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  द्रौपदी के उद्धार के रहस्य के द्वारा अनन्यता एवं शरणागति तत्व की व्याख्या
जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 123

(अनन्यता एवं शरणागति का रहस्य, जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी की वाणी यहाँ से पढ़ें..)

..हम लोग अनन्यता पर ध्यान नहीं देते। अनन्य शब्द का अर्थ है अन्य नहीं अर्थात् केवल एक श्यामसुन्दर से प्रेम होना ही अनन्यता है। साधक के अन्त:करण में यदि श्यामसुन्दर के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व आ जायगा तो अनन्यता में बाधा पड़ जायेगी और प्रेमास्पद उसका न बन सकेगा। देखिये, द्रौपदी के उद्धार का रहस्य।

जब द्रौपदी दु:शासन के द्वारा सभा में लायी गयी, तब द्रौपदी के समक्ष एक भयानक परिस्थिति थी। भरी सभा में एक भारत की प्रमुख नारी इस प्रकार अपमानित हो, यह अनुभवी की अन्तरात्मा ही समझ सकती है। अस्तु, द्रौपदी ने प्रथम यह सोचा कि मेरे पांच-पांच पति हैं (युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल, सहदेव) ये हमारी रक्षा करेंगे, अब क्या डर है! किन्तु पांचों पति जुए में हार जाने के कारण चुपचाप बैठे रहे तो द्रौपदी के अन्त:करण से पतियों का बल निकल गया। अब द्रौपदी ने सोचा कि भीष्मपितामह, द्रोणाचार्यादि बड़े बड़े धर्माचार्य रक्षा करेंगे। जब वे भी चुप रहे, तब उनका भी बल निकल गया। अब द्रौपदी के अन्त:करण से समस्त विश्व का बल निकल गया, किन्तु अपना बल रह गया अर्थात् मैं स्वयं अपनी रक्षा करूँगी। भला एक अबला का बल ही क्या है जो 10-हजार हाथी के बल वाले दु:शासन का मुकाबला कर सके। द्रौपदी ने दाँत से साड़ी दबायी। उस समय भगवान् द्वारिका में भोजन कर रहे थे। एक ग्रास मुँह में था, उसे न निगल सके, न उगल सके, एक हाथ मुँह की ओर जा रहा था, उसे न मुँह में डाल सके, न पात्र में तथा आँखें निर्निमेष खुली रह गयीं। ऐसी विलक्षण स्थिति देखकर रुक्मिणी ने पूछा, क्या बात है? भगवान ने कहा, बड़ी गंभीर बात है, एक भक्त पर कष्ट आ पड़ा है। रुक्मिणी ने कहा, तो फिर जाकर बचाओ। भगवान् ने कहा, मैंने हजार बार कहा है-

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

अर्थात् मैं उसी का योगक्षेम वहन करता हूँ जो अनन्य शरणागत हो, किन्तु वह भक्त अभी अपने बल का विश्वास कर रहा है। अस्तु, दु:शासन ने जैसे ही साड़ी को झटका दिया, वैसे ही द्रौपदी के हाथ से साड़ी खिसक गयी।

अब द्रौपदी ने अपने बल का परित्याग कर दिया। अब केवल श्यामसुन्दर के ही बल पर निर्भर हो गयी। बस, अनन्य हो गयी। अम्बरावतार हो गया अर्थात् चीर बढ़ाने के लिये भगवान् तत्क्षण पहुँच गये। भावार्थ यह है कि उपासना में अनन्यता प्रमुख वस्तु है, जिस पर लोगों का विशेष दृष्टिकोण नहीं रहता।

कुछ लोग भगवान् से भी प्रेम करते हैं किन्तु साथ ही अन्य देवताओं या संसारियों से भी प्रेम करते हैं, अतएव भगवत्प्राप्ति नहीं हो पाती। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि एक मन है, उसमें एक श्यामसुन्दर सम्बन्धी ही विषय रहे, अन्य मायिक सत्त्व, रज, तम सम्बन्धी तत्त्व न आने पायें। आजकल प्राय: उपासक लोग अनेक देवी-देवताओं की उपासना साथ-साथ करते रहते हैं। भगवान् की भी करते हैं, और यदि अवसर देखा तो कब्रिस्तान की भी कर लेते हैं। यह सब धोखा है। जब समस्त मायिक एवं अमायिक शक्तियों का मूल अधिष्ठान भगवान् ही है तो पृथक्-पृथक् उपासना क्यों की जाये? यह सिद्धान्त समझ लेना चाहिये कि सम्पूर्ण शक्तियों की उपासना करने पर भी भगवान् की उपासना नहीं मानी जायगी, किन्तु एक भगवान् की उपासना कर लेने पर सम्पूर्ण शक्तियों की उपासना मान ली जायगी।

येनार्चितो हरिस्तेन तर्पितानि जगंत्यपि।
रज्यंते जन्तवस्तत्र स्थावरा जंगमा अपि॥
(भ0र0सि0)

अर्थात् जिसने हरि की उपासना कर ली, उसने सबकी कर ली, सबकी तृप्ति हो गयी। वेदव्यास जी कहते हैं-

यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखा:।
प्राणोपहाराच्चं यथेन्द्रियाणां तथैवं सर्वार्हणमच्युतेज्या॥
(भागवत 4-31-14)

अर्थात् जैसे वृक्ष के मूल में जल देने से वृक्ष की शाखा, उपशाखा एवं उसके पत्र, फूल, फल सब को जल पहुँच जाता है, पृथक्-पृथक् जल देने की आवश्यकता नहीं रहती, वैसे ही समस्त शक्तियों के आधारभूत भगवान् की उपासना कर लेने पर समस्त शक्तियों की उपासना स्वयंमेव हो जाती है, तदर्थ पृथक् से प्रयत्न नहीं करना पड़ता। किन्तु, जिस प्रकार समस्त पत्र, पुष्प, फलादि में जल देने से भी मूल को जल नहीं प्राप्त होता, यहाँ तक कि उस फल-फूलादि को भी जल भीतर से नहीं मिलता, उसी प्रकार समस्त देव दानव-मानव की उपासना से न उनकी तृप्ति ही होती है और न भगवान् की उपासना कहलाती है। अतएव उपासना केवल असीम दिव्य ईश्वर की ही करनी चाहिये, अन्य में आदरभावमात्र रखना चाहिए, जैसे एक पतिपरायणा स्त्री अपने पति में एकानुराग रखती है, किन्तु अपने अन्य देवर, ज्येष्ठ, सास, ससुर, नौकर आदि के प्रति आदर की बुद्धि रखती है।

(प्रवचनकर्ता - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज)

00 सन्दर्भ - जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
00 सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति के आधीन।

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