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  काशी विद्वत  परिषद द्वारा जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज को प्रदत्त उपाधियाँ - प्रथम, 'श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण' की व्याख्या
जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (1)

काशी विद्वत  परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा उपाधियों की व्याख्या, भाग - 1

०० 'श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण'

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिये गये प्रवचन एवं संकीर्तनों में उनका यह स्वरूप स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को भी जनसाधारण के लिये बोधगम्य बनाना उनकी प्रवचन शैली की विशेषता है। गूढ़ से गूढ़ शास्त्रीय सिद्धान्तों को इतनी मनमोहक सरल शैली में प्रस्तुत करते हैं कि मन्द बुद्धि वाले भी निरंतर श्रवण करने से ऐसे तत्वज्ञ बन जाते हैं जो बड़े-बड़े विद्वान तार्किकों को भी तर्कहीन कर देते हैं।

सरलता और सरसता के साथ साथ दैनिक जीवन के क्रियात्मक अनुभवों का मिश्रण उनके प्रवचन की बहुत बड़ी विशेषता है। बोलचाल की भाषा में ही; जिसमें कुछ अंग्रेजी के शब्द भी आ जाते हैं, वह कठिन से कठिन शास्त्रीय सिद्धान्तों को जीवों के मस्तिष्क में भर देते हैं। श्रोत्रिय ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष ही ऐसा करने में सक्षम हो सकता है। जब प्रवचनों में प्रमाण स्वरूप शास्त्रों वेदों के श्लोक बोलते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है मानो समस्त शास्त्र वेद उनके सामने उपस्थित हैं और वे एक के बाद एक पन्ने पलटते जा रहे हैं।

जितने भी आचार्य श्री के द्वारा ग्रन्थ प्रकट किये गये हैं चाहे वह गद्य में हों अथवा पद्य में, उन सभी में शास्त्रों वेदों के गूढ़तम रहस्यों को बहुत ही सरलता व सरसता से प्रतिपादित किया गया है। प्रत्येक ग्रन्थ नाना पुराण निगमादि सम्मत तो हैं ही, साथ ही अपने आप में अप्रत्यक्ष रूप से ब्रम्ह सूत्र का भाष्य ही है। गौरांग महाप्रभु ने भागवत को ब्रम्हसूत्र भाष्य के रूप में स्वीकार किया है।

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित प्रत्येक ग्रन्थ ही भागवत, वेद, पुराण, गीता आदि का पूर्णरूपेण सरलतम रूप है, जो इस कलिकाल के मन्द से मन्द बुद्धि वालों के लिये भी ग्राह्य है। पद्य में विषय अधिक बोधगम्य हो जाता है क्योंकि संकीर्तन में ही श्रवण भक्ति का भी समावेश हो जाता है। पूर्ण तत्वज्ञान युक्त पदों का पुनः पुनः गान करने से बुद्धि में विषय स्वाभाविक रूप से बैठ जाता है, जो जीव को भक्तियोग की क्रियात्मक साधना की ओर स्वतः प्रेरित करता है। साहित्य के विषय में कुछ भी लिखना प्राकृत बुद्धि से संभव नहीं है, बस इतना ही कहा जा सकता है कि इनका प्रत्येक ग्रन्थ गागर में सागर ही है। इनका साहित्य ऐसा प्रेमरस सिन्धु है जिसमें अवगाहन करने पर शुष्क से शुष्क हृदय भी ब्रजरस में डूब जाता है। हृदय श्रीराधाकृष्ण प्रेम में विभोर हो जाता है तथा युगल झाँकी के दर्शन की लालसा तीव्रातितीव्र होती जाती है। सत्य ही है, उनके प्रत्येक ग्रन्थ को यदि ब्रम्हसूत्र का भाष्य कहा जाय तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित ब्रजरस साहित्यों की सूची इस प्रकार है : प्रेम रस मदिरा (पद ग्रन्थ), राधा गोविन्द गीत (दोहा ग्रन्थ), श्यामा श्याम गीत (दोहा ग्रन्थ), भक्ति-शतक (दोहा ग्रन्थ), युगल शतक (कीर्तन ग्रन्थ), युगल रस (कीर्तन ग्रन्थ), ब्रज रस माधुरी (4 भाग, कीर्तन ग्रन्थ), श्री राधा त्रयोदशी (पद ग्रन्थ), श्री कृष्ण द्वादशी (पद ग्रन्थ), युगल माधुरी (कीर्तन ग्रन्थ)

इनके अलावा गद्य अथवा उनके प्रवचन के लिखित रूप पर आधारित प्रेम रस सिद्धान्त, भक्ति-शतक, सेवक सेव्य सिद्धान्त, मैं कौन मेरा कौन, नारद भक्ति दर्शन, दिव्य स्वार्थ, कृपालु भक्ति धारा, कामना और उपासना आदि अगणित साहित्यों में से कोई भी ग्रन्थ पढ़ने के पश्चात पाठक के लिये कोई भी ज्ञातव्य ज्ञान शेष नहीं रह जाता। भक्तिमार्गीय साधक के लिये जितना ज्ञान आवश्यक है, वह सम्पूर्ण रूप में जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित प्रवचन, संकीर्तन तथा साहित्यों में उपलब्ध है।

अतः काशी विद्वत  परिषद द्वारा प्रदत्त उपाधि 'श्रीमत्पदवाक्यप्रमाणपारावारीण' श्री कृपालु जी के व्यक्तित्व में सत्यशः परिलक्षित होता है। हम सभी का सौभाग्य है कि उनके द्वारा प्रदत्त दिव्यज्ञान से लाभ प्राप्त कर अपना आत्मिक कल्याण करने का सुअवसर हमारे हाथ में है।

० सन्दर्भ ::: 'भगवतत्त्व' पत्रिका
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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