-मीना कुमारी- टुकड़े टुकड़े दिन बिता, धज्जी धज्जी रात मिली
पुण्यतिथि पर विशेष
आलेख -मंजूषा शर्मा
मीना कुमारी- टुकड़े टुकड़े दिन बिता, धज्जी धज्जी रात मिली
31 मार्च 1972 को मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी ने अंतिम सांसें लीं। मीना कुमारी ने हिन्दी सिनेमा जगत में जिस मुकाम को हासिल किया वो आज भी याद किया जाता है । वे जितनी उच्चकोटि की अदाकारा थीं उतनी ही उच्चकोटि की शायरा भी। अपने दर्द, ख्वाबों की तस्वीरों और ग़म के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम लोगों को मालूम है। उन्होंने अपनी भावनाओं को जिसतरह से नज्मों और शेरो शायरी में ढाला उन्हें पढ़कर लगता है कि जैसे कोई नसों में हजारों सुईयां इसतरह चुभो रहा हो, कि उफ करने की हिम्मत भी न हो रही हो। सिर्फ सिसकियों की आवाज कानों में गूंज रही है।
सुंदर चांद सा नूरानी चेहरा और उस पर आवाज़ में ऐसा मादक दर्द, सचमुच एक दुर्लभ उपलब्धि का नाम था मीना कुमारी। इन्हें ट्रेजेडी क्वीन यानी दर्द की देवी जैसे खिताब दिए गए। पर यदि उनके सपूर्ण अभिनय संसार की पड़ताल करें तो एक सीमा में उन्हें बांधना उनके सिनेमाई व्यक्तित्व के साथ नाइंसाफी ही होगी। गम के रिश्तों को उन्होंने जो जज्बाती शक्ल अपनी शायरी में दी, वह बहुत कम कलमकारों के बूते की बात होती है।
मीना कुमारी के लिए गम का ये दामन शायद अल्लाह ताला की वदीयत थी जैसे। तभी तो कहा उन्होंने - कहां अब मैं इस गम से घबरा के जाऊं, कि यह ग़म तुम्हारी वदीयत है मुझको।
मीना कुमारी ने अपनी जिंदगी में बहुत से गम झेले । कहा जाता है कि पैदा होते ही उनके पिता अली बख्श ने रुपये के तंगी और पहले से दो बेटियों के बोझ से घबरा कर अपनी नवजात बेटी महजबीं यानी मीना कुमारी को एक मुस्लिम अनाथ आश्रम में छोड़ आए। अम्मी के काफी रोने -धोने पर मीना कुमारी की घर वापसी हुई। इसीलिए छोटी सी उम्र में उन्होंने अपने परिवार का बोझ अपने कांधों पर ले लिया और अभिनेत्री बन गईं। परिवार हो या वैवाहिक जीवन मीना जी को तन्हाइयां हीं मिली और शायद इसीलिए उनकी शायरी और आवाज में उनका दर्द उभर आता था। उन्हें सच्चे प्रेम की हमेशा तलाश रही और एक बच्चे की आस ने उन्हें अंदर तक तोड़ कर रख दिया था।
उनकी एक नज्म है जिसमें उन्होंने अपने दिल का दर्द जैसे निचोड़ कर रख दिया है। इस नज्म को उन्होंने गुलजार साहब के कहने पर ही अपनी आवाज में रिकॉर्ड करवाया।
चांद तन्हा है,आस्मां तन्हा
दिल मिला है कहां -कहां तन्हां।
बुझ गई आस, छुप गया तारा
थात्थारता रहा धुआं तन्हां।
जिंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हां है और जां तन्हां।
हमसफऱ कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे यहां तन्हां।
जलती -बुझती -सी रौशनी के परे
सिमटा -सिमटा -सा एक मकां तन्हां।
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जायेंगे ये मकां तन्हा।
अपनी इस नज्म की तरह मीना कुमारी भी तन्हां बसर करते हुए एकदिन सचमुच सारे जहां को तन्हां कर गईं । जब तक जिन्दा रहीं दर्द चुनते रहीं संजोती रहीं और अपने आप को नशे में डुबोती रहीं। कहा जाता है कि इसी शराब ने उनकी जान ले लीं। वह कोई साधारण अभिनेत्री नहीं थी, उनके जीवन की त्रासदी, पीड़ा, और वो रहस्य जो उनकी शायरी में अक्सर झांका करता था, वो उन सभी किरदारों में जो उन्होंने निभाया बाखूबी झलकता रहा। फिल्म साहब बीवी और गुलाम में मीना कुमारी की छोटी बहू की भूमिका को देखकर आज भी ऐसा लगता है कि जैसे यह भूमिका केवल उन्हीं के लिए लिखी गई थीं और इसमें उनकी निजी जिंदगी का सारा दर्द जैसे साकार हो गया है। न जाओ सैया छुडाके बैयां... गाती उस नायिका की छवि कभी जेहन से उतरती ही नहीं।
मीना कुमारी ने लिखा है-
टुकड़े -टुकड़े दिन बिता, धज्जी -धज्जी रात मिली
जितना -जितना आंचल था, उतनी हीं सौगात मिली।
जब चाह दिल को समझे, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसा कोई कहता हो, ले फिऱ तुझको मात मिली।
होंठों तक आते -आते, जाने कितने रूप भरे
जलती -बुझती आंखों में, सदा-सी जो बात मिली।
मीना कुमारी गुलजार साहब के काफी करीब थी, लेकिन यह केवल एक शायरा और गुरु का रिश्ता था। तभी तो मरने से पहले उन्होंने अपनी सारी नज्में और शेरो शायरी गुलजार के नाम कर दी। एक बार गुलज़ार साहब ने मीना कुमारी को उनकी एक तस्वीर के साथ एक नज्म पढऩे को दी जिसे उन्होंने खास मीना के लिए ही लिखा था-
शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा -लम्हा खोल रही है
पत्ता -पत्ता बीन रही है
एक एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक -एक सांस को खोल कर आपने तन पर लिपटाती जाती है
अपने ही तागों की कैदी
रेशम की यह शायरा एक दिन
अपने ही तागों में घुट कर मर जायेगी।
इसे पढ़ कर मीना जी हंस पड़ी थीं। कहने लगीं-जानते हो न, वे तागे क्या हैं ? उन्हें प्यार कहते हैं। मुझे तो प्यार से प्यार है। प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है। इतना प्यार कोई अपने तन से लिपटाकर मर सके, तो और क्या चाहिए ?
उनकी वसीयत के मुताबिक प्रसिद्ध फि़ल्मकार और लेखक गुलज़ार को मीनाकुमारी की 25 निजी डायरियां प्राप्त हुईं। उन्हीं में लिखी नज्मों, गजलों और शेरो के आधार पर गुलज़ार ने मीनाकुमारी की शायरी का एकमात्र प्रामाणित संकलन तैयार किया ।
इसमें गुलजार साहब ने लिखा- मैं, इस मैं से बहुत डरता हूं।
शायरी मीना जी की है, तो फिर मैं कौन ? मैं क्यों ?
मीना जी की वसीयत में पढ़ा कि अपनी रचनाओं, अपनी डायरियों के सर्वाधिकार मुझे दे गई हैं। हालांकि उन पर अधिकार उनका भी नहीं था, शायर का हक़ अपना शेर-भर सोच लेने तक तो है; कह लेने के बाद उस पर हक़ लोगों का हो जाता है। मीना जी की शायरी पर वास्तविक अधिकार तो उनके चाहने वालों का है। और वह मुझे अपने चाहने वालों के अधिकारों की रक्षा का भार सौंप गई हैं। यह पुस्तक मेरी उस जि़म्मेदारी को निभाने का प्रयास है।
निर्देशक विजय भट्ट ने महजबीं को मीना कुमारी का नया नाम दिया था। फिर कमाल अमरोही ने उनसे निकाह करने के बाद उन्हें नाम दिया मंजू। नाज उपनाम से वे शायरी किया करती थीं। पर नाम बदलने से भी मीना कुमारी की किस्मत नहीं बदली। सच्चे प्यार की तलाश उन्हें ताउम्र रही-
प्यार सोचा था, प्यार ढूंढ़ा था
ठंडी-ठंडी-सी हसरतें ढूंढ़ी
सोंधी-सोंधी-सी, रूह की मिट्टी
तपते, नोकीले, नंगे रस्तों पर
नंगे पैरों ने दौड़कर, थमकर,
धूप में सेंकीं छांव की चोटें
छांव में देखे धूप के छाले
अपने अन्दर महक रहा था प्यार -
ख़ुद से बाहर तलाश करते थे
वहीं एक जगह मीना कुमारी ने अपने जज्बातों को कुछ इसतरह से बयां किया-
ये रात ये तन्हाई
ये दिल के धड़कने की आवाज़
ये सन्नाटा
ये डूबते तारों की
खा़मोश गजल खवानी
ये वक्त की पलकों पर
सोती हुई वीरानी
जज्बा़त ए मुहब्बत की
ये आखिरी अंगड़ाई
बजाती हुई हर जानिब
ये मौत की शहनाई
सब तुम कब बुलाते हैं
पल भर को तुम आ जाओ
बंद होती मेरी आंखों में
मुहब्बत का एक ख्वाब सजा जाओ।
मीना कुमारी जब तक जिन्दा थीं, सरापा दिल की तरह जिन्दा रहीं। दर्द चुनती रहीं, बटोरती रहीं और दिल में समोती रहीं। भगवान कभी - कभी किसी के कॅरिअर में इतनी रौशनी भर देता है कि उसकी चकाचौंध से उसका अपना दिल का कोना अंधेरों में भर जाता है, मीना कुमारी के साथ शायद ऐसा ही कुछ हुआ होगा। जब तक जिंदा रहीं रिश्तेदारों के लिए खर्च करती रहीं। तभी तो मौत के बाद उनकी लाश लावारिस अस्पताल में पड़ी थी, क्योंकि उनके इलाज के पैसे नहीं चुकाए गए थे। आखिरकार मीना कुमारी के एक जबरदस्त प्रशंसक रहे उसी अस्पताल के ही एक डॉक्टर ने यह बिल अदा किया। तब जाकर उनका अंतिम संस्कार हो पाया।
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