देख आइने में चाँद उतर आया है...
देख आइने में चाँद उतर आया है...
फ़िराक़ गोरखपुरी की याद में...
चंद्रयान-3 की सफलता के बाद पूरे विश्व में भारत का मान बढ़ गया है और यह उपलब्धि हर भारतीय को गौरवान्वित करती है। चाँद पर अनगिनत गजलें, शायरी और गीतों की रचना की गई है। यह सिलसिला अब भी जारी है और आगे भी जारी रहेगा। स्वाभाविक है, पूरी दुनिया की नजरें इस समय चाँद पर टिकी रहेंगी। चाँद के वैज्ञानिक ही नहीं, धार्मिक, आध्यात्मिक और ज्योतिषीय महत्व से भी समय-समय पर अवगत कराया जाता रहा है। चाँद पर रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी की रुबाई में वात्सल्य रस की अनोखी अनुभूति और एक नन्हे बालक की भावनाओं का अद्भुत वर्णन कुछ इस तरह-से मिलता है-
आँगन में चाँद के टुकड़े को खड़ी
हाथों पे झुलाती है उसे गोद भरी
रह-रह के हवा में जो लोका देती है
गूँज उठती है खिलखिलाते बच्चे की हँसी
एक माँ अपने चाँद के टुकड़े यानी अपने बच्चे को आँगन में लिए खड़ी है और उसे अपने हाथों में झुलाती है। माँ अपने बच्चे को रह-रह कर हवा में उछालती (लोका) है और बच्चा खिलखिलाकर हँसने लगता है। वात्सल्य का कितना अद्भुत दृश्य है इन चार पंक्तियों में जो यह अभिव्यक्त करती हैं कि हर माँ के लिए उसका बच्चा चाँद का टुकड़ा होता है। फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की एक और रचना है-
आँगन में ठुनक रहा है जिदयाया है
बालक तो हई चाँद पै ललचाया है
दर्पण उसे दे के कह रही है माँ
देख आईने में चाँद उतर आया है
देवमणि पाण्डेय अपने ब्लाग ‘अपना तो मिले कोई’ में उपर्युक्त पंक्तियों को सूरदास के कृष्ण की परम्परा में उनकी एक रुबाई मानते हैं। इन पंक्तियों का भावार्थ यह है कि एक नन्हा बालक आँगन में मचलकर जिद कर रहा है कि उसे आकाश का चाँद चाहिए और माँ उसे दर्पण देकर कहती है कि देख आईने में चाँद उतर आया है। फ़िराक़ गोरखपुरी की ये रुबाइयाँ स्कूली पाठ्यक्रमों में भी शामिल हैं। स्वाभाविक तौर पर यह सोचा जा सकता है कि इस आलेख की शुरुआत चंद्रयान-3 से की गई और कहाँ फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की रुबाइयों और उसके भावार्थ की चर्चा पर पहुँच गये। दरअसल मूल विषय तो फ़िराक़ साहब ही हैं क्योंकि 28 अगस्त को फ़िराक़ साहब का जन्म हुआ था चूँकि चाँद पर इस समय दुनिया की नज़रें इनायत हैं सो फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की चाँद पर लिखी रुबाइयाँ याद आ गईं।
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित स्वधानीता संग्राम सेनानी और ऊर्दू के प्रसिद्ध शायर फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्म 127 साल पहले 28 अगस्त 1896 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में हुआ था। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित ‘फ़िराक़ गोरखपुरी बज्मे-ज़िंदगीः रंगे शायरी’ में स्वयं फ़िराक़ साहब ने ‘मैं और मेरी’ शायरी शीर्षक से अपने जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं का ज़िक्र किया है। वे लिखते हैं, “मैं कई लेहाज़ से एक असाधारण बालक था। घर और घरवालों से असाधारण हद तक गहरा और प्रबल प्रेम था। सहपाठियों और साथियों से भी एसा ही प्रेम था। मुहल्ले-टोले के लोगों से अधिक-से-अधिक लगाव था। मैं इस लगाव-प्रेम की तीव्रता, गहराई, प्रबलता और लगभग मुझे हिला देने वाले तूफ़ानों को जन्म-भर भूल नहीं सका। इतना ही नहीं, घर की हर वस्तु-बिस्तर, घड़े, दूसरे सामान, कमरे, बरामदे, खिड़कियाँ, दरवाजे, दीवारें, खपरैल-मेरे कलेजे के टुकड़े बन गये थे। मुहल्लों की गलियाँ, मुहल्लेवालों के घर, पेड़ और चबूतरे सभी मेरे खून, मेरी नाड़ी, मेरे दिल की धड़कन बन गये थे। तरकारियों और फ़स्लों में दिया जाने वाला पानी, जीव-जन्तुओं का अपने बच्चों को दूध पिलाना, चिड़ियों के चहचहे और उनकी उड़ान, लोगों के दुख-सुख की कहानी मुझे आनन्दित या दुखी करके जड़ से हिलाकर रख देती थीं। लोकगीत, तुलसी-कृत रामायण के पाठ, सूर और मीरा के पद और दूसरे गीत नश्तर की तरह मेरे दिल में उतर आते थे। माँ-बाप, अध्यापकों और साथियों से मैं कुछ नहीं कहता था, मन-ही-मन मैं सभी बातों से तड़प-तड़पकर रह जाता था।“ 12 अक्टूबर 1970 को लिखी गईं यह बातें फ़िराक़ साहब की संवेदनशीलता को गहराई से व्यक्त करती हैं।
फ़िराक़ साहब असाधारण प्रतिभा के धनी थे। वे डिप्टी कलेक्टरी और आईसीएस के लिए भी चुने गये थे। 1920 में स्वराज्य आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से वे डेढ़ साल जेल में भी रहे। जेल से छूटकर आने के बाद पं. जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ़्तर में अंडर-सेक्रेटरी बनाया। नेहरू जी सेक्रेटरी थे। फ़िराक़ साहब महाविद्यालयों और यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के अध्यापक भी रहे। फ़िराक़ साहब के अनेक प्रसंग हैं। काव्य-रचना को लेकर उऩका कहना था, “साधारण-से-साधारण विषयों को सुगम-से-सुगम भाषा में स्वाभाविक-से-स्वाभाविक शैली में इतना उठा देना कि पंक्तियों की ऊँगलियाँ सितारों को छू लें, यही उच्चतम काव्य-रचना है।“ इसमें कोई संदेह नहीं है कि फ़िराक़ साहब की पक्तियाँ आज भी सितारों को ही स्पर्श करती नज़र आती हैं। उऩकी उनकी रुबाइयात, ग़ज़लियात, मंजूमात (कविताएँ) और अन्य रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और जीवन के विविध पहलुओं का सहज बोध कराती प्रतीत होती हैं। ज़िन्दगी और प्यार के सही मायने बताने वाली उनकी रचना की कुछ पंक्तियाँ हैं-
ज़िन्दगी क्या है, ये मुझसे पूछते हो दोस्तो
एक पैमाँ है जो पूरा होके भी पूरा न हो
बेबसी ये है कि सब कुछ कर गुज़रना इश्क में।
सोचना दिल में ये, हमने क्या किया फिर बाद को।।
उनकी उनकी रचनाओं में से चंद पंक्तियाँ हैं-
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
रुकी रुकी सी शब-ए-मर्ग ख़त्म पर आई
वो पौ फटी वो नई ज़िंदगी नज़र आई
वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
वो इक शख़्स के याद आने की रातें
फ़िराक़ अपनी क़िस्मत में शायद नहीं थे
ठिकाने के दिन या ठिकाने की रातें
रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी ने अनुदित और मौलिक गद्य लेखन भी किया। उऩका गद्य लेखन अऩेक रूपों में में सामने आया, मसलन निबंध, लेख, कहानी, संस्मरण, आलोचना, फीचर, सम्पादकीय-लेखन।
प्रसिद्ध जर्मन नाट्यकार अर्नेस्ट टालर के नाटक का हिन्दी अनुवाद फ़िराक़ साहब द्वारा किया गया है। आदमी नामक इस पुस्तक की भूमिका में रमेशचंद्र द्विवेदी जी लिखते हैं, “शायद ही साहित्य की एसी कोई विधा हो जो फ़िराक़ से अछूती रह गई हो। काव्य साहित्य में (ऊर्दू में), गज़लें, रुबाइयाँ, दोहे तज़मीनें, आज़ाद नज़्म, छन्दबद्ध कविताएँ और गद्य साहित्य में (हिन्दी, ऊर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में) विविध विषयों जैसे साहित्य, राजनीति, समाजशास्त्र, दर्शन, कविता आदि पर गम्भीर विचारोत्परक लेख, कहानी, अनुवाद, सारसेनियो का इतिहास (हिन्दी), पहला शराबी (हिन्दी), टैगोर की गीतांजलि और उनकी एक सौ नज़्में (ऊर्दू), हैमलेट (ऊर्दू) समालोचना (अंग्रेजी, हिन्दी, ऊर्दू) आदि कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं।“ असाधरण प्रतिभा के धनी रघुपति सहाय फ़िराक़ साहब को शत-शत नमन...
ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर्-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं
- फ़िराक़ गोरखपुरी
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