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कर्तव्यबोध

कहानी
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे,  दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)

आज दीदी के फोन ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया
था ..ऐसी  कौन सी बात हो गई कि  दीदी मुझे  फोन पर
बताना नहीं चाह रही हैं बल्कि घर आने को कह रही हैं ।
वह परेशान तो लग रही थीं  ...हम दोनों बहनों में कोई दो वर्षों का ही अंतर होगा पर हम सहेली की तरह ही रहते थे । साथ सोना , उठना , पढ़ना , कहीं जाना हो तो
साथ - साथ । नहीं जाना है तो दोनों ही नहीं जाते , कई
बार किसी विवाह आयोजन में भेजने के लिए माँ  हमें
बहुत मनातीं ।जिम्मेदारियों के बोझ तले लड़कपन कहाँ छुप जाता है पता ही नहीं चलता । शादी के बाद  दीदी का व्यक्तित्व पूरा ही बदल गया , पहले की चंचल , हंसोड़ दीदी का स्थान धीर , गम्भीर   ,समझदार रमा ने
ले लिया था । इसकी जिम्मेदार वह नहीं , जीवन के वे
उतार - चढ़ाव हैं जिन्होंने उन्हें बदल दिया ।
      उनका कोई भी कार्य सरलतापूर्वक   पूर्ण नहीं हुआ। बचपन में बार - बार बीमार पड़ती रही ...जीवन
से काफी संघर्ष किया । पीएच. डी. करते - करते अपने
निर्देशक से कुछ कहासुनी हो गई और उन्होंने दीदी की
रिसर्च पूरी होने में न जाने कितनी बाधाएं खड़ी कर दी..
पर ये दीदी की जीवटता ही थी कि उन्होंने काम पूरा
करके ही दम लिया ,उनकी जगह कोई और होता तो वह
काम पूरा ही नहीं कर पाता । बाधा - दौड़ के खिलाड़ी
के लिए बाधाओं से भरी हुई राह  भी आसान हो जाती
है वैसी ही दीदी के लिये कठिनाइयों का सामना करना
आसान हो गया था ।कॉलेज में व्याख्याता हो जाने के बाद उनके विवाह में उतनी अड़चन नहीं आई क्योंकि
उनके ही कॉलेज के सहायक प्राध्यापक अनिरुद्ध त्रिपाठी ने उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था जिसे दीदी के साथ माँ - पिताजी ने भी सहर्ष स्वीकार
कर लिया था । अपनी बेटी नजर के सामने रहे , माता -
पिता को और क्या चाहिये । दीदी भी बहुत खुश थीं
क्योंकि लड़कियों के विवाह के बाद सबसे बड़ी समस्या
नौकरी बरकरार रखने की आती है ...पति कहीं बाहर हो तो नौकरी छोड़ो या नौकरी करनी हो तो पति से दूर
रहो । खुशियाँ उनके आँगन की रौनक बन गई थी  पर
हमारे आँगन में सूनापन  छा गया था ।  हम दोनों बहनें
माता - पिता के जीवन का आधार थीं , दीदी जब भी घर
आतीं  तो ऐसा लगता मानो मरुस्थल में फूल खिल गये हों ...मैं तो पल भर के लिए भी उन्हें नही छोड़ती थी ।
                दो वर्षों के बाद दीदी एक प्यारे से बेटे की माँ
बन गई थी ....पर कुछ समस्या होने के कारण उन्हें महीनों   बेड रेस्ट  करना पड़ा ...मातृत्व के दायित्व ने
दीदी को बहुत गम्भीर बना दिया था । बेटे के बड़े होने
के बाद एक दिन दीदी और जीजाजी रोज की तरह कॉलेज जा रहे थे कि उनकी मोटरसाइकिल एक बैलगाड़ी से टकरा गई.... मेरी गाड़ी मेरे इशारों पर चलती है कह कर अपनी ड्राइविंग पर नाज करने वाले
जीजाजी उसी के कारण इस दुनिया से चले गये ।दुर्घटना में उन्हें बहुत चोटें आई थी... लगभग दस दिन
आई. सी. यू. में जीवन से संघर्ष करते हुए आखिर उन्होंने हार मान ली । दीदी को इस सदमे ने आहत कर
दिया ....अभी उनका बेटा नीरज एक वर्ष का भी नहीं
हुआ था , जीजाजी  कितनी बड़ी जिम्मेदारी के साथ उन्हें अकेला छोड़ गये थे । दुःखो के महासागर में डूब
गई थी दीदी.... हमें समझ नहीं आ रहा था कि किस तरह उन्हें दिलासा दिया जाये ....उनके दर्द को बाँटना
किसी के लिए सम्भव न था ...घर के हर कोने में जीजाजी की यादें समायी हुई थी... उन दोनों के देखे
हुए सपने फूलों की खुशबू की तरह कमरों में बिखरे पड़े
थे ...माँ - पिताजी को लगा कि यदि दीदी हमारे साथ रहने लगे तो शायद  बीते दिनों की  बातों को वह भुला
सकें लेकिन वह तो उन्हें भुलाना ही नहीं चाहती थीं बल्कि उन्हें ही अपनी पूंजी मानकर उन्हीं के सहारे जीना चाहती थीं ।कम से कम नीरज तो था उनके पास
जिसकी परवरिश की जिम्मेदारी में वह व्यस्त हो सकीं।
वक्त गुजरने के साथ दीदी और गम्भीर और खामोश
होती गईं... माँ - पिताजी वृद्ध हो चले थे , उन्हें दीदी के
एकाकी जीवन की चिंता थी किन्तु उनकी गहरी  खामोशी  देखकर किसी की हिम्मत नहीं हुई कि उनसे
 पुनर्विवाह की बात करते । एक बार  चाची  जी ने उनके सामने विवाह की बात छेड़कर अपनी आफत ही
बुला ली...दीदी बहुत क्रोधित हुईं ...खूब चिल्लाई उन पर...फिर फूट - फूट कर  रो पड़ी ...फिर किसी ने यह
राग नहीं छेड़ा । उन्होंने नीरज के पालन - पोषण को
ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लिया । इसी
बीच मेरी भी शादी हो गई और मै  अपनी घर - गृहस्थी
में रम गई ।
          कालचक्र चलता रहा.. वह कहाँ रुकता है किसी
के लिए चाहे कोई उससे सन्तुष्ट हो या न हो । पर यह अपना कर्म करते रहने के लिए व्यक्ति को प्रेरित करता रहता है... परिस्थिति अपने अनुकूल हो या प्रतिकूल  उसे तो चलते ही रहना है । यह तो अच्छा है  कि जिम्मेदारियां  मनुष्य को व्यस्त रखती हैं वरना हम अपने दुखों के बारे में सोचते ही रहते और  जी नहीं पाते।
कुछ वर्षों बाद माँ बीमारी के कारण हमें छोड़कर चली
गई ...उनके जाने के बाद पिताजी अकेलेपन का दंश
झेलते रहे , पर दीदी के साथ बने रहे । दीदी  ने बहुत ही
धैर्य के साथ नीरज को पाला ...कितना संघर्ष कर रही
थी वे अपने - आप से..किन तकलीफों से गुजर रही थीं,
उनसे मैं अनजान नहीं थी । पिताजी के भी चले जाने के
बाद वह बिल्कुल अकेली रह गई , पर मैं क्या करती जैसे विभिन्न ग्रहों की एक निश्चित धुरी , परिधि  और
भ्रमण का पथ होता है उसी तरह पत्नी और माँ बनने
के बाद प्रत्येक स्त्री को एक निश्चित केंद्रबिंदु , पथ और
परिधि ( सीमायें ) मिल जाती हैं जिसमें उसे बंध जाना
होता है । सम्बन्धों का यह आकर्षण गुरुत्वाकर्षण बल
से क्या कम होगा ? मैं भी इस बन्धन में बंधकर उनके
लिए समय नहीं निकाल पाई ।
          अब तो नीरज  इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है..... दीदी की परेशानी का क्या कारण होगा ...तभी
अचानक दरवाजे की घण्टी बजी और मैं अतीत की
यादों से बाहर आई । मेरे पति ही थे...उनसे दीदी के
फोन के बारे में बात कर मैं जाने की तैयारी करने लगी।
           सफर के दौरान भी अनेक विचार मन को उद्वेलित करते रहे....कहीं नीरज को तो कुछ नहीं हो
गया...क्या दीदी की तबीयत खराब हो गई  इत्यादि
अनेक सम्भावनाओ से जूझती मैं दीदी के घर  पहुँची।
वह घर पर  अकेली थी....नीरज कहीं बाहर था । बालों
की सफेदी और चेहरे पर अवसाद की लकीरें उन्हें उम्र
से अधिक कमजोर दिखा रही थी...दुःखों और संघर्षों
ने वैसे भी उनकी सहजता और सरलता को समय से
पहले ही गम्भीरता और परिपक्वता की चादर से ढक
दिया था ।
         मेरी कुशलक्षेम पूछने के बाद दीदी ने कहा - " प्रिया , तुम  सफर के कारण थक गई होगी... थोड़ा
आराम कर लो , फिर बातें करेंगे ।" किन्तु मेरे मन में तो
अनेक आशंकाएं बादलों की तरह उमड़ - घुमड़ रही थीं
इसलिये उनकी बात अनसुनी कर उन्हें सवालिया निगाहों से एकटक देखने लगी । मुझे अपनी ओर देखती
पाकर पहले तो उनकी आंखे नम हो आईं और अंततः
बरस पड़ीं ...शायद उनके सब्र का बाँध टूट गया था जिसे उन्होंने बहुत प्रयास करके  रोक रखा था । मैंने
उन्हें  रोने  दिया.... बहुत दिनों से उन्होंने सारे दुःख , व्यथा अपने एकाकी मन के प्राँगण  में जमा कर  रखा
था ,  आज वे आँसुओ से धुल जाएं तो शायद वे  हल्कापन महसूस कर सकें ।
            कुछ संयत होने के बाद उन्होंने अपने मन की
सारी बातें मुझसे कह दी ...बात नीरज की ही थी ...
पितृहीन  होने के कारण मिले अधिक लाड़ - प्यार और
कुछ संगति के असर ने उसे उद्दण्ड बना दिया था । देर
रात तक बाहर  घूमना , समय - बेसमय  पैसों की माँग
और माँ से बहस  करना  उसके लिए आम बात हो गई
थी । दीदी बोलते - बोलते रोने लगी थी....प्रिया... मैंने
जीवन में बहुत कुछ  सहा , जमाने भर की बातें , ताने
सुनती रही लेकिन कभी हार नहीं मानी ...बस अपने
रास्ते चलती रही लेकिन अब मुझमें हिम्मत नहीं रही...
इतनी भी नहीं कि अपनों की बातें सुन सकूँ ।  मैंने
हमेशा  यही चाहा कि वह पढ़ - लिखकर अपने पैरों पर
खड़ा हो जाये ,उसका भविष्य सुरक्षित हो...अपनी तरफ से पूरी कोशिश की....उसे कोई अभाव महसूस न
हो...लेकिन पता नहीं कहाँ कमी रह गई...आज वह
मुझसे पूछता  है कि मैंने उसके लिए क्या किया ....न जाने  किन लोगों की सोहबत में पड़कर मुझे, अपनी
पढ़ाई  , अपने जीवन का उद्देश्य भूल गया है... डरती हूँ कहीं  गलत   रास्ते  में चला गया तो उसे हमेशा के लिए खो न बैठूँ । ऐसा क्या करूँ कि वह सुधर जाये .. अपने भविष्य को गम्भीरता  से ले ...।
           दीदी की बातें सुनकर मेरी आँखे भर आईं और मन  दुःखी हो गया लेकिन उससे भी अधिक गुस्सा आया उस नीरज पर ...जिसे पाकर दीदी अपने सारे दुःख - दर्द भूल गई थी....जिसके लिये उन्होंने अपने जीवन के दूसरे विकल्पों के बारे में   सोचा तक नहीं उसने माँ के प्रति अपना दायित्व  तो समझा नहीं उल्टे उसके दर्द का बोझ बढ़ा दिया ।
      मैंने नीरज से बात करने का फैसला कर लिया था
इसलिए देर रात तक उसके लौटने का इंतजार करती रही । वह काफी देर से घर आया और आते ही अपने
कमरे में जाने लगा । मैंने ही उसे आवाज लगाई - सुनो  नीरज ! " अरे मौसी , आप ....आप कब  आई । वह मुझे देखकर चौक गया..
     आज दोपहर में आई ,  " नीरज मैं दीदी को अपने साथ ले जाने आई हूँ  ..बिना कोई भूमिका बाँधे मैंने अपनी बात कह दी थी । "
    क्यो ? अचानक उसके मुँह से फूट पड़ा था...ओ दो - चार दि...नों के लिए घूमने जाना चाहती हैं... इट्स ओके. उसने कंधे उचकाते हुए कहा था ।
      दो - चार दिन के लिए नहीं बेटे....अब  मैं उन्हें हमेशा के लिए अपने साथ ले जाना चाहती हूँ...तुम तो
अब  बड़े और काफी समझदार हो गए हो...अपने पैरों पर खड़े होने वाले हो ...अब  तुम्हें उनकी क्या जरूरत है ? " यह आप क्या कह रही हैं मौसी ? "
       मैं ठीक कह रही हूँ नीरज...जिस माँ ने  तुम्हें जन्म
दिया ...अपनी ममता और प्यार से सींचकर तुम्हें बड़ा किया ...तुम्हारे अलावा कुछ भी नहीं सोचा... तुम्हें उन्होंने अपने जीने का मकसद बना लिया....उनसे तुम
पूछते हो कि तुमने मेरे लिए क्या किया । उन्होंने अपने जीवन में बहुत तकलीफ पाई है नीरज....मैं सोचती थी कि तुम इस बात को महसूस करोगे और उन्हें हमेशा खुश रखने का प्रयास करोगे....क्योंकि दुनिया के बाकी
लोग उनका दर्द महसूस नहीं कर सकते लेकिन तुम उनके हर दर्द में साझेदार रहे हो... पेड़ में लिपटी लता की तरह तुमने उनके मन के हर पहलू को देखा है,
जाना है...जीजाजी के जाने के बाद आने वाले सुख - दुख के सिर्फ तुम दोनों साझेदार रहे हो ...पर कब से तुमने उन्हें अपना दुश्मन मान लिया नीरज...तुम तो उनका साया हो...तुमने अपने आपको उनसे अलग कैसे मान लिया ।
      तुम जिन दोस्तों से अपनी तुलना करते हो वे ममता का मोल क्या जानेंगे जिन्होंने अपनी माँ के हाथों एक निवाला भी नहीं खाया । उनके माँ - बाप ने सिर्फ सुविधाएं देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ ली...उनके साथ रहकर तुम यह भूल गए कि तुम्हें दीदी ने माँ और पिता दोनों बनकर पाला है  ....न जाने कितने
जतन करती रही कि तुम्हे किसी बात की कमी न रहे  , कितनी मुश्किलें आई पर कभी खुद से तुम्हें जुदा नहीं किया । सिर्फ तुम्हारी खुशी के लिये जीती आई है वो...
अब समय आया है कि तुम्हारी तरक्की और खुशहाली देखकर वह भी खुश होती....माली को अपने लगाये हुए पौधे की छाया मिले न मिले पर वह उसके फलने - फूलने की ही कामना करता है...उसी प्रकार तुम्हारी माँ
सिर्फ तुम्हारी खुशी देखकर ही जी लेगी  , बस तुम सही राह पर चलो और खुश रहो , उसे और कुछ नहीं चाहिये ।  मैं इससे आगे कुछ न कह पाई और  अपने कमरे में चली गई ।
     दूसरे दिन सोकर उठी तो सूरज की किरणें पूरे घर में
उजाला फैला चुकी थीं.. नीरज दीदी की गोद में लेट कर हमेशा की तरह अपनी माँ से लाड़ जता रहा था...शायद
माँ - बेटे के बीच के गिले - शिकवे दूर हो गए थे । पश्चाताप के आंसुओं ने दिलों में जमी गर्द धो डाली थी... नीरज को कर्तव्यबोध हो गया था.. रिश्तों की मजबूती के लिए यह जरूरी था... मैंने आगे बढ़कर नीरज को गले लगा लिया था और दीदी की ओर देखकर राहत की सांस ली...अब इस पेड़ को कोई तूफान नहीं गिरा सकता क्योंकि उसने मिट्टी में जड़ें जमा ली हैं... दीदी के चेहरे पर मुस्कुराहट और पलकों में खुशियों की बूंदें झिलमिला उठी थीं ।

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