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 दो क़ौमों के आपसी भाईचारे की मिसाल   उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ...स्मृति शेष

बहुत विरले होते हैं वे कलाकार जिनकी अद्भुत कला की बदौलत न सिर्फ उन्हें, बल्कि उनके गाँव, शहर, जिले, राज्य और देश को पूरे विश्व में पहचान मिलती है। बिहार का गाँव डुमराँव और शहनाई एक दूसरे के पर्याय हैं। शहनाई का जिक्र होते ही पूरी दुनिया में सिर्फ एक ही नाम गूँजता है, भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ...वे आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी शहनाई की गूँज उनके रहने का हर पल एहसास कराती रहेगी। वे दो कौमों के आपसी भाईचारे की मिसाल थे। वे मज़हब के प्रति समर्पित थे, पाँचों वक्त की नमाज अदा करते थे, लेकिन उनकी श्रद्धा काशी विश्वनाथ और बालाजी मंदिर के प्रति भी थी। 17 साल पहले 21 अगस्त 2006 को उनका इंतकाल हुआ, लेकिन उनकी शहनाई का मंगल गान अनंतकाल रहेगा। 107 साल पहले 21 मार्च 1916 को उनका जन्म हुआ था। ख़ाँ साहब पर संचार के विभिन्न नये-पुराने माध्यमों में कितना कुछ लिखा, कहा और दर्शाया जाता रहा है। नई पीढ़ी को समय-समय पर ख़ाँ साहब जैसी देश की प्रसिद्ध शख्सियतों से अवगत कराना आवश्यक प्रतीत होता है। प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित एक पुस्तक का नाम है ‘रागगीरी’ जिसमें फिल्मी संगीत में शास्त्रीय रागों की अनसुनी कहानियों का अद्भुत यथार्थ है। शिवेंद्र कुमार सिंह और गिरिजेश कुमार द्वारा लिखित इस पुस्तक में भी उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण बातों का जिक्र मिलता है। ‘’15 अगस्त 1947 को आजाद भारत की पहली सुबह का स्वागत उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ की शहनाई से हुआ था। यह देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर हुआ था। तब ख़ाँ साहब की उम्र 30 साल थी, उनकी आँखें नम थीं और उन्होंने ‘राग काफी’ गाया था। यह चंचल किस्म का राग है जिसमें छोटा खयाल और ठुमरियाँ खूब गाई जाती हैं। कहा जाता है कि पं. जवाहर लाल नेहरू जब झंडा फहराने जा रहे थे तब खुले आसमान में इंद्रधनुष नजर आया था। उसे देखकर वहां एकत्र हजारों लोगों की भीड़ हतप्रभ रह गई थी। इसका उल्लेख माउंटबेटन ने 16 अगस्त 1947 को लिखी अपनी 17वीं रिपोर्ट में भी किया।‘’

'भारत के महान संगीतज्ञ' पुस्तक में मोहनानंद झा लिखते हैं कि ‘’स्वतंत्रता के 50 वर्ष पूरे होने पर सन 1997 की 15 अगस्त के सूर्योदय का स्वागत भी बिस्मिल्लाह ख़ाँ की शहनाई वादन से हुआ था।‘’ रामपाल सिंह और बिमला देवी 'भारत रत्न सम्मानित विभूतियाँ' में लिखते हैं कि ‘’उनके पिता पैगम्बर बख्श अपने समय के श्रेष्ठतम संगीतज्ञों में से एक थे। छह वर्ष की आयु से ही उन्होंने शहनाई को संगीत के रूप में चुना। वे बालपन से ही मिलनसार, सरल चित्त व खुदा में विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे। मुसलमान होते हुए भी सरस्वती के उपासक थे जो हिन्दु धर्म में ज्ञान की स्त्रोत मानी जाती है। उन्हें संगीत एक दैवीय  वरदान के रूप में मिला। खाँ साहब ने शहनाई का गुर अपने मामा से सीखा।‘’
उनकी भक्ति और साधना का ही प्रतिफल था की मात्र 14 वर्ष की अल्पायु में सन् 1930 में उन्हें अखिल भारतीय संगीत परिषद में अपना पहला महफिर पेश करने का अवसर प्राप्त हुआ। यहाँ से उनके यश की यात्रा शुरू हुई। सन् 1936 में मात्र 20 वर्ष की अवस्था में कलकत्ता की लाल बाबू कान्फ्रेंस में उन्होंने शहनाई वादन का कार्यक्रम प्रस्तुत कर उस समय के प्रसिद्ध कलाकारों को विस्मय में डाल दिया। गुरू-शिष्य परंपरा के वे प्रबल समर्थक थे। वे अपने शिष्यों को उसी प्रकार अभ्यास करवाते थे जैसा उन्हें करवाया गया था।
शिष्य परिवार में उन्हें उस्ताद नहीं अपितु गुरुदेव कहा जाता था। समर्पित शिष्यों को वह निःशुल्क सिखाते थे। उनका कहना था कि राग, बंदिशें, ताल, सुर तथा नोटेशन सभी किताबों में उपलब्ध हैं, किन्तु उसकी अनुभूति और उसका दर्शन स्वयं को करना पड़ता है। गुरू केवल इस प्रक्रिया का मार्गदर्शक है। सन 1960 में गूँज उठी शहनाई फिल्म में दी गई संगीत की धुन बिस्मिल्लाह ख़ाँ की है जिसमें शहनाई के स्वरों का मर्मभेदी प्रयोग कर उन्होंने अपने को अमर बना लिया। भारत सरकार की ओर से 1961 में उन्हें पद्मश्री, 1963 में अखिल भारतीय शहनाई चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित किया गया। सन् 1986 में मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, 1988 में विश्वभारती शांति निकेतन, 1989 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, 1995 में काशी विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें मानद डी.लिट की उपाधि प्रदान की गई। 1994 में उन्हें स्वरलय पुरस्कार (मद्रास), भारत शिरोमणी पुरस्कार व राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार प्रदान किया गया। 
अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से अलंकृत उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ के अनेक रोचक प्रसंग हैं।
स्कूली पाठ्यक्रमों में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ से संबंधित अनेक प्रश्न पूछे जाते रहे हैं। विभिन्न वेबसाइट्स में प्रतियोगी परीक्षाओँ के महत्वपूर्ण नोट्स भी शामिल हैं। बिहार बोर्ड के दसवीं का पाठ है ‘नौबत खाने में इबादत’ जिसके लेखक यतीन्द्र मिश्र हैं, यह उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ पर रोचक शैली में लिखा गया व्यक्तिचित्र है। इन्होंने किस प्रकार शहनाई वादन में बादशाहत हासिल की, इसी का लेखा-जोखा इस पाठ में है।  बिस्मिल्लाह ख़ाँ को शहनाई की मंगलध्वनि का नायक कहा गया है क्योंकि इनकी शहनाई से सदा मंगलध्वनि ही निकली, कभी भी अमंगल स्वर नहीं निकले। परंपरा से ही शहनाई को मांगलिक विधि-विधानों के अवसर पर बजाया जाने वाला यंत्र माना गया है। वे सभी धर्मों के साथ समान भाव रखते थे। दो कौमों के आपसी भाईचारे के मिसाल उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ को शत-शत नमन...

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