नंदप्रयाग जहां दुष्यंत और शकुंतला की कहानी गढ़ी गयी
नंदप्रयाग गढ़वाल, उत्तराखंड का एक प्राचीन तीर्थ स्थान है। नंदप्रयाग हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध पर्वतीय तीर्थों में से एक है। मन्दाकिनी तथा अलकनंदा नदियों के संगम पर नंदप्रयाग स्थित है । यह सागर तल से 2 हजार 805 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है । यहां पर गोपाल जी का मंदिर दर्शनीय है ।
धार्मिक पंच प्रयागों में से दूसरा नंदप्रयाग अलकनंदा नदी पर वह जगह है जहां अलकनंदा एवं नंदाकिनी नदियों का मिलन होता है। ऐतिहासिक रूप से शहर का महत्व इस बात में है कि यह बद्रीनाथ मंदिर जाते तीर्थयात्रियों का पड़ाव स्थान होता है साथ ही यह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक स्थल भी है। वर्ष 1803 में आई बाढ़, शहर का सब कुछ बहा ले गई जिसे एक ऊंची जगह पर पुनसर््थापित किया गया। नंदप्रयाग का महत्व इस तथ्य से भी है यह स्वाधीनता संग्राम के दौरान ब्रिटिश शासन के विरोध का स्थानीय केंद्र रहा था। यहां के अनुसूया प्रसाद बहुगुणा का योगदान इसमें तथा कुली बेगार प्रथा की समाप्ति में, सबको हमेशा याद रहेगा।
अलकनंदा एवं नंदाकिनी के संगम पर बसा पंच प्रयागों में से एक नंदप्रयाग का मूल नाम कंदासु था जो वास्तव में अब भी राजस्व रिकार्ड में यही है। यह शहर बद्रीनाथ धाम के पुराने तीर्थयात्रा मार्ग पर स्थित है तथा यह पैदल तीर्थ यात्रियों के ठहरने एवं विश्राम करने के लिये एक महत्वपूर्ण चट्टी था। यह एक व्यस्त बाजार भी था तथा वाणिज्य के अच्छे अवसर होने के कारण देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये। जाड़े के दौरान भोटियां लोग यहां आकर ऊनी कपड़े एवं वस्तुएं, नमक तथा बोरेक्स बेचा करते तथा गर्मियों के लिये गुड़ जैसे आवश्यक सामान खरीद ले जाते। कुमाऊंनी लोग यहां व्यापार में परिवहन की सुविधा जुटाने (खच्चरों एवं घोड़ों की आपूर्ति) में शामिल हो गये जो बद्रीनाथ तक सामान पहुंचाने तथा तीर्थयात्रियों की आवश्यकता पूर्ति में जुटकर राजस्थान, महाराष्ट्र तथा गुजरात के लोगों ने अच्छा व्यवसाय किया।
ऐसा कहा जाता है कि स्कंदपुराण में नंगप्रयाग को कण्व आश्रम कहा गया है जहां दुष्यंत एवं शकुंतला की कहानी गढ़ी गयी। स्पष्ट रूप से इसका नाम इसलिये बदल गया क्योंकि यहां नंद बाबा ने वर्षों तक तप किया था। नंदप्रयाग से संबद्ध एक दूसरा रहस्य चंडिका मंदिर से जुड़ा है। कहा जाता है कि देवी की प्रतिमा अलकनंदा नदी में तैर रही थी तथा वर्तमान पुजारी के एक पूर्वज को यह स्वप्न में दिखा। इस बीच कुछ चरवाहों ने मूर्ति को नदी के किनारे एक गुफा में छिपा दिया। वे शाम तक जब घर वापस नहीं आये तो लोगों ने उनकी खोज की तथा उन्हें मूर्ति के बगल में मूर्छितावस्था में पाया। एक दूसरे स्वप्न में पुजारी को श्रीयंत्र को प्रतिमा के साथ रखने का आदेश मिला। रथिन मित्रा के टेम्पल्स ऑफ गढ़वाल एंड अदर लैंडमार्क्स, गढ़वाल मंडल विकास निगम 2004 के अनुसार, कहावतानुसार भगवान कृष्ण के पिता राजा नंद अपने जीवन के उत्तराद्र्ध में यहां अपना महायज्ञ पूरा करने आये तथा उन्हीं के नाम पर नंदप्रयाग का नाम पड़ा।
नंदप्रयाग में एक धर्म-निरपेक्ष एवं भेद-भाव रहित संस्कृति है। विभिन्न क्षेत्रों एवं धर्मों के लोग यहां एक साथ शांतिपूर्वक रहते आये हैं और आज भी रहते हैं।
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