सिने जगत में चमकता जनवादी सितारा शैलेंद्र
सौंवी जयंती पर विशेष
मुंबई। महान गीतकार शैलेंद्र की एक बड़ी पहचान जनवादी गीतों के लेखक की है। शैलेंद्र फ़िल्मी दुनिया में भी अपने उन तेवरों के साथ आए और छा गए। 30 अगस्त 1923 को जन्मे शंकरदास केसरीलाल शैलेन्द्र की आज 100वीं जयंती है।
पचास के दशक में बनी राज कपूर की फ़िल्मों में एक ख़ास ट्रेंड महसूस किया जा सकता है। ये फ़िल्में एक ऐसे नायक की कहानी कहती हैं जो मुफलिसी से जूझता गरीब है, दुनियावी मायनों में हाशिये का आदमी है लेकिन उसके पास सच्चाई और ईमानदारी की पूंजी है। वह ऐसे समाज का दूधिया स्वप्न देखता है जिसमें इंसानी मूल्यों की कद्र हो, जहां तरक्कीपसंदी को तरज़ीह दी जाती हो। परंतु हक़ीक़त में ऐसी दुनिया होती नहीं है। यहां नायक के सपनों की दुनिया हक़ीक़त से टकराती है। सपने टूटते हैं, लेकिन इस टूटन से कोई शोर नहीं होता। यह टूटन कुछ सुरीले नग़मों को आवाज़ देती है:
दिल का हाल सुने दिल वाला
सीधी सी बात न मिर्च मसाला
कहके रहेगा कहने वाला
दिल का हाल सुने दिल वाला…
या फिर
सब कुछ सीखा हमने
न सीखी होशियारी
सच है दुनिया वालों
कि हम हैं अनाड़ी…
ऐसे ही नग़मे लिखने वाले शख्स थे जनकवि शैलेंद्र।
शैलेंद्र के गीतों में जनवाद तो है ही, फ़िल्म की सिचुएशन के मुताबिक लिखे गए उनके जो प्यार भरे गीत हैं वे एक ख़ास किस्म की बेफ़िक्री और मासूमियत को अपने साथ लिए चलते हैं। मोहब्बत की बातें तो हैं लेकिन उनमें परंपरागत उबाऊपन नहीं बल्कि एक ख़ास किस्म का नयापन और रूमानियत है। इन गीतों में भारत के आध्यात्मिक दर्शन की भी झलकी है। उनके लिखे ज़्यादातर गीत इतने सरल, सुरीले और सांगीतिक (रिदम में बंधे हुए) हैं कि यह समझ पाना लगभग असंभव है कि इन गीतों को फ़िल्म की सिचुएशन पर लिखा गया या ये अलग से लिखे गए हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि शैलेंद्र की जितनी पहचान फिल्मी नग़मों के लिए रही उतना ही नाम जनता के कवि के तौर पर भी रहा। तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी के गीत में यक़ीन कर …, हर ज़ोर जुल्म की टक्कर में.., क्रांति के लिए उठे कदम… आदि जन गीतों के माध्यम से उन्होंने समाज के संघर्षशील तबके के दिलोदिमाग़ में अपनी अमिट छाप छोड़ी।
फ़िल्मी गीतों के बारे में आम तौर माना यही जाता है कि गीतकार ने इसे फ़िल्म की सिचुएशन पर रचा होगा। बहरहाल जब गीतकार शैलेंद्र (Shailendra) जैसे क़द के हों तो यह संभव ही नहीं है कि उन गीतों में उनकी वैचारिक छाप नज़र न आए। शैलेंद्र की सोच, उनकी वैचारिकी, उनके अंदर की कशमकश उनके गीतों में हमेशा नज़र आती है। फिर भले ही गीत फ़िल्म की मांग पर लिखे गए हों।
शैलेंद्र नई आज़ादी की सुबह अंगड़ाई ले रहे हिंदुस्तानी फ़िल्म संगीत की दुनिया में ताज़ी हवा के झोंके की तरह आए और छा गए। इन गीतों ने बतौर गीतकार उन्हें देश-विदेश में प्रतिष्ठित कर दिया। फ़िल्मों में गीत लेखन की स्थापित परिपाटी के बरअक्स यह एक नए प्रयोग की शुरुआत थी। हालांकि छिटपुट तौर पर ही सही शैलेंद्र से पहले दीनानाथ मधोक, पंडित नरेंद्र शर्मा और गोपाल सिंह नेपाली… के यहां मिलते जुलते रंग हैं लेकिन बतौर गीतकार इन तीनों की यात्रा ज्यादा परवान न चढ़ सकी।
शैलेंद्र की कलम से निकले देसज और लालित्य से भरे नग़मों ने हिंदी सिनेमा के गीतों को एक नई ख़ुशबू बख्शी। गीत लेखन का यह नया अंदाज फिल्म माध्यम के भी ज्यादा माफिक था। तभी तो विस्तृत और विविधता से भरे कैनवास पर रचे गए उनके नग़मों ने बहुत जल्दी सुनने वालों को अपना मुरीद बना लिया।
शैलेंद्र की बतौर गीतकार ऐसी महत्वपूर्ण फ़िल्में हैं, आवारा, श्री 420, अनाड़ी, जिस देश में गंगा बहती है …. वगैरह। याद रखना होगा कि इन फ़िल्मों ने परदे पर अभिनेता राज कपूर (Raj Kapoor) को एक ख़ास किस्म की छवि प्रदान की जो ताज़िंदगी उनके साथ चस्पां रही और आज भी है। इस इमेज को बनाने में इन फ़िल्मों के गीतों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। जानकार तो यहां तक मानते हैं कि इन फ़िल्मों की सफलता में कहानी से अधिक योगदान गीत और संगीत का था। इन गीतों में नई-नई आज़ादी की अंगड़ाई भी है और आम भारतीयों के सपनों का सतरंगी धुनक भी है। इस बहुरंगी धुनक में न सिर्फ़ निपट भारतीयता का रंग है बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान और रुझान की झलक भी है। इन गीतों की अपनी मास अपील है। तभी तो इंटरनैशनल ऑडियंस इन फ़िल्मों और इनके गीतों से आज भी कनेक्ट करते हैं। दूसरी जंग ए अज़ीम (दूसरा विश्व युद्ध) की विभीषिका के बाद उपजे माहौल में इन फिल्मों और इनके गीतों ने इंटरनैशनल ऑडियंस को एक सुखद अहसास कराया।
बानगी के तौर पर फ़िल्म आवारा का गीत – आवारा हूं या गर्दिश में हूं…, श्री 420 – मेरा जूता है जापानी…, अनाड़ी – सब कुछ सीखा हमने …, जिस देश में गंगा बहती है – हम उस देश के वासी हैं… को देखिए।
ये सारे गीत टाइटल गीत हैं। हिंदी फ़िल्मों में टाइटल गीत लिखने की शुरुआत शैलेंद्र ने ही फ़िल्म बरसात के टाइटल गीत – बरसात में हमसे मिले तुम ….. से की। आगे चलकर उन्होंने एक से बढ़कर एक टाइटल गीत लिखे। इन टाइटल गीतों में पूरी फ़िल्म की थीम झलकती है। एक तरह से कहें तो शैलेंद्र के ये टाइटल गीत शंकर-जयकिशन की संगीत रचना में महज़ गीत नहीं बल्कि एक आख्यान बन गए।
शैलेंद्र का एक और रूप है जहां वे कबीर, रैदास, मीराबाई, नज़ीर अकबराबादी…. की परंपरा की अगली कड़ी लगते हैं। अपने इस अवतार में शैलेंद्र जीवन की निर्मम सच्चाई यानी कॉस्मिक ट्रुथ को अपने गीतों में बड़े आसान बिंबों, प्रतीकों और देसी मुहावरों के ज़रिये दिखाते हैं। ये सभी बिंब और प्रतीक जनमानस की स्मृतियों में रचे बसे हैं। मसलन तीसरी कसम – सजन रे झूठ मत बोलो … काला बाज़ार – ना मैं धन चाहूं … दाग़ – देखो आया ये कैसा ज़माना … आवारा – जुलम सहे भारी … नई दिल्ली – अरे भाई निकलके आ घर से … लव मैरिज – टीन-कनस्तर पीट-पीटकर, गला फाड़कर चिल्लाना … बादल – अनमोल प्यार बिन मोल बिके, इस दुनिया के बाज़ार में … आह – छोटी-सी ये ज़िंदगानी रे … दो बीघा ज़मीन – अजब तोरी दुनिया, हो मोरे रामा … धरती कहे पुकार के … गाइड – वहां कौन है तेरा … जिस देश में गंगा बहती है – मेरा नाम राजू, घराना अनाम … ।
अपनी सामाजिक व राजनीतिक चेतना को गीतों में पिरोने का उनका अंदाज़ भी संत काव्य-परंपरा के कवियों जैसा ही है। यहां भी बिंब सीधे-सादे हैं लेकिन बात लोगों के दिल में सीधे उतरती है। शैलेंद्र के गीत सुनने वालों पर बौद्धिक आतंक डालने की कोशिश नहीं करते। यही बात तो उन्हें हिंदी फ़िल्मों का अकेला जनगीतकार भी बनाती है। जो जनता की भाषा में जनता की बातें कहता है: मिसाल के तौर पर फ़िल्म उजाला का गीत
सूरज ज़रा आ पास आ
आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम
ऐ आसमां तू बड़ा मेहरबां
आज तुझको भी दावत खिलाएंगे हम
सूरज ज़रा आ पास आ
चूल्हा है ठण्डा पड़ा, और पेट में आग है
गरमा-गरम रोटियां, कितना हसीं ख़्वाब है
सूरज ज़रा आ पास आ …
फ़िल्मी गीत लिखते हुए भी वह सामाजिक सरोकारों के स्तर पर कितने सजग थे इसकी बानगी उनके कुछ और गीतों में देखिए –
दो बीघा ज़मीन
अजब तोरी दुनिया, हो मोरे रामा
पर्बत काटे, सागर पाटे, महल बनाए हमने
पत्थर पे बगिया लहराई, फूल खिलाए हमने
होके हमारी हुई ना हमारी
होके हमारी हुई ना हमारी, अलग तोरी दुनिया
हो मोरे रामा, अजब तोरी दुनिया, हो मोरे रामा
चोरी चोरी
तुम अरबों का हेर-फेर करनेवाले
ऐसी कड़की में ये बोझा दो जनों का
आधा साझा हुआ थोड़े-से चनों का
कभी आया ना वो दिन सपनों का
तुम अरबों का हेर-फेर करनेवाले …वगैरह।
अपने जनवादी तेवर के लिए प्रख्यात शैलेंद्र के गीतों का एक रंग निराशा, पलायन और जीवन के बजाय मृत्यु की फैंटसी का भी है। कई लोग इस निराशा को उनकी दलित पृष्ठभूमि से जोड़कर देखते हैं। दुनियावी मानकों पर वह एक सफल गीतकार थे फिर वह निराशा कहां से आती थी? शायद उनके भीतर कोई अव्यक्त पीड़ा समांतर चलती थी। सफलता की चमकदमक के बीच वह नितांत अकेले थे। इस अकेलेपन को एक कलाकार के नैसर्गिक विरोध से जोड़कर भी देखा जा सकता है। विन्सेट वॉन गॉग जैसे प्रतिभाशाली चित्रकारों का उदाहरण हमारे सामने है, जिनका जीवन नैराश्य और जटिलताओं से भरा रहा। बहरहाल, शैलेंद्र के यहां यह विरोध जब जीवन से पलायन और निराशा तथा मृत्य की ओर जाने लगा तो लोगों ने इसे उनकी दलित पहचान से भी जोड़ा।
शैलेंद्र की लेखन यात्रा पर ध्यान दें तो बतौर गीतकार अपनी पारी शुरू करने से पहले उन्होंने जो भी लिखा उसमें निराशा नहीं बल्कि बेहतर भविष्य का सपना और कामना नज़र आते हैं: उनकी बहुत प्रसिद्ध ग़ैर फ़िल्मी रचना – तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी के गीत में यकीन कर .. को लीजिए। शैलेंद्र की इस रचना में पलायन, निराशा की जगह दुख और तकलीफ़ की मौजूदा दुनिया के आगे एक बेहतर दुनिया का सपना है। वह अपनी इस रचना का अंत भी ऐसे ही थीम पर करते हैं …
हज़ार भेष धर के आई मौत तेरे द्वार पर
मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार कर
नई सुबह के संग सदा तुझे मिली नई उमर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर
तू ज़िंदा है तो…
लेकिन मृत्यु को लेकर जो रोमांस शैलेंद्र के यहां है उसकी झलक यहां भी है जब वह कहते हैं हज़ार भेष धर के आई मौत तेरे द्वार पर मगर तुझे न छल सकी चली गई वो हार कर …। परंतु शैलेंद्र इस निराशा को पार करते नज़र आते हैं। शायद इस निराशा से निकलने में उनकी राजनीतिक चेतना का गहरा असर रहा हो क्योंकि यही शैलेंद्र की राजनीतिक चेतना के बुनाव का दौर था। एक नए भारत को रचने का रूमानी स्वप्न भी इसमें शामिल हो सकता है।लेकिन जैसे ही शैलेंद्र फ़िल्मों के लिए गीत लेखन के क्षेत्र में आए उनका यह सपना मानो हक़ीक़त के धरातल पर आकर धीरे-धीरे दम तोड़ने लगा। एक आज़ाद भारत को लेकर जो सपना उनकी आंखों में था उसके भी टूटने की चुभन उनके फ़िल्मी गीतों में पसरने लगी। आशावाद की जगह पलायन और नैराश्य का रंग गहराने लगा।
आप उनकी फ़िल्म रचनाओं में इस तिरती उदासी, निराशा को देख सकते हैं। मिसाल के तौर पर –
फ़िल्म बरसात
बरसात में हमसे मिले तुम …
देर न करना कहीं ये आस टूट जाए सांस छूट जाए
तुम न आओ दिल की लगी मुझको ही जलाए ख़ाक में मिलाए…
बादल
दो दिन के लिए मेहमान यहां …
जलता है जिगर उठता है धुआं
आंखों से मेरी आंसू हैं रवां
जो मरने से हो जाए आसां
ऐसी ये मेरी मुश्किल है कहां…
दाग़
ऐ मेरे दिल कहीं और चल…
चल जहाँ ग़म के मारे न हों, झूठी आशा के तारे न हों
उन बहारों से क्या फ़ायदा
जिस में दिल की कली जल गई, ज़ख़्म फिर से हरा हो गया …
***
प्रीत ये कैसी बोल री दुनिया …
डूब गया दिन शाम हो गई
जैसे उमर तमाम हो गई
मेरी मौत खड़ी है देखो
अपना घूँघट खोल रे …
सीमा
तू प्यार का सागर है…
इधर झूम के गाए जिंदगी
उधर है मौत खड़ी
कोई क्या जाने कहां है सीमा
उलझन आन पड़ी …
यहूदी
ये मेरा दीवानापन है…
ऐसे वीराने में एक दिन घुट के मर जाएंगे हम
जितना जी चाहे पुकारो फिर नहीं आएंगे हम …
मधुमती
टूटे हुए ख्बाबों ने…
लौट आई सदा मेरी टकरा के सितारों से
उजड़ी हुई दुनिया के सुनसान किनारों से
पर अब ये तड़पना भी कुछ काम न आया है
दिल ने जिसे पाया था, आंखों ने गंवाया है…
मेरी सूरत तेरी आंखें
पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई …
ना कहीं चंदा ना कहीं तारे
ज्योत के प्यासे मेरे नैन बिचारे
भोर भी आस की किरन ना लाई…..
जग में रहा मैं, जग से पराया
साया भी मेरा मेरे पास ना आया
हँसने के दिन भी रोके गुज़ारे …
अनाड़ी
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार …
कि मर के भी किसी को याद आएंगे
किसी के आंसुओं में मुस्कुराएंगे
कहेगा फूल हर कली से बार बार…
छोटी छोटी बातें
कुछ और ज़माना कहता है …
दुनिया ने हमें बे-रहमी से ठुकरा जो दिया अच्छा ही किया
नादां हम समझे बैठे थे निभती है यहां दिल से दिल की…
पूनम
दो दिन की ज़िंदगी में दुखड़े हैं बेशुमार …
मरने के सौ बहाने, जीने को सिर्फ़ एक
उम्मीद के सुरों में, बजते हैं दिल के तार…
पतिता
मिट्टी से खेलते हो बार-बार …
ज़मीन ग़ैर हो गई, ये आसमां बदल गया
हवा के रुख़ बदल गए, हर एक फूल जल गया
बजते हैं अब ये साँसों के तार किसलिए …
***
अंधे जहान के अंधे रास्ते …
हमको न कोई बुलाए, ना कोई पलकें बिछाए
ऐ ग़म के मारो, मंज़िल वहीं है, दम ये टूटे जहां….
आग़ाज़ के दिन तेरा अंज़ाम तय हो चुका
जलते रहे हैं जलते रहेंगे ये ज़मीं-आसमाँ …
हरियाली और रास्ता
लाखों तारे आसमान में …
मौत है बेहतर इस हालत से नाम है जिसका मजबूरी
कौन मुसाफ़िर तय कर पाया दिल से दिल की ये दूरी
कांटों ही कांटों से गुज़रा, जो राही इस राह चला …
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