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 अश्रद्धालु को भक्तिविषयक अंतरंग रहस्य न बताओ, न भक्ति के विषय में वाद-विवाद का पाप करो
- जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज के प्रवचन
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने साधक की साधना में बाधा पहुँचाने वाले अनेक बाधक तत्वों के विषय में अनेक बार समझाया है, यथा परदोष दर्शन, लोकरंजन, परनिन्दा आदि। इसी में एक बाधक तत्व है भक्ति के विषय में वाद-विवाद करना। यह कृत्य एक बहुत बड़ा कुसंग है जो कि साधक की साधना में, उसके चिन्तन में महान हानि और मन में क्षोभ, उद्विग्नता उत्पन्न कर देता है। स्वयं श्री भरत जी ने एक समय इस महापराध का उल्लेख किया था। आइये इस भयंकर कुसंग के विषय में श्री कृपालु महाप्रभु जी के ही शब्दों में समझने का प्रयास करें :::::::

(आचार्य श्री की वाणी यहाँ से पढ़ें....)

..अश्रद्धालु एवं अनाधिकारी से अपने मार्ग अथवा साधनादि के विषय में वाद विवाद करना भी कुसंग है, क्योंकि जब अनाधिकारी को सर्वसमर्थ महापुरुष भी आसानी के साथ बोध नहीं करा सकता, तब वह साधक भला किस खेत की मूली है? यदि कोई परहित की भावना से भी समझाना चाहता है तब भी उसे ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि अश्रद्धालु होने के कारण उसका विपरीत ही परिणाम होता है, साथ ही उस अश्रद्धालु के न मानने पर साधक का चित्त अशांत हो जाता है। शास्त्रानुसार भी भक्तिमार्ग को लेकर वाद विवाद करना घोर पाप है।

भरत जी कहते हैं :

भक्त्या विवदमानेषु मार्गमाश्रित्य पश्यतः ।
तेन  पापेन  युज्येत  यस्यार्योनु  रमते गताः ।।
(वाल्मीकि रामायण)

अर्थात् भक्तिमार्ग को लेकर वाद विवाद कर्म सरीखा महान पाप मुझे लग जाय यदि राम के वन जाने के विषय में मेरी राय रही हो। अतएव न तो वाद विवाद सुनना चाहिए, न तो स्वयं ही करना चाहिए। यदि अनधिकारी जीव इन विषयों को नहीं समझता तो इसमें आश्चर्य या दुःख भी नहीं होना चाहिए क्योंकि कभी तुम भी तो नहीं समझते थे। यह तो परम सौभाग्य महापुरुष एवं भगवान् की कृपा से प्राप्त होता है कि जीव भगवद् विषय को समझकर उसकी ओर उन्मुख हो।

अनधिकारी को भगवद् विषयक कोई अंतरंग रहस्य भी न बताना चाहिए क्योंकि वर्तमान अवस्था में अनुभवहीन होने के कारण अनधिकारी उन अचिन्त्य विषयों को नहीं समझ सकता, उलटे अपराध कमाकर अपनी रही सही आस्तिकता को भी खो बैठेगा। साथ ही अंतरंग रहस्य बताने वाले साधक को भी अशांत करेगा।

(प्रवचनकर्ता ::: जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज)

० सन्दर्भ ::: जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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