यशोदा के वे अनोखे श्रीकृष्ण
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने श्री राधाकृष्ण भक्ति परक अनेकानेक ब्रजरस-साहित्य की रचना की है। इन कृतियों में उन्होंने श्रीराधाकृष्ण की परम निष्काम भक्ति को ही स्थान दिया है तथा प्रमुखत: श्रीयुगल लीलाओं के साथ श्रीकृष्ण के प्रति वात्सल्य एवं सख्य भावयुक्त लीला-पदों एवं संकीर्तनो की भी रचना की है, जो कि जीवों के हृदय में सहज में ही प्रेम तथा उनके प्रति अपनत्व की भावना का सृजन करते हैं तथा उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि करते जाते हैं।
आइये श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी से पूर्व उन्हीं के द्वारा रचित ग्रंथ; युगल रस में वर्णित एक संकीर्तन के माध्यम से श्रीकृष्ण का रूपध्यानपूर्वक चिंतन करें। यहां उस संकीर्तन का केवल भावार्थ वर्णन है-
...भक्त कहता है, श्रीकृष्ण के समान तो केवल श्रीकृष्ण ही हैं। माता यशोदा ने कन्हैया को जन्म दिया वस्तुत: वह कृष्ण अनोखा ही था।
उस यशोदा-नन्दन का दिव्य वपु अलसी पुष्प के समान श्याम वर्ण था। वह कन्हैया अपने अलौकिक रुप से कामदेव के मन को भी हरण करता था। कन्हैया के प्रत्येक रोम से ब्रज-रस की वर्षा होती थी, रसिक-जन उस मधुर रस का पान करते थे।
कन्हैया के शीश पर अनोखा मोर-मुकुट सुशोभित था। यशोदा के अनुपम शिशु की घुंघराली लट मुख-चन्द्र को घेरे रहती थीं। साक्षात रस से भी अधिक रसपूर्ण नेत्र चंचलता से भी चंचल थे। रत्नों से जड़े हुये कुंडल कानों में शोभा पाते थे। नासिका बेसर से छवि पा रही थी। उस अनोखे शिशु की मन्द-मन्द गति चपल चितवनि, एवं मुस्कान आश्चर्य से परिपूर्ण थीं। युगल स्कन्ध दुपट्टे से आच्छादित थे।
लकुटी कर में शोभा पा रही थी। कण्ठ कौस्तुभ मणि से देदीप्यमान था। हाथों में कंकणों की दमक थी। सूक्ष्म कटि प्रान्त किंकिणी की जगमगाहट से परिपूर्ण था। कन्हैया के चरण-प्रान्त नूपुर की छूम छननन ध्वनि से झंकृत थे। ग्रीवा कमर एवं चरण की तिरछी भंगिमा रसिकों के मन को मोहती थी। अरुण अधरों पर मुरली विराजमान थी। श्री कृपालु जी कहते हैं कि ऐसे रस सागर कृष्ण को सखियां प्रेम-वश काला कहती हैं।
(रचयिता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
(स्त्रोत-जगद्गुरु श्री कृपालु विरचित युगल रस संकीर्तन पुस्तक से, कीर्तन संख्या 42
सर्वाधिकार सुरक्षित -जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।)
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