कहावतों में छिपा हेल्थ-सीक्रेट !
कहावतों का अनूठा संसार है। कहावतों से संबंधित प्रश्न स्कूल- कॉलेज और प्रतियोगी परिक्षाओं में भी पूछे जाते रहे हैं। पहले-पहल लगता था कि हिन्दी विषय में कहावत तो पूछी ही जाएगी, सो रट्टा मार लेते थे। बड़ा सरल लगता था याद करना और प्रश्न पूछे जाने पर उत्तर लिखना। समय बीतने के साथ इसके महत्व का पता चला। कहावत क्या है? सरल शब्दों में कहें तो भारतीय लोक जीवन में मौखिक परंपरा के आधार पर प्रचलित लोकोक्ति या कथन को ही कहावत कहा जाता है। सच पूछिये तो कहावतें हमारी अनमोल धरोहर हैं। ये एक दिन में तैयार नहीं होतीं और न तो किसी एक घटना के आधार पर किसी कहावत को बनाया जा सकता है। लम्बी प्रक्रिया से गुजरकर ही कहावतों का निर्माण होता है। इन्हें समय की कसौटी पर बार-बार कसना पड़ता है और तब जाकर इन्हें लोक जीवन प्रमाणित करता है। देश के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग बोलियों और भाषाओं में लोक-कहावतें प्रचलित रही हैं। कहा जाता है कि सदियों से चली आ रही कहावतें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के इस दौर में भी सटीक बैठती हैं। कहावतों में सिर्फ जीवन-दर्शन ही नहीं छिपा है, यदि गंभीरता से अध्ययन कर अमल किया जाए तो बहुत सी बीमारियाँ ठीक भी हो सकती हैं और सम्भावित रोगों से बचा जा सकता है।
देश के विभिन्न राज्यों में अनेक कहावतें प्रचलित हैं। इनमें स्वास्थ्य से संबंधित कहावतें भी शामिल हैं। भोजपुरी कहावतों का सत्यदेव ओझा ने बेहतर संकलन किया है। ‘’भोजपुरी कहावतेः एक सांस्कृतिक अध्ययन’’ में उन्होंने स्वास्थ्य संबंधी अनेक कहावतों का उल्लेख किया है।
जैसे- "मोटी दतवन जो करे, नित उठी हर्रे खाय
बासी पानी जो पिये, ता घर बैद न जाय।"
इसका अर्थ है कि जो मोटी दतवन से मुँह धोता है, नित्य प्रति हर्रे खाता है और बासी पानी पीता है उसके घर वैद्य कभी नहीं जाता है।
‘’बानपुर और बुंदेलखंड’’ पुस्तक में मदन मोहन वैद्य का ‘बुन्देली कहावतों में स्वास्थ्य विज्ञान’ नाम से बड़ा ही सुंदर आलेख है। वे लिखते हैं कि भारत के ग्रामीणों में नीति, धर्म, सदाचार, स्वास्थ्य, ज्योतिष, कृषि, वर्षा आदि अऩेक विषयों पर लोकोक्तियों अर्थात कहावतों का अक्षय अनमोल भण्डार कण्ठों में मौखिक साहित्य के रूप में रक्षित चला आ रहा है। उऩ्होंने अनेक बुंदेली कहावतों में छिपे स्वास्थ्य-विज्ञान को उद्घाटित किया है। वे लिखते हैं-
"सावन ब्यारू जब तब कीजै। भादो बाको नाम न लीजै।
कुंवार मास के दो पाख। जतन जतन जिय राख।
आधे कातिक होय दीवारी। फिर मन मारी करो ब्यारी।"
इसका अर्थ है कि सावन, भादो और कुंवार महीनों में वर्षा खूब होती है। पृथ्वी की उष्णता निकलने और परिश्रम न करने से मंदाग्नि हो जाती है। फलतः भोजन के भली प्रकार न पचने से तमाम रोगों और दोषों का जन्म होता है। इसी सिद्धांत को देखते हुए कहा गया है कि सावन मास में रात्रि में भोजन (ब्यालू) कभी-कभी करें किन्तु भादो मास में रात्रि भोजन का नाम ही न लें अर्थात रात्रि भोजन बिल्कुल न करें। कुंवार के महीने को बड़ी सावधानी से बिना रात्रि भोजन के बिता दें। कार्तिक मास में दिवाली के बाद इच्छा पूर्ण रात्रि भोजन से कोई हानि नहीं होगी। किस महीने में हमें क्या खाना चाहिए और क्या नहीं इस पर भी बुंदेलखंड की प्रसिद्ध कहावत है-
"अधने जीरो, फूसे चना, माओ मिसरी, फागुन धना।
चैते गुर बैसाखे तेल, जेठ महुआ, असाड़े बेर।
सावन दूध उर भादों दही कुंवार करेला कातिक मई।
जो इतनी नहीं माने कही मर है नई तो परहै सई।"
इसका अर्थ है कि साल के 12 माह में कोई न कोई वस्तु दोषकारक होती है जिसका सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। अगहन (मार्गशीर्ष) में जीरा, पौष में चना, माघ में मिश्री, फाल्गुन में धना, चैत्र में गुड़, ज्यैष्ठ में महुआ (मधुफूल), आषाढ़ में बेर (बद्रीफल), श्रावण में दूध, भाद्रपद में दही, अश्विन (कुंवार) में करेला और कार्तिक मास में मठा (दही) ग्रहण करना स्वास्थ्य के लिए घातक है। यह आर्युवेद के सिद्धांत पर आधारित है। मार्गशीष माह जिसे आगहन कहते है, यह नवंबर से दिसंबर के बीच होता है। मार्गशीष और पौष माह में हेमंत ऋतु का प्रभाव रहता है जिससे वात-पित्त कुपित होता है। जीरा और चना शीतल होने की वजह से वात और पित्त को और भी कुपित कर देते हैं। माघ जनवरी से फरवरी और फाल्गुन फरवरी से मार्च के बीच रहता है। इस समय शिशिर ऋतु का प्रभाव रहता है जिससे मिश्री और धना वात को सबल बनाकर शरीर में रोग बढ़ा देते हैं। चैत्र और बैसाख (मार्च से अप्रैल और अप्रैल से मई) में बसंत ऋतु के प्रभाव से कफ कुपित होता है जिसमें गुण और तेल निषिद्ध है।
श्रावण और भाद्रपद (जुलाई-अगस्त और अगस्त-सितंबर) यानी वर्षाऋतु में दूध और दही के सेवन से वात बढ़ता है। इसी तरह अश्विन और कार्तिक (सितंबर-अक्टूबर और अक्टूबर-नवंबर) में करेला और मठा का सेवन पित्त कुपित होने की वजह से हानिकारक माना गया है। इस संबंध में एक और कहावत है-
कुंवार करेला, चेत गुड़, भादों मूली खाय।
पैसा जावे गांठ का, रोग ग्रस्त पड़ जाय।
इसका अर्थ है कि कुंवार में करेला, चैत में गुड़ और भाद्रपद में मूली खाने वाले का पैसा तो नष्ट होगा ही, बीमार पड़ जाएगा। अतः यह वस्तुएं इन महीनों में नहीं खानी चाहिए।
स्वस्थ रहने का एक और उपाय बुंदेली कहावत में इस प्रकार बताया गया है-
"निन्नें पानी ज पिएं हर्र भूंज नित खाय।
दूध ब्यारू जे करें उऩ घर बैद न जाएं।।"
यानी जो व्यक्ति प्रातःकाल उठकर बिना कुछ खाए-पिए पानी पीता है, प्रतिदिन दोपहर को भुंजी हुई हर्र का सेवन करता है और रात्रि को सिर्फ दूध पीकर रहता है, वह निरोगी रहता है और उसे वैद्य की कभी कोई आवश्यकता नहीं होगी। भोजन के पहले, बाद और बीच में पानी पीने को लेकर कहावत है-
"पहले पीवे जोगी
बीच में पीवे भोगी
पीछे पीवे रोगी"
इसका अर्थ है कि योगी जन भोजन के पूर्व पानी पी लेते हैं अर्थात भोजन पूर्व पानी पीना बुद्धिमानी का कार्य है और स्वास्थ्य के लिए सर्वश्रेष्ठ है। भोगी गृहस्थ जन पानी भोजन के बीच में पीते हैं। यह पानी पूर्ण लाभकारी नहीं है, किंतु मध्यम होने से कुछ ठीक है। जो रोगी हैं या होना चाहते हैं, वे लोग ही पानी भोजन के बाद पीते हैं।
छत्तीसगढ़ में भी स्वास्थ्य से संबंधित अऩेक कहावतें हैं। एक कहावत है-
"चैत सुते भोगी, कुँवार सुते रोगी।"
इसका अर्थ है कि चैत माह में भोगी व्यक्ति और क्वाँर माह में रोगी व्यक्ति सोता है। बुंदेली की तरह छत्तीसगढ़ी में भी कहा गया है कि-
"कुँवार करेला, कातिक दही, मरही नहीं त परही सही।"
अर्थात- क्वाँर में करेला और कार्तिक माह में दही खाने वाला व्यक्ति भले न मरे, लेकिन बीमार अवश्य पड़ जाता है। एक अन्य कहावत है-
"खाके मुते सुते बाउ, काहे बैद बसावे गाउ।"
यानी, भोजन करके लघुशंका जाना और फिर बाँयी करवट सोने पर व्यक्ति निरोगी रहता है।
कहने का आशय यह है कि कहावतें लोक जीवन का सार होती हैं और ये सिर्फ दैनिक समस्याओ को सुलझाने का ही कार्य नहीं करतीं, अपितु निरोगी जीवन के सूत्र भी बतलाती हैं। देश के लगभग सभी राज्यों में स्वासथ्य से संबंधित हजारों लोक-कहावतें प्रचलित हैं जो दीर्धकालीन अनुभव से गुजरकर लोगों की जुबां पर आज भी रची-बसी हैं।
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