हर द्वार पर धोखा खाकर भी हम कभी श्रीराधारानी के दरबार में नहीं गये, जहाँ जाकर ही बिगड़ी बन सकेगी!!!
जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 104
श्रीराधाकृष्ण प्रेम संबंधी साधन सामग्रियों से अलंकृत अपनी 'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थ में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने निम्नांकित पद में मन को संबोधित करते हुये कहा है कि इस मन ने अनादिकाल से आनंदप्राप्ति के अपने लक्ष्य के लिये उन द्वारों को खटखटाया जहाँ आनंद था ही नही। कभी उस दरबार में नहीं गया जहाँ नित्य-निरंतर कृपा की वृष्टि होती रहती है। आइये हम इस पद का आधार लेकर उस कृपामय दरबार का पता जानें तथा उसी के द्वार पर जाकर बिगड़ी बनाने की याचना करें :::::::
'प्रेम-रस-मदिरा' ग्रन्थ
सिद्धान्त माधुरी, पद - 16
अरे मन ! मू रख निपट गँवार।
बिगरत आपु बिगारत मो कहँ, नेकु न करत विचार।
कोटि-कल्प भटक्यो ज्यो शूकर, विष्ठा-विषय मझार।
बिनु सेवा जहँ पाइय मेवा, गयो न तेहि दरबार।
दोउ कर-कमल नर देह सुदुर्लभ, मिलत न बारम्बार।
साधन बिनुहि 'कृपालु' द्रवत जो, को अस सरल उदार।।
भावार्थ - अरे मन! तू वास्तव में अत्यन्त ही मूर्ख एवं नासमझ है। तू आप अपना भी नाश कर रहा है, साथ ही मेरा भी नाश कर रहा है। तू इस विषय में थोड़ा सा भी विचार नहीं करता। तुझे सांसारिक विषय-वासना रूपी विष्ठा में शूकर की तरह भटकते हुए करोड़ों कल्प बीत गये, फिर भी कुछ भी न पा सका। जिन किशोरी जी के दरबार में बिना साधन के ही तू सब कुछ पा जाता, उस दरबार में तू हठवश कभी न गया। तुझे वृषभानुनंदिनी अपनी दोनों कोमल भुजाओं को पसारे परख रही हैं। ऐसा अवसर एवं देवदुर्लभ मानव-देह तुझे बार-बार न मिल सकेगा। 'श्री कृपालु जी' कहते हैं कि सबसे बड़ी बात तो यह है कि वृषभानुनंदिनी के सिवा ऐसा सरल एवं उदार हृदय वाला और तुझे कौन मिलेगा जो बिना साधन के ही शरणागत को सदा के लिए अपना बना ले।
०० रचयिता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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