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  सहज अपनत्व, दया, कृपा, करुणादि युक्त जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी का अलौकिक व्यक्तित्व था!!
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज की अवतारगाथा तथा व्यक्तित्व-माहात्म्य से जुड़ी सामग्री :::::

00 जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज :: व्यक्तित्व-दर्शन

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी ने अपने शरणागतों को भगवत-मार्ग पर चलाने के अनेक उपाय किये। उन्होंने विश्व को अपने अलौकिक प्रवचनों के माध्यम से आध्यात्म जगत के गूढ़तम रहस्यों से तो परिचित कराया ही, लेकिन कभी-कभी बड़े ही विलक्षण ढंग से अपने पास बैठे जीवों को साधना और सिद्धान्त की शिक्षा भी दे देते थे। उनके भक्तजन उनके अत्यंत समीप ही बैठकर उनका प्रेम, अपनापन और सान्निध्य प्राप्त करते थे। नीचे श्री कृपालु महाप्रभु जी के अवतारकाल के कुछ प्रसंग प्रस्तुत हैं, जो उन्होंने अपने सत्संगियों के साथ बिताये।

0 स्थान : भक्तिधाम मनगढ़ 7 18 अप्रैल 2012

श्री कृपालु महाप्रभु जी 18 अप्रैल को मनगढ़ में 'जगद्गुरु कृपालु चिकित्सालय' गये, वहाँ चेस्ट का एक्सरे हुआ। डॉक्टर ने जब कहा कि महाराज जी जब मैं 'राधे' बोलूँगा तब आप साँस को जोर से लीजियेगा। ये सुनते ही श्री महाराज जी अत्यधिक खुश हो गये कि सबको मैंने यहाँ तक तो पहुँचा दिया है कि सोते-जागते, खाते-पीते, हँसते-रोते 'राधे' नाम लेते हैं।

किसी-किसी प्रवचन में वे ऐसा भी कहते थे कि मैंने आप लोगों को इतना तो अवश्य सिखा दिया है कि जब आप लोग ट्रेन वगैरह में सफर करते हैं और कोई 'राधे' अथवा 'राधे राधे' बोल भर दे तो आप लोगों की निगाह उस ओर घूम जाती है कि ये 'राधे' बोला। आपको वह अपना जान पड़ता है, क्योंकि उसने 'राधे' बोला। सचमुच ही उनके व्यक्तित्व और उनके सान्निध्य में ऐसी विलक्षणता थी कि उसका नित्य सँग पा-पाकर मन में बरबस ही भगवान का चिंतन बैठने लगता था। सब स्वाभाविक, अपने-आप होता था।

0 स्थान : भक्तिधाम मनगढ़ 7 30 अप्रैल 2012

भक्तिधाम मनगढ़ के 'भक्ति-मंदिर' में 30 अप्रैल 2012 को 'श्री जानकी जयंती' के शुभ दिन मंदिर के प्रथम तल में श्री सीताराम जी के सच्चिदानंद स्वरुप (श्रीविग्रह) की स्थापना श्री कृपालु महाप्रभु जी के पावन करकमलों से हुई। शंख, मृदंग, ढोल, ढप, झाँझ, मंजीरे, घंटाल इत्यादि के मध्य सियावर रामचंद्र की जयकार गूँजती थी। सीताराम के युगल विग्रह का अभिषेक स्वयं श्री कृपालु महाप्रभु जी ने वेदमंत्रों का उच्चारण करते हुये किया।

तत्पश्चात उन्होंने सीताराम मंदिर का द्वार खोलते हुये कहा : '..इतनी प्रतीक्षा के बाद आज प्रकट हो रहे हैं..'

इस अवसर पर अनेक सत्संगी बच्चे वानर सेना का रुप धरकर जय-जयकार एवं हर्षोल्लास के नृत्य कर रहे थे। कृपालु महाप्रभु जी ने उन्हें उपहार दिये. पश्चात उपस्थित जनों से बोले कि '..कितनी सुन्दर मूर्ति है..'

मूर्तिकार के भी ये शब्द थे कि '..मैंने तो इतनी सुन्दर मूर्ति बनाई नहीं थी, कैसे इतनी सुन्दर बन गई..'

इसी दिन शाम को एक महिला भक्त श्री कृपालु महाप्रभु जी के पहली बार दर्शन पाने मनगढ़ आई थी। उसने श्री महाराज जी से कहा कि '..श्री महाराज जी, मैं अकेले ही आपके दर्शन के लिये आ गई..' श्री महाराज जी ने तब उससे कहा कि '..अरे तू अकेली नहीं आई है, तेरे साथ ठाकुर जी भी आये हैं. तेरे हृदय में बैठे हैं वो। अपने को कभी अकेला नहीं मानना, हरि गुरु सदा साथ रहते हैं..'

..इस प्रकार वे अनेक प्रकार से व्यवहार जगत में ही अपने साधकों को सिद्धान्त की याद दिलाकर उन्हें मजबूत बनाने का प्रयास करते थे। सिद्धान्त ज्ञान को उन्होंने सदैव महत्त्वता दी. उनके सान्निध्य में सदैव सिद्धान्त, प्रेम, सरसता और ब्रजरस की धार बहती रहती थी। 'जगदगुरुत्तम' की सीट पर विराजमान होकर भी वे अपने शरणागतों के लिये अत्यंत सरल थे, हर किसी को बस वे अपने से ही प्रतीत होते थे।

0 सन्दर्भ ::: साधन-साध्य पत्रिका, जुलाई 2012 अंक
0 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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