विश्व गुरु भारत और जगदगुरुत्तम (भाग - 3)
भारतवर्ष की महिमा तथा विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के अलौकिक एवं दिव्यवतार की स्मृति - भाग - 3
(पिछले भाग से आगे)
उपनिषद वेद का उत्तर भाग है। इसका अर्थ कोई स्वयं पढ़कर नहीं समझ सकता। इसलिये वेद में ही कहा गया -
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि- श्रोत्रियं ब्रम्हणिष्ठं।
(मुण्डकोपनिषद 1-2-12)
वेद को जानने के लिये श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष जिसने भगवान को प्राप्त कर लिया है, उसके पास जाओ।
अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विग्राह्यं समुद्रवत। (भाग. 11-21-36)
अन्यथा समुद्र के समान डूब जाओगे। क्यों?
वेदस्य चेश्वरात्मत्वात् तत्र मुह्यन्ति सूरय:। (भाग. 11-3-43)
ये वेद भगवान का स्वरुप है। जैसे भगवान बुद्धि से परे हैं ऐसे ही वेद भी बुद्धि से परे है। सृष्टिकर्ता ब्रम्हा भी वेद का अर्थ नहीं समझ पाये तब भगवान ने अपनी योगमाया से उनके हृदय में बैठकर वेद का अर्थ प्रकट किया और उन्होंने अपने शिष्यों एवं बच्चों को बताया। वो एक के बाद एक, एक के बाद एक से सुनकर वेद का ज्ञान हुआ। इसलिये वेद का दूसरा नाम श्रुति है। वेद स्वयं पढ़कर पागल हो जाओगे। परोक्षवाद है यह वेद। शब्द कुछ, अर्थ कुछ। अत: किसी श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष के पास जाना होगा।
(क्रमश:, शेष आलेख अगले भाग में)
स्त्रोत -साधन साध्य पत्रिका, गुरु पूर्णिमा विशेषांक, जुलाई 2018
सर्वाधिकार सुरक्षित - जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविंद समिति, नई दिल्ली।
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