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 जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी विरचित 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का तीसरा भाग, दोहा संख्या 11 से 15
जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 131

जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::

(भाग - 2 के दोहा संख्या 10 से आगे)

प्रेम के अधीन श्याम नाम ते न कामा।
लाला लाला कहें नित यशुमति भामा।।11।।

अर्थ ::: श्यामसुन्दर तो प्रेम के ही आधीन हैं। उनको किसी विशेष नाम से ही बुलाया जाय ऐसी कोई शर्त नहीं है। यशोदा तो केवल 'लाला' कहकर अपने कन्हैया को पुकारती हैं।

नाम चाहे जो लो करो प्रेम सुखधामा।
सखा कहें कनुआ लंगर कहें बामा।।12।।

अर्थ ::: प्रेम मुख्य है। नाम सभी समान हैं। अपनी रुचि के अनुसार कोई भी नाम यदि प्रेमपूर्वक लिया जाता है तो वह नामी से मिलाने में समर्थ है। ग्वाल बाल अपने सखा को कनुआ कहते हैं। ब्रजबालायें लंगर कहकर ही श्यामसुन्दर को बुलाती हैं।

नामी के समान ही हैं नाम अरु धामा।
रो के पुकारो जो तो कहें ब्रज बामा।।13।।

अर्थ ::: नामी की समस्त शक्तियाँ नाम एवं धाम में विराजमान हैं। यदि कोई जीव इस बात पर शत प्रतिशत विश्वास करके रो कर हरि को बुलाता है तो श्री हरि दौड़े चले आते हैं।

विधि हरि हर सुर मिलि एक ठामा।
रो के पुकारा हरि आए तजि धामा।।14।।

अर्थ ::: जब पृथ्वी पर अत्याचार बढ़ गये, तब ब्रम्हादि देवताओं ने एक स्थान पर एकत्रित होकर रोकर श्री हरि का आह्वान किया। उस समय सर्वशक्तिमान प्रभु देवताओं के निकट अपना धाम छोड़कर चले आये।

शरणागत हाथ बिके श्याम अरु श्यामा।
औरों की लिखा पढ़ी करें उर धामा।।15।।

अर्थ ::: जो सर्वभाव से श्यामा-श्याम के शरणागत हैं, उन जीवों के कर्मों का हिसाब-किताब न रखकर श्यामा-श्याम उनके हाथों बिक जाते हैं, अर्थात सर्वथा उनके दास बन जाते हैं किन्तु जो जीव शरणागत नहीं हैं, उनके हृदय में रहकर उनके प्रतिक्षण के शुभाशुभ कर्मों का हिसाब रखते हैं।

00 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::

ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दु:ख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढऩे पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।

00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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