कृपा की मूर्ति महारानी श्रीराधारानी
- जीवात्मा की आत्मा श्रीकृष्ण हैं एवं श्रीकृष्ण की आत्मा श्रीराधा हैं- भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
आज महारानी श्रीराधारानी का प्राकट्य-दिवस श्रीराधाष्टमी है। श्रीराधारानी कौन हैं, हमारा उनसे क्या संबंध है तथा उनकी प्राप्ति किस प्रकार होगी - इस सम्बन्ध में भक्तियोगरसावतार जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने साहित्य तथा प्रवचनों में बड़ी गहराई से विवेचन किया है। आइये उनके साहित्य का आश्रय लेकर ही हम इस रहस्य को समझने का प्रयत्न करें -
(कृपा की मूर्ति महारानी श्रीराधारानी - यहाँ से पढ़ें..)
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने श्याम-श्याम गीत ग्रंथ के एक दोहे (संख्या 69) में श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण के संबंध के विषय में कहा है -
रसिकों ने समझाया कह ब्रजबामा।
आत्मा की आत्मा की आत्मा हैं श्यामा।।
अर्थात रसिक जन समझाते हैं जीवात्मा की आत्मा श्रीकृष्ण हैं एवं श्रीकृष्ण की आत्मा श्रीराधा हैं।
इसके अतिरिक्त इसी ग्रन्थ के एक अन्य दोहे (संख्या 43) में जीवात्मा तथा श्रीराधारानी के संबंध को और अधिक समीपता के साथ व्यक्त किया है :
प्रति जन्म नयी नयी मातु बनी बामा।
बदली न तेरी कभु साँची मातु श्यामा।।
भावार्थ यह कि जीव के कर्मानुसार शरीर का जन्म-मरण होता रहता है। इस कारण हर जन्म में नई नई मातायें भी बनीं। आत्मा की मां श्रीराधा तो सदा से एक ही थीं, एक ही रहेंगी।
इसी संबंध का अनुभव करके उनकी प्राप्ति के लिये परम निष्काम भाव से रूपध्यानपूर्वक साधना करने का उपदेश उन्होंने अपने समस्त साहित्य तथा प्रवचनों में दिया है। श्यामा श्याम गीत के दोहा संख्या 73 में वे जीवों से कहते हैं -
राधा नाम रुप गुण लीला जन धामा।
याही में लगाओ मन भाव निष्कामा।।
अर्थात निष्काम भाव से श्रीराधा नाम, रुप, गुण, लीला, जन एवं धाम में ही अपने मन को लगाओ। इसी में मानव-जीवन की सार्थकता है।
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने ब्रज-साहित्यों में श्रीराधारानी के गुणों का भी विशद एवं सरस वर्णन किया है। श्रीराधारानी के अगाध गुणों में प्रमुखत: उनकी कृपालुता, पतित-जनों की रिझवार, अति सरल, सुकुमारता, शरणागत की प्रतिक्षण सँभार एवं रक्षा करने वाली, भोरेपन आदि गुणों का अपने पदों, कीर्तनों तथा दोहों में वर्णन किया है। कृपालुता की ऐसी सीमा है कि यदि वे कोप भी करें, तो उस कोप में भी उनकी अगाध कृपा ही रहती है। प्रेम-रस-मदिरा नामक ग्रन्थ में वे एक पद में कहते हैं -
जो आरत मम स्वामिनि! भाखै,
तेहि पुतरिन सम आँखिन राखै।
अर्थात जो शरणागत आर्त होकर दृढ़ निष्ठापूर्वक मेरी स्वामिनी जी! ऐसा कह देता है, उसे स्वामिनी जी अपनी आँखों की पुतली के समान रखती हैं।
इसी पद में अन्य पंक्ति में उन्होंने कहा है :
टुक निज-जन क्रन्दन सुनि पावें,
तजि श्यामहुँ निज जन पहँ धावें।
भावार्थ यह कि हमारी स्वामिनी जी अपने शरणागतों की थोड़ी भी करुण-पुकार सुनते ही अपने प्राणेश्वर श्यामसुन्दर को भी छोड़कर अपने जन के पास तत्क्षण अपनी सुधि-बुधि भूलकर दौड़ आती हैं।
ऐसी कृपालु स्वामिनी श्रीराधारानी का दीनतापूर्वक स्मरण तथा उनसे कृपा की याचना करने का ही उपदेश श्री कृपालु महाप्रभु ने बारम्बार दिया है। उन्होंने अपने एक ग्रन्थ युगल शतक की श्रीराधा माधुरी के कीर्तन संख्या 53 में इस याचना तथा प्रेम के स्वरुप का इस प्रकार वर्णन किया है (केवल अर्थ)
....अरे मेरे मन! निरन्तर श्रीराधा का ही सेवन कर। जिह्वा से अनवरत राधा नामामृत का पान कर। नाम-स्मरण करने में भला क्या विघ्न उपस्थित हो सकता है? श्रीराधा अनंत दिव्य गुण-गणों से विभूषित हैं। अत: कानों से निरंतर उनकी लीला का श्रवण कर उनके गुणानुवाद सुन। कोमल स्पर्श की कामना जब उत्पन्न हो तो श्रीराधा के कमलोपम चरणों का स्मरण कर। श्रीकृष्ण भी इन चरणों की आराधना करते हैं। नेत्रों से पल-पल श्रीराधा की दिव्य मूर्ति का ध्यान कर दसों दिशाओं में उनका ही दर्शन कर। नासिका से श्रीराधा के दिव्य-वपु के सुवास को ग्रहण कर। हे मेरे चंचल मन! तू श्रीराधा के निरुपम सौंदर्य का ही चिंतन कर। श्रीराधा के समान तो श्रीराधा ही हैं। बुद्धि में ऐसी दृढ़ता रहे कि एक दिन मैं अवश्य ही उनकी कृपा को प्राप्त करुंगा।
श्रीराधा के प्रति जो प्रीति हो, उसमें अपने स्वार्थ की गंध न हो। श्रीराधा के हितार्थ हो, उनके सुख में सुख मानते हुये उनके प्रति निष्काम प्रेम की भावना स्थिर करनी है। यदि श्रीराधा की कृपा प्राप्त करनी है तो उनके प्रियतम श्रीकृष्ण की भी भक्ति करनी होगी।
इस प्रकार जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा प्रगटित ब्रज-साहित्य के अगाध समुद्र से निकले इन किञ्चित चिंतन-रत्नों का आधार लेकर हम अपने हृदयों में श्रीराधारानी के प्रति श्रद्धा, प्रेम तथा अपनापन लाने का प्रयास करें तथा उनसे कृपा की दीनतापूर्वक याचना करें....
आप सभी को उनके प्राकट्य दिवस श्रीराधाष्टमी की बारम्बार अनंत शुभकामनाएं।
(स्त्रोत - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
साहित्य के सर्वाधिकार : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।)
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