जीवन में सत्य, अहिंसा, दया आदि गुणों की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है? किस प्रकार इनका संबंध भगवान से है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 389
★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 35-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि सत्य, अहिंसा जैसे दैवीय गुणों की प्राप्ति के लिये भी भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति अनिवार्य है। आइये इस रहस्य को दोहे तथा व्याख्या के रूप में समझने का प्रयत्न करें....
सत्य अहिंसा आदि मन!, बिन हरिभजन न पाय।
जल ते घृत निकले नहीं, कोटिन करिय उपाय।।35।।
भावार्थ ::: सत्य, अहिंसादि दैवीगुण केवल श्रीकृष्ण भक्ति से ही मिल सकते हैं । जैसे पानी मथने से घी नहीं निकल सकता। ऐसे ही अन्य करोड़ों उपायों से भी दैवीगुण नहीं मिलते।
व्याख्या ::: सत्य बोलना आदि दैवी गुण हैं। सभी व्यक्ति इन गुणों से प्यार भी करते हैं। क्योंकि दैवी गुणों के अध्यक्ष श्री कृष्ण के अंश हैं। हम दूसरों से जो चाहते हैं वही हमारा स्वभाव है। किसी के झूठ बोलने आदि पर हम लोग एतराज़ करते हैं, भले ही स्वयं दिन में सैकड़ों झूठ बोलते हों। इससे सिद्ध हुआ कि दैवी गुण सत्य अहिंसादि भगवान् से ही संबंध रखते हैं एवं इसके विपरीत झूठ, हिंसादि, माया से संबंध रखते हैं। इसी से मायिक वस्तुओं के लोभ में हम लोग झूठ आदि का अवलंब लेते हैं। अतः जब तक भगवान् की भक्ति न की जायगी तब तक अंत : करण शुद्ध ही न होगा। बिना अंतःकरण शुद्ध हुये हम सत्य आदि दैवीगुणों का प्रदर्शन मात्र कर सकते हैं किंतु वास्तव में दैवीगुण युक्त नहीं हो सकते। केवल मन से सोचने मात्र से हमारा मन शुद्ध न होगा। हाँ यह हो सकता है कि बार-बार सोचने से, परलोक के भय से कुछ मात्रा में बहिरंग रूप से इन गुणों का दिखावा कर लें।
• संदर्भ पुस्तक ::: भक्ति-शतक, दोहा संख्या 35
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