पाचन तंत्र को दुरुस्त करने वाला तीखुर
छत्तीसगढ़ में खासकर बस्तर में तीखुर बहुतायक में मिलता है। इसका उपयोग आदिवासी बरसों से करते आए हैं। यह एक सुपर फूड है। अब हमें इसका परिष्कृत रूप मिलता है। अपने अनेक औषधीय गुणों के कारण तीखुर की मांग देश -विदेश में बढ़ती जा रही है।
आमतौर पर इसे फलाहार के रूप में हम इस्तेमाल करते हैं। इसकी खीर, हलुआ, बर्फी, सेव, जलेबी जैसी अन्य मिठाइयां बनाई जाती हैं। अब तो तीखुर की बनी आइस्क्रीम भी लोगों की खास पसंद बनती जा रही है। बच्चों के लिए यह अच्छा पोषक आहार है। तीखुर की खासियत यह है कि इससे पाचन क्रिया तो ठीक रहती ही है, टीबी, खांसी, दमा, डायरिया, डिसेंटरी, जलन, घाव या जख्म, पथरी, प्रसव पीड़ा, कमर दर्द आदि के लिए भी यह रामबाण है। तीखुर की जड़ों से स्टार्च, आरारोट व लिक्विड ग्लूकोज का भी निर्माण होता है। चिकित्सकों की मानें तो गर्मियों में तीखूर से बनी शरबत पीने से लू नहीं लगती। अल्सर व पेट के विकार दूर होते हंै। इसके प्रकंद को पीसकर सिर में एक घंटे तक लेप लगाने सिर दर्द दूर होता है। औषधीय गुणों से परिपूर्ण व सुपाच्य होने के कारण इसे कमजोर व कुपोषित बच्चों को खिलाया जाता है। तीखुर कैल्शियम और कार्बोहायड्रेट का एक प्रमुख स्रोत है।
तीखुर कुरकुमा अंगेस्टीफोलिया हल्दी की जाति का एक पौधा है। इसकी जड़ का सार सफेद चूर्ण के रुप में होता है। तीखुर को आरारोट व तवखीरा भी कहते हैं। तिखुर का नाम एरोरूट इसलिए पड़ा, क्योंकि यह विष बुझे तीरों के जख्म के उपचार में बेहद कारगर होता है। प्राचीन माया सभ्यता के लोग और मध्य अमेरिकी जनजातियां, जमैका की लोक परंपराओं सहित दुनियाभर में विभिन्न जनजातियों के लोग इसका इस्तेमाल तीरों के जहर के उपचार के लिए करते थे। इसके अलावा वेस्टइंडीज के आदिवासी तीखुर के जड़ का इस्तेमाल सर्पदंश सहित अन्य जहरीले कीटों के काटने पर जहर के प्रभाव को नष्ट करने और घावों के उपचार के लिए करते रहे हैं।
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