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तीजा के लुगरा

छत्तीसगढ़ी कहानी
-लेखिका- डॉ. दीक्षा चौबे
- दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
सावित्री हर होत बिहनिया उठ के अंगना कुरिया मन
ला बहार डारिस अउ नहा धो के ओनहा मन ला तको फटकार के छत मा सुखो के आगे । कंघी करत करत कुरिया डाहर झाँकिस ,अभी दुनो लइका निंदिया रानी के कोरा मा मस्त माते रिहिन। नोनी रानी हर बारह बछर के रहिस अउ नानचुन बाबू ल ए साल नौ बछर हो जाही। ओखर गोंसइया सरवन हर घलो खटिया म करवट बदलत सुते रिहिस । आज ऊंखर छुट्टी ए त जम्मो झन अराम ले उठहीं, फेर महतारी मन के का छुट्टी अउ का डिप्टी। सबो दिन एक बरोबर लागथे, स्कूल,आफिस के छुट्टी रहिथे पेट ल तो सबो दिन भोजन चाही । हाँ फेर टाइम म करे के ओतेक हड़बड़ी नइ राहय, सावित्री ल ओखर गोंसइया हर देरी ले उठे बर कहिथे फेर सालों के आदत परे कइसे छूटही । नींद ह अपन टाइम म खुलेच जाथे। 
       सावित्री हर सोझे नामे के सावित्री नोहय। अपन सत ले सत्यवान के परान यमराज ले मांग के लवइया सावित्री ले ओखर पत हर कोनो जिनिस म कमती नोहय । ओहर अपन गोसइया ले अबड़ मया करय, हारी बीमारी म बिकट सेवा करय । सास ससुर, घर परिवार के बड़ तोरा जतन करय तेखर पाय के जम्मो नता रिश्तेदार ओला बड़ मया करयँ । फेर कोनो के जिनगी हर पूरा नइ राहय , कोनो ल तन के दुख त कोनो ल मन के । सबके जिनगी म एकाध ठन कमी रहि जाथे। ज इसे गोड़ के पनही ल मुड़ म नइ पहिर सकयँ वइसनहे
सरवन हर कतनो मया दय मइके के पूर्ति नइ कर सकय। छत्तीसगढ़ के बहिनी महतारी मन बर भादो के महीना हर खुशहाली लेके आथे काबर कि भादो के तृतीया म हरितालिका तीजा के तिहार आथे। एमा मइके ले बाप भाई मन ब्याहता बहिनी, फूफू ल लेहे बर जाथें । उमन मइके म निराहार बिना अन्न जल के उपास रहिथें अउ शंकर पार्वती के पूजा कर के अपन सुहाग ल अमर बनाय बर प्रार्थना करथें। दूसर दिन चौथ के भिनसरहे नहा धो पूजा पाठ करके मइके के नवा लुगरा पहिर के फरहार करथें। कका,बड़ा नाते रिश्तेदार घर तको फरहार करे के नेवता आथे। सबो बहिनी , फूफू संगे संग खाये पिये जाथें, बचपन के गोठ करथें, संगी जहुँरिया के सुरता करथें। अपन अतीत ल फेर जीथें। आजकल के भाई भौजी मन ए मरम ल नइ जानै , नेंग जोग ल फोकट के खर्चा कहिके बोझा मानथें। हजारों रूपिया गहना कपड़ा बर फूँक दिहीं फेर बहिनी ल देत खानी ऊँखर हाथ नइ खुलय । फेर ए घर बर तीजा हर त बिक्कट दुख के कारन बन जाथे।
      सावित्री अउ सरवन नानपन के संगी एके पारा म रहँय। एके स्कूल म संगे संग पढ़ें जाँय । दुनो परिवार म आना जाना घलो रिहिस। नान्हे पन के दोस्ती हर कब मया के रूप धर लीसा कोनो गम ना पाइन । ऊंखर संगी जहुंरिया मन तको नइ जानिंन दुनों झन के अंतस म का चुरत हे। सरवन के नौकरी लगे के बाद जब दुनों झन के घर मा बिहाव के गोठ बात होय लागिस तब ऊमन अपन घर म मया अउ बिहाव के गोठ ल गोठियाइन। आगबबूला होगे सावित्री के बाबूजी –” अइसनहा गोठियाय के तैं हिम्मत कइसे करे ? हमन मालगुजार अउ ओ बिसउहा हमर नौकर । ओहर मोर समधी बनही, मर जहूँ फेर ए गजब तमाशा नइ होन दंव “। बाबूजी हर अपन जिद म अड़े रिहिस , जात-पात के सुरसा हर सरवन-सावित्री के मया ल खाय बर मुँह फार दे रिहिस । सरवन अउ सावित्री बालिग होगे रिहिन भाग के बिहाव कर लिन। बाबूजी हर त भरे समाज म कहि दिस “आज ले मर गे सावित्री मोर बर “। बाप बर बहुत
सरल रहिथे ए कहना , काबर के ओहर नौ महीना ओला अपन कोख म नइ धरे रहय । माँ हर बपरी अब्बड़ कलप-कलप रोइस –” मोर एक ठिन मयारू बेटी , चार भाई के बाद आय रिहिस । सबके जोरा करइया, एक ठिन गलती करिस तो ओखर सब गुण ल भुला देव‌ ।  कतेक सउँख रिहिस बेटी के सुग्घर बिहाव करतेंव , बपरी ल अकेल्ला छोड़ दिस । सगा समाज बेटी के खुशी ले बड़े होगे । कोन आही सेवा करे,अपनेच खून काम आही । हाय रे ,मोर दुलउरीन बेटी ।”
      गौंटिया बाड़ा ले कपड़ा लत्ता अउ दिगर जरुरत के समान लेहे बर नौकर-चाकर रायपुर आत-जात रहँय। महतारी के मन नइ मानय, बेटी बर घर के दूध-दही ,साग भाजी , कपड़ा लत्ता कुछु कांही एक झन विश्वास पात्र जून्ना नौकर तिर भेजत राहय। ए गोठ ल सावित्री के बाबू ल कोनो दुश्मन बता दिस तो ओहर बिक्कट चिल्लाईस– “ तोला बड़ मया हे बेटी के त जा घर छोड़ के , उहें रहिबे “। 
       अतेक बछर होगे बिहा के आये ए घर मा । सास-ससुर, ननद,देवर , लइका बाला सबके तोरा ल करेंव। फेर मोर कोनो मान नइहे। सब निर्णय खुदेच लेथें ,कभू मोर अंतस के पीरा ल नि समझिन। बेटी हर बनेच करिस,अइसन जीवन साथी खोजिस जउन ओखर मन ल समझिस, जउन जिंदगी भर ओखर कदर करही , मया करही । सावित्री के माँ हर बड़बड़ा के रहिगे।
      रिश्ता के मरजाद रखे बर कतनो महतारी अपन मन ल मार के रहि जाथें। सावित्री के माँ हर कइसनहो करके तीजा आय त बेटी बर लुगरा खच्चित भेजवातिस। साल भर मन ल मार के रहि जाय फेर तीजा म मन नइ मानय। दू बछर होगे बाप के कलेजा न इ पिघलिस। माँ हर जब ले सुने रिहिस सावित्री सरवन के घर बेटी आय हे , ओखर खुशी के ठिकाना नइ रिहिस । नतनीन ल देखे के सउँख हर ओला अतेक हिम्मत दिस के ए तीजा म ओहर बेटी के घर जाय के मन बना लिस। घर म गोठियाय ले कोनो चिटपोट नइ करिन। भाई मन तको लुका-लुका बहिनी ल भेंटें जांय फेर बाप के आघू म बोले के कोनो हिम्मत ना करँय। मां हर सावित्री तिर अपन जाय के गोठ कहिस त सावित्री के बाबू जी हर धमकाइस -” तैं उहाँ जाबे त मोर मरे मुख देखबे। “ कोन जानी गौंटनिन के मन म का रिहिस। तीजा के लुगरा लेहे बर जाथंव कहिके रायपुर जाय बर निकलिस । सोलह श्रृंगार करके मन भर के समान बेटी दमाद, नतनिन बर बिसाइस अउ बेटी के घर गिस। कतेक बछर के बाँधे मया आँसू के धार बन के बोहाय लागिस। मन भर दुनो झन दुख सुख गोठियाइन। बेटी ल खुश देख के दाई के जी जुड़ा गे । लहुटती खानी रद्दा के बड़े तरिया तिर गाड़ी ल रुकवाइस । नौकर मन ल थिराय बर कहिके एती ओती पठो दिस। फेर चुप्पे तरिया म उतर के जल समाधि ले लिस । गाँव भर गोहार परगे। सावित्री के बाबू हर ओखर लहाश ल देख के मूर्छा खाके गिर गे। होश आवय तो छाती पीट-पीट रोवय पछतावय । “ काबर अतेक बड़ कदम उठाए ,मैं मूरख अपन रुतबा, रुपिया पइसा अउ उच्च जात के घमंड म अपन घर के सत्यानाश कर डारेंव। तैं ए उमर म 
मोला अकेल्ला छोड़ के कइसे चल दे । तैं कहिते त अपन अहंकार ल छोड़ के महूं तोर संग सावित्री घर चल देतेंव..।” जम्मो झन इही गोठियात रिहिन अब का फायदा पछताय के ओखर प्रान के चिरैया हर त उड़ागे।
         सावित्री के तो जइसे जान निकलगे,बड़ मुश्किल से सरवन हर ओला सँभालिस , लइका के मुँह ल देख के सँभलगे नइते उहू पगला जाय रहितिस । सावित्री के माँ के जाय ले कई बेर ओखर बाबूजी हर ओला देवाय भेजिस फेर सावित्री नइ गिस । ओखर नाती नतनिन ले ओला दूरिहा नइ करिस । उमन ममाघर आथे जाथें, ममा मामी घलो आथें। हर बछर तीजा म लुगरा आथे फेर सावित्री ओला छुवय नहीं। एकेच ठन लुगरा ल पहिर के तीजा के दिन फरहार करथे जेला देहे बर ओखर माँ हर अपन जान दे दिस । तीजा के ओ लुगरा म सावित्री हर अपन माँ ले भेंट करथे साल म एक घं । महतारी के ममता भरे छुअन, मया अउ दुलार भरगे हे ओ लुगरा मा, ओखर प्रान समा गये हे ओ तीजा के लुगरा मा ।

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