विचारो! स्वर्णिम अवसर बीत रहा है!!!
-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित पद पर विचार करें
मृत्यु अटल होती है और सबसे बड़ी बात कि यह कब आ जायेगी, इसका कुछ पता नहीं है। देखते-देखते ही हमारे सामने कितने ही लोग, सगे-संबंधी आदि मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। यह सत्य है कि मृत्यु का समय निश्चित है, पर कब, यह कौन जाने? देवताओं को भी दुर्लभ यह मनुष्य शरीर जिस उद्देश्य के लिये, अर्थात अपना परमार्थ बना लेने के लिये मिला है, किन्तु क्षण-क्षण उस लक्ष्य को भूले हमारा जीवन बीता जा रहा है। इसी लापरवाही पर चेतावनी देते हुए जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित यह पद है, आइये इस पद के शब्द-शब्द पर गंभीरतापूर्वक विचार करें ::::::::
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अरे मन! अवसर बीत्यो जात।
काल-कवल वश विधि हरि, हर सब, तोरी कहा बिसात।
लहि पारस नर-तनु सुर-दुर्लभ, गुंजन-हित भटकात।
बधिर, अंध जिमि सुनत न देखत, रहत विषय मदमात।
अब करिहौं, अब करिहौं , इमि कहि, रहि जैहौ पछितात।
होत कृपालु प्रलय पल महँ तू, केहि बल पर इतरात।।
भावार्थ : अरे मन! यह स्वर्ण अवसर बीता जा रहा है। तेरी तो गिनती ही क्या है? ब्रम्हा, विष्णु, शंकर आदि सभी सीमित आयु वाले काल के ग्रास बन जाते हैं। पारस के समान देवताओं के लिये भी दुर्लभ मनुष्य-शरीर को पाकर भी तू अज्ञानवश सांसारिक विषयरूपी घुंघुची के बनावटी सौंदर्य पर मुग्ध हो रहा है। बहरे एवं अंधे के समान तू न तो सत्पुरुषों की बातें ही सुनता और न स्वयं ही संसार के मिथ्यापन को देखता है। विषयों में ही मतवाला हो रहा है। अब इसके बाद करुंगा, अब इसके बाद करुंगा - ऐसा बार-बार कहते हुये रह जायेगा। अन्त में पछताना ही पल्ले पड़ेगा। श्री कृपालु जी कहते हैं कि एक क्षण में तो प्राण महाप्रलय (मृत्यु) कर जाते हैं, तू बार-बार भविष्य के लिये क्यों छोड़ देता है। उस मृत्यु को रोकने के लिये तेरे पास शक्ति ही क्या है, जिस पर इतरा रहा है?
(ग्रन्थ - प्रेम रस मदिरा, सिद्धान्त माधुरी, पद संख्या 7
रचयिता - जगदगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली)
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