घाघ जिंदा है.....!
- डॉ. कमलेश गोगिया
लगभग ढाई सौ साल से भी ज्यादा समय बीत चुका है, तब डिजिटल युग की कल्पना भी नहीं की गई थी। विश्व के किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति तक पल भर में संदेश पहुँचा देने की आज की तकनीक भी नहीं थी। वह लोक-जीवन था, जिसमें रचे-बसे थे सादा-जीवन उच्च विचार जैसे आदर्श। कृषि प्रधान देश भारत के उस लोक कवि ने मुगल बादशाह अकबर को भी अचंभित कर दिया था और अकबर ने उन्हें ‘चौधरी’ की उपाधि से विभूषित किया था। अधिकांश ने सुना ही होगा एक नाम-‘घाघ’, एक महान कृषि पंडित जिन्हें मौसम विज्ञानी, कृषि विज्ञानी भी कहा जाता है। लोक कवि घाघ के व्यक्तित्व के बारे में ज्यादा कुछ प्रमाणिक जानकारी नहीं मिलती। लेकिन उनका कृतित्व या कहें उनके द्वारा रचित मौसम और खेती किसानी से संबंधित रचनाएँ आज के डिजिटल युग में भी सौ फीसदी सटीक साबित होती हैं। तकनीकी कितनी भी ऊचाइयाँ स्पर्श कर ले, पारंपरिक जान और अनुभव के सामने बौनी ही साबित होंगी। कहा जाता है कि घाघ ब्राह्मण (देवकली दुबे) थे। इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि अकबर ने घाघ को उपहार के तौर पर धन-दौलत के अलावा भूमि भी दी थी जिस पर घाग ने ‘अकबराबाद सराय घाघ’ नामक गाँव बसाया था। इसे दस्तावेजों में ‘सराय घाघ’ के रूप में पाया जाता है। यह कन्नौज में है। ‘सराय घाघ’ को ‘चौधरी सराय’ भी कहा जाता है। पिछले माह की बात है, 23 और 24 जून को आसमान में बादल छाए हुए थे। उमस से लोग बेचैन थे। दिल दुखाती गर्मी से राहत पाने के लिए बेकरार नजरें आसमान पर टिकीं थी। अगले दिन मेघ जमकर बरसे और लोगों ने राहतभरी सांसें लेनी शुरू कर दीं। जिंदगी की तेज भागती रफ्तार में बहुत कम लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया होगा कि 23 जून को शुक्रवार और 24 जून को शनिवार था। इन दोनों दिनों में आसमान में बादल छाए हुए थे। यही तो रहस्य है अगले दिन होने वाली बारिश का, जो महाकवि घाघ की कविताओं में छिपा है।
घाघ की एक रचना है-
*शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।*
*तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाए।।*
इसका सरल सा अर्थ है कि यदि शुक्रवार को आसमान पर बादल छा जाएं और शनिवार तक छाए रहें तो यह तय है कि वे बरसकर ही जाएंगे। यह हुआ भी। दिल्ली और मुंबई सहित देश के अन्य राज्यों में भी एक साथ 25 जून, रविवार को मानसून ने प्रवेश किया और झमाझम बारिश हुई। हालांकि इसके पूर्व भी देश के कई हिस्सों में मानसून की हलचल शुरू हो चुकी थी। इस बार मानसून लेट से आया और इसके पूर्व यदि हमें देखें तो दिन में गर्मी और रात में ठंड के साथ ओस भी पड़ रही थी। यह वर्षा के देर से आने का संकेत ही माना जा सकता है जिसके संबंध में घाघ ने कहा था-
*दिन में गर्मी रात को ओस*
*घाघ कहैं बरखा सौ कोस*
इसका सरल सा अर्थ है कि यदि दिन में गर्मी और रात में ओस पड़े तो समझ लेना चाहिए कि वर्षा बहुत दूर है। घाघ की रचनाएँ आज भी उतनी ही सटीक हैं जितनी समकालीन थीं।
घाघ ने मौसम, कृषि, स्वास्थ्य के साथ ही जीवन के अनेक पहलुओं पर रचनाएँ रचीं और ये सिर्फ रचनाएँ नहीं थीं, बल्कि यह कहें कि वर्षों तक किया गया उनका शोध ही तो था जिसके परिणाम बीते 270 साल से सटीक साबित होते आ रहे हैं। घाघ की कविताएँ जिन्हें कहावत भी कहा जाता है, भारतीय लोक जीवन में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं क्योंकि इनका उद्देश्य मानव-समाज को सुखी और समृद्ध जीवन की राह दिखाकर भावी परिस्थितयों से अवगत कराना था। वह साक्षर हो, निरक्षर हो सभी के बीच घाघ की रचनाएँ प्रसिद्ध रही हैं। बीते कई वर्षों से घाघ की रचनाओं पर समय-समय पर आलेख, पुस्तकें आदि प्रकाशित होती रही हैं। हिन्दी के अनेक विद्वानों ने घाघ का उल्लेख किया है। पं. रामनरेश त्रिपाठी कृत 'घाघ और भड्डरी' (हिंदुस्तानी एकेडेमी, 1931 ई.) अत्यंत महत्वपूर्ण संकलन माना जाता है।
सुखद वर्ष के संबंध में घाघ की रचना है- आसाढ़ी पूनो दिना, गाज बीजु बरसंत
नासे लच्छन काल का, आनंद मानो सत।।
आषाण की पूर्णिमा को यदि बादल गरजे, बिजली चमके और पानी बरसे तो वह वर्ष बहुत सुखद बीतेगा।
घाघ ने लम्बी आयु और निरोगी काया के लिए कहा है-
*रहे निरोगी जो कम खाय*
*बिगरे काम न जो गम खाय*
विज्ञान भी आज इस बात को प्रमाणित करता है कि लम्बी आयु और निरोगी काया का रहस्य कम खाने में छिपा है। इस बात का उल्लेख समय-समय पर अनेक महापुरुषों और विशेषज्ञों ने भी किया है।
खाद के संबंध घाघ ने गोबर, कूड़ा, हड्डी, नील, सनई, आदि की खादों को खेती-किसानी के लिए श्रेष्ठ बताया है। वे लिखते हैं-
*खाद पड़े तो खेत, नहीं तो कूड़ा रेत।*
*गोबर राखी पाती सड़ै, फिर खेती में दाना पड़ै।*
*सन के डंठल खेत छिटावै, तिनते लाभ चौगुनो पावै।*
*गोबर, मैला, नीम की खली, या से खेती दुनी फली।*
वही किसानों में है पूरा, जो छोड़ै हड्डी का चूरा।
वर्षा ऋतु के आगमन का संकेत लोगों को समझाने के लिए घाघ ने इस तरह रचना की-
*भुइयां लोटी चलै पुरवाई*
*तो जान्या बरखा रितु आई*
यदि भूमि में पुरवइया हवा तेजी से बहने लगे, तब समझना चाहिए वर्षा ऋतु निकट आ गई है। अनेक रचनाएँ घाघ ने रची हैं जिन्हें कहावत, उक्ति, सुक्ति आदि नाम दिया गया है। नाम जो भी दिया गया हो, सच तो यह है कि कालजयी कवि वही होता है जो दूसरों को, समाज को, राष्ट्र और पूरे विश्व समुदाय को अपनी रचनाओं के माध्यम से जीवन-दर्शन की सच्ची राह पर चलना सिखाता है न कि, कविताओं या रचनाओं को आधार बनाकर कवि सम्मेलन के नाम पर मोटी-मोटी रकम लेकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है जो आज के डिजिटल युग की वास्तविकता है। घाघ तुम महान हो और सदैव सच्चे दिलों में बसे रहोगे। माफ कीजिएगा, लेकिन मेरा दृष्टिकोण तो यही है कि घाघ के अनुभव के सामने मौसम विज्ञानी आज भी बौने ही हैं। ढाई सौ साल से भी ज्यादा का समय बीत चुका है और घाघ की रचनाएँ यदि आज भी सौ फीसदी प्रमाणित हैं तो घाघ के विचार, उनकी तपस्या और उनकी भविष्यवाणियाँ आज भी जीवित ही हैं जो सच साबित हो रही हैं। घाघ शरीर रूप में मौजूद नहीं जो प्रकृति के नियमानुसार संभव भी नहीं, लेकिन उनके विचार, उनका कार्य, उनकी तपस्या आज भी जीवित है...! यही वजह है कि इस आलेख का शीर्षक मैंने रखा है, घाघ जिंदा है.....! क्योंकि आज की तरह वे कवि सम्मेलन को अपना नाम, शोहरत और पैसे कमाने का जरिया नहीं बनाते बल्कि अपने पारम्परिक ज्ञान के माध्यम से समाज की भावी समृद्धि की राह पर अग्रसर करते हैं।
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