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 श्यामसुन्दर के प्रेम की प्राप्ति के लिये साधक किन-किन महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखे?
जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 118

(जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा स्वरचित भक्ति-शतक ग्रन्थ के एक दोहे की व्याख्या का एक अंश....)

..भक्ति में अनन्यता पर भी प्रमुख ध्यान देना है। केवल श्रीकृष्ण एवं उनके नाम, रूप, गुण, लीला, धाम तथा गुरु में ही मन का लगाव रहे। अन्य देव, दानव, मानव या मायिक पदार्थों में मन का लगाव न हो। इसका तात्पर्य यह न समझ लो कि संसार से भागना है। वास्तव में संसार का सेवन करते समय उसमें सुख नहीं मानना है। श्रीकृष्ण का प्रसाद मानकर खाना पीना एवं व्यवहार करना है।

उपर्युक्त समस्त ज्ञान सदा साथ रखकर सावधान होकर साधना भक्ति करने पर शीघ्र ही मन अपने स्वामी से मिलने को अत्यन्त व्याकुल हो उठेगा। बस वही व्याकुलता ही भक्ति का वास्तविक स्वरूप है। यथा चैतन्य ने कहा -

युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम....।

अर्थात उनसे मिले बिना रहा न जाय। एक क्षण ही युग लगे, सारा संसार शून्य सा लगे।

एक बात और ध्यान में रखना है कि साधनाभक्ति करते करते जब अश्रुपात आदि भाव प्रकट होने लगे तो लोकरंजन का रोग न लगने पाये। अन्यथा लोगों से सम्मान पाने की लालच में भक्तिभाव से ही हाथ धोना पड़ जायेगा। आपको तो अपमान का शौक बढ़ाना होगा। गौरांग महाप्रभु ने कहा है -

तृणादपि सुनीचेन......।

अर्थात साधक अपने आपको तृण से भी निम्न समझे। वृक्ष से भी अधिक सहनशील बने। सबको मान दे किन्तु स्वयं मान को विष माने। सच तो यह है कि जब तक साक्षात्कार या दिव्य प्रेम न मिल जाय, तब तक सभी नास्तिक या आस्तिक समान ही हैं क्योंकि अभी तो माया के ही दास हैं। फिर अहंकार क्यों?

उपर्युक्त तत्वज्ञान सदा काम में लाना चाहिये। प्राय: साधक कुछ निर्धारित साधना काल में ही तत्वज्ञान साथ रखते हैं। यह समीचीन नहीं है। क्षण-क्षण अपने मन की जाँच करते रहना है। नामापराध से प्रमुख रूप से बचना है। यदि मन को सदा अपने शरण्य में ही लगाने का अभ्यास किया जाय, तभी गड़बड़ी से बचा जा सकता है। अन्यथा मन पुराने स्थान पर पहुँच जायेगा। साधना भक्ति के पश्चात भाव-भक्ति का स्वयं उदय होता है। इन दोनों की यह पहिचान है कि साधना भक्ति में मन को संसार से हटाकर भगवान में लगाने का अभ्यास करना होता है। जबकि भावभक्ति में स्वयं मन भगवान में लगने लगता है। संसार के दर्शनादि से वितृष्णा होने लगती है। अर्थात पहले मन लगाना, पश्चात मन लगना।

जैसे संसार में कोई भी व्यक्ति जन्मजात शराबी नहीं होता। पहले बेमनी के बार-बार पीता है। फिर धीरे धीरे शराब उसे दास बना लेती है। वह शराबी समस्त लोक एवं परलोक पर लात मार देता है। जब जड़ शराब के नशे का यह प्रत्यक्ष हाल है तो हम भी जब भक्ति करते करते दिव्य मस्ती का अनुभव करने लगेंगे तब हम भी भुक्ति मुक्ति बैकुण्ठ को लात मार देंगे। एवं युगल सुख के हेतु युगल सेवा की ही कामना करेंगे।

रुपध्यान करते समय मन अपने पूर्व-प्रिय पात्रों के पास जायेगा। उस समय आप अशान्त न हों। मन जहाँ भी जाय, जाने दीजिये। बस उसी जगह उसी वस्तु में अपने शरण्य को खड़ा कर दीजिये। जैसे स्त्री की आँख के सौन्दर्य में मन गया तो उसी आँख में श्यामसुन्दर को खड़ा कर दो। बस कुछ दिन में मन थक जायेगा। सर्वत्र सर्वदा अपने श्याम के ही ध्यान का अभ्यास करना है।

(प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज)

00 सन्दर्भ ::: अध्यात्म संदेश पत्रिका, मार्च 1997 अंक
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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