यह याद रहे कि अंतिम लक्ष्य भगवत्सेवा ही है
-जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा नि:सृत प्रवचन
प्रत्येक जीव श्रीकृष्णचन्द्र का अंश है और अंश होने के नाते वह श्रीकृष्ण का सेवक है। श्रीकृष्ण का दासत्व ही उसका धर्म है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अनेक स्थानों पर गीता के उस श्लोक के व्याख्या की है जिसमें जीव के 3 कर्तव्य बतलाये गये हैं जो गुरु के पास जाकर उसे करने होते हैं। गुरु आध्यात्मिक पथ पर चलने का आधार है। इस श्लोक में तीनों कर्तव्यों में जो सर्वप्रमुख कर्तव्य है, करणीय है उसके संबंध में श्री कृपालु महाप्रभु जी क्या कहते हैं, आइये उनके द्वारा नि:सृत प्रवचन के इस अंश से समझने की चेष्टा करें :::::::
(यह याद रहे कि अंतिम लक्ष्य भगवत्सेवा ही है...)
..सेवा में शरीर भी काम देता है और धन भी काम देता है। दोनों का फल मिलता है। अब किसी को समय कम है तो धन से सेवा करता है, किसी के पास शरीर है स्वस्थ, और समय है तो शरीर से भी सेवा करता है। अब किसी के पास धन भी नहीं है, और शरीर भी नहीं दे सकता वो, खाली नहीं है, गृहस्थ में है, तो मन से सेवा करता है केवल। तीनों आवश्यक है, जिसकी जैसी परिस्थिति हो, वैसा करे। लेकिन अंतिम गति सेवा ही है।
भगवत्प्राप्ति के बाद गोलोक (भगवद्धाम) में भी दिव्य प्रेम मिलने के बाद भी सेवा ही अंतिम लक्ष्य है। और प्रारम्भ में भी शास्त्रों ने बताया है -
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। (गीता)
गीता में भगवान ने अर्जुन से कहा कि गुरु की शरण में जाओ तो पहले मन को शरणागत करो, बुद्धि को, उनकी आज्ञा मानो और परिप्रश्नेन, जिज्ञासु भाव से समझो फिलॉसफी, क्या करना है, क्यों करना है, क्या लक्ष्य है, कैसे मिलेगा और सेवया, और सेवा करो। ये तीनों चीजें बताई प्रारम्भ में भी और अंत में तो सेवा है ही है। लेकिन हर एक की परिस्थिति अलग-अलग होती है। इसलिये सबके लिये अलग-अलग नियम बता दिया है। जो तन, मन, धन तीनों से कर सके अत्युत्तम है, नहीं तीन से कर सकता दो से करे, मन और धन से। और दो भी नहीं कर सकता है तो मन से तो सबको करना ही चाहिये। वो मन तो हर एक के पास है।
(प्रवचनकर्ता- जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)
(प्रवचन सन्दर्भ- अध्यात्म संदेश पत्रिका, अक्टूबर 2006 अंक)
(सर्वाधिकार सुरक्षित -राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।)
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