगे... जैसे संवादों से सजी फिल्म पाकीजा की जब - जब बात होगी, कमाल अमरोही यानी सैयद आमिर हैदर और उसके संगीत का जिक्र होगा। फिल्म के शायराना संवाद कमाल अमरोही की ही कलम से निकले। यदि वे आज जिंदा होते तो शायद इसी तरह की क्लासिक फिल्में बना रहे होते।
फिल्म, पाकीज़ा को बनने में 14 साल लगे, पर आज भी यह फिल्म क्लासिक फिल्मों में गिनी जाती है। फिल्म की सफलता को देखने के लिए न तो मुख्य नायिका मीना कुमारी जिंदा थीं, और ही इसके संगीतकार गुलाम मोहम्मद। एक प्रकार से कहा जाए तो उनकी मौत ने ही इस फिल्म को हिट बना दिया था। हालांकि यह अपने दौर की पहली फिल्म थी जिसमें दो- दो संगीतकार थे, गुलाम मोहम्मद और नौशाद।
फिल्म को कमाल अमरोही ने 1956 में पत्नी मीना कुमारी के साथ ब्लैक एंड व्हाइट में बनाना शुरू किया और फिल्म के नायक का किरदार अशोक कुमार को दिया, लेकिन 14 साल में काफ़ी कुछ बदल गया और अशोक कुमार की जगह वो किरदार राज कुमार को मिल गया। फिल्म के बनने के दौरान ही मीना कुमारी और कमाल अमरोही का तलाक़ हो गया और फिल्म के संगीत निर्देशक गुलाम मोहम्मद का निधन, जिस वजह से फिल्म डब्बा बंद हो गयी। फिर जब सुनील दत्त और नरगिस ने फिल्म के कुछ भाग देखे तो उन्होंने मीना कुमारी को फिल्म पूरी करने के लिए मनाया और संगीत के लिए नौशाद साहब को लाया गया। कहते है कि मीना कुमारी उस वक्त काफ़ी शराब पीने की वजह से बीमार रहती थीं और इसलिए फिल्म के ज्यादातर दृश्यों में उन्हें बैठे हुए दिखाया गया है। फिल्म का आखिरी गाना -आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे, तीरे नजऱ देखेंगे...... पद्मा खन्ना पर फिल्माया गया है और मीना कुमारी के दृश्यों को काफ़ी नज़दीक से लिया गया है। फिल्म का सबसे मजबूत पहलू उसके संवाद और उसके गाने हैं। फिल्म के संवाद कमाल अमरोही ने लिखे जो शायरी से कम नहीं हैं, जिसका एक-एक लफ्ज मुस्लिम समाज की बारीकिय़ां दिखाता है। फिल्म का संगीत पक्ष भी काबिले तारीफ है।
ठाढ़े रहियो ओ बांके यार रे...
60 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में फिल्म पाकीजा के निर्माण की योजना बनी थी। फिल्म-निर्माण प्रक्रिया में इतना अधिक समय लग गया कि दो संगीतकारों को फिल्म का संगीत तैयार करना पड़ा। वर्ष 1972 में प्रदर्शित पाकीजा के संगीत के लिए संगीतकार गुलाम मोहम्मद ने शास्त्रीय रागों का आधार लेकर एक से बढ़कर एक गीतों की रचना की थी। इन्हीं में से एक राग मांड पर आधारित ठुमरी - ठाढ़े रहियो ओ बांके यार रे... थी। यह परम्परागत ठुमरी नहीं है, इसकी रचना मजरुह सुल्तानपुरी ने की है परन्तु भावों की चाशनी से पगे शब्दों का कसाव इतना आकर्षक है कि परम्परागत ठुमरी का भ्रम होने लगता है। राजस्थान की प्रचलित लोकधुन से विकसित होकर एक मुकम्मल राग का दर्जा पाने वाले राग मांड में निबद्ध होने के कारण नायिका के मन की तड़प का भाव मुखर होता है। ठुमरी में तबले पर दादरा और तीनताल का अत्यन्त आकर्षक प्रयोग किया गया है।
संगीतकार गुलाम मोहम्मद ने इस ठुमरी के साथ-साथ चार-पांच अन्य गीत अपने जीवनकाल में ही रिकॉर्ड करा लिए थे। इसी दौरान वह ह्रदय रोग से पीडि़त हो गए थे। उनके अनुरोध पर फिल्म के दो गीत - यूं ही कोई मिल गया था.. और चलो दिलदार चलो... संगीतकार नौशाद ने रिकॉर्ड किया। फिल्म पाकीज़ा के निर्माण के दौरान ही गुलाम मोहम्मद 18 मार्च, 1968 को इस दुनिया से रुखसत हो गए। उनके निधन के बाद फिल्म का पाश्र्व संगीत और कुछ गीत नौशाद ने परवीन सुल्ताना, राजकुमारी और वाणी जयराम की आवाज में जोड़े। इस कारण गुलाम मोहम्मद के स्वरबद्ध किए कई आकर्षक गीत फिल्म में शामिल नहीं किये जा सके। फिल्म में शामिल नहीं किये गए गीतों को रिकार्ड कम्पनी एच.एम.वी. ने बाद में पाकीजा रंग विरंगी शीर्षक से जारी किया था। महत्वाकांक्षी फिल्म पाकीजा गुलाम मोहम्मद के निधन के लगभग चार वर्ष बाद प्रदर्शित हुई थी। संगीत इस फिल्म का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष सिद्ध हुआ, किन्तु इसके सर्जक इस सफलता को देखने के लिए हमारे बीच नहीं थे।
फिल्म पाकीजा में गुलाम मोहम्मद ने लता मंगेशकर की आवाज़ में राग पहाडी पर आधारित एकल गीत - चलो दिलदार चलो... रिकॉर्ड किया था, परन्तु फिल्म में इसी गीत को लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी के युगल स्वरों में नौशाद ने रिकॉर्ड कर शामिल किया था। एकल गीत में जो प्रवाह और स्वाभाविकता है, वह युगल गीत में नहीं है।
फिल्म की कहानी
पाकीजा की कहानी एक पाक दिल तवायफ साहिबजान (मीना कुमारी) की है, जो नरगिस (मीना कुमारी) और शहाबुद्दीन (अशोक कुमार) की बेटी है। जब शहाबुद्दीन का परिवार एक तवायफ़ (नरगिस) को अपनाने से इनकार कर देता है तो नरगिस एक कब्रिस्तान में आकर रहने लगती है और वहीं अपनी बेटी साहिबजान को जन्म देकर गुजऱ जाती है। साहिबजान अपनी खाला नवाब जान के साथ दिल्ली के कोठे पर बड़ी होती है और मशहूर तवायफ़ बनती है। 17 साल बाद शहाबुद्दीन को जब इस बात की खबर मिलती है तो वो अपनी बेटी को लेने उसके कोठे पहुंचता है, लेकिन उसे वहां कुछ नसीब नहीं होता। एक सफऱ के दौरान साहिबजान की मुलाकात सलीम (राज कुमार) से होती है और सलीम का एक खत साहिबजान के ख्यालों को पर दे जाता है। सलीम उसे अपने साथ निकाह करने के लिए कहता है और साहिबजान को मौलवी साहब के पास ले जाता है। नाम पूछे जाने पर सलीम, साहिबजान का नाम पाकीजा बतलाता है जो साहिबजान को अपना अतीत याद करके पर मजबूर कर देता है और वो उसे छोड़ कर वापिस कोठे पर आ जाती है।
एक दिन साहिबजान के पास सलीम की शादी पर मुजरा करने का न्योता आता है और वो उसे कबूल कर लेती है, लेकिन वो इस बात से अंजान होती है की यह वही हवेली है जिसके दरवाजे से कभी उसकी मां नरगिस को दुत्कार कर निकाला गया था। सलीम, शहाबुद्दीन का भतीजा है और साहिबजान को आज उसके प्यार और परिवार के सामने मुजरा करना है। फिल्म का यह आखिरी सीन होता है। इसी दृश्य में -आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे, गीत फिल्माया गया ।
फिल्म का एक-एक दृश्य इतनी बारीकी से फिल्माया गया है कि वह आपको एक अलग दुनिया में ले जाता है। इस फिल्म को कमाल अमरोही के साथ-साथ मीना कुमारी और संगीतकार गुलाम मोहम्मद की सबसे श्रेष्ठ फिल्म माना जाता है। कभी किसी और अंक में हम एच.एम.वी.के अलबम- पाकीजा रंग विरंगी का जिक्र करेंगे। इस अलबम को सुनने के बाद आपको इस बात का अफसोस हो सकता है कि आखिरकार ये गाने पाकीजा में क्यों नहीं शामिल किए गए।
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