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 काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज को प्रदत्त उपाधियाँ - तीसरे, 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की व्याख्या
जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (3)

काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा अन्य उपाधियों की व्याख्या, भाग - 3

00 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य'

जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज विश्व के पंचम् मूल जगद्गुरुत्तम् हैं। उनके जन्मदिवस को विश्व में 'जगद्गुरुत्तम जयंती' के रुप में मनाया जाता है। 1957 में मकर संक्रान्ति के दिन उन्हें 'जगदगुरुत्तम' की उपाधि प्राप्त हुई, यह दिन 'जगदगुरुत्तम-दिवस' के रूप में मनाया जाता है। जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज पूर्ववर्ती आचार्यों के सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए अपना भक्तिप्राधान्य समन्वयवादी सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं, अतएव उन्हें 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की उपाधि से भी अलंकृत किया गया है।

जगद्गुरु बनने से पूर्व सन् 1955 में चित्रकूट में आयोजित अखिल भारतवर्षीय भक्तियोग दार्शनिक सम्मेलन में ही आचार्य श्री का यह स्वरुप प्रकट हो गया था। 1956 में कानपुर में आयोजित द्वितीय महाधिवेशन में काशी विद्वत् परिषद के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी भी उपस्थित थे। उन्होंने विद्वत् परिषद के अन्य विद्वानों से सहमति करके उन्हें विद्वत् परिषत् आमंत्रित किया। जहाँ काशी विद्वत् परिषत् ने पूर्ण परीक्षण के बाद उन्हें इस उपाधि से 14 जनवरी 1957 में विभूषित किया।

जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के 'निखिलदर्शनसमन्वयाचार्य' की उपाधि से संबंधित कुछ तथ्य इस प्रकार हैं -

(1) समस्त मौलिक जगद्गुरुओं में जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ही ऐसे जगद्गुरु हैं जिन्हें इस उपाधि से विभूषित किया गया है।

(2) इस उपाधि का तात्पर्य है कि उन्होंने समस्त दर्शनों अर्थात् वेदों, शास्त्रों, पुराणों, उपनिषदों तथा अन्यान्य धर्मग्रंथों एवं साथ ही अपने पूर्ववर्ती समस्त जगद्गुरुओं के परस्पर विरोधाभासी सिद्धांतों को सत्य सिद्ध करते हुए उनका समन्वयात्मक रुप प्रस्तुत किया।

(3) समस्त दर्शनों का समन्वय करते हुए जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कलियुग में भगवत्प्राप्ति या आनंदप्राप्ति या दुखनिवृत्ति के लिए 'भक्तिमार्ग' की ही प्राधान्यता स्थापित की है। इस सिद्धांत को उन्होंने वेदादिक ग्रंथों का प्रमाण देते हुए सिद्ध भी किया है।

(4) जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कभी भी किसी वेद-शास्त्र आदि का अध्ययन नहीं किया फिर भी उन्हें समस्त वेद-शास्त्र कंठस्थ थे। अपने प्रवचनों में वे इन वेदादिक-ग्रंथों के प्रमाण धाराप्रवाह नंबर सहित बोलते थे। प्रसिद्ध विचारक, लेखक और आलोचक श्री खुशवन्त सिंह ने इन्हें 'कंप्यूटर जगद्गुरु' की संज्ञा दी है।

(5) समस्त जगद्गुरुओं ने शंकराचार्य जी के अद्वैत मत का खंडन किया किन्तु समन्वयवादी जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने उनके इस सिद्धांत का खंडन तो किया लेकिन उनके जीवन में भक्ति के क्रियात्मक स्वरुप को उजागर किया। बोलने मात्र का भेद है। वस्तुत: शंकराचार्य जी ने भी अपने अंतिम जीवन में श्रीकृष्ण-भक्ति ही की थी। उन्होंने अंत:करण शुद्धि के लिए कहा था -

'शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते।'
(प्रबोध सुधाकर)

अर्थात् श्रीकृष्ण-भक्ति के बिना अंत:करण शुद्धि नहीं हो सकती।

उन्होंने अपने शिष्य से यह भी कहा था कि एकमात्र श्रीकृष्ण की भक्ति करने वाला ही निश्चिन्त रहता है - 'कामारि-कंसारि-समर्चनाख्यम्'। अपनी माता को शंकराचार्य जी ने श्रीकृष्ण भक्ति का उपदेश किया और स्वयं दुन्दुभिघोष से यह कहा था -

काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किंचित् फलं स्वेप्सितम्, केचित् स्वर्गमथापवर्गमपरे योगादियज्ञादिभि: ।
अस्माकं यदुनंदनांघ्रियुगलध्यानावधानार्थिनाम्, किं लोकेन् दमेन किं नृपतिना स्वर्गापवर्गैश्च किम् ।।

अर्थात् सकाम भक्ति करने वाले भोले लोग स्वर्गप्राप्ति हेतु सकाम कर्म करें, मैं नहीं करता एवं ज्ञान-योगादि के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने वाले उस मार्ग में जाकर मुक्त हों, हमें नहीं चाहिए. हम तो आनंदकंद श्रीकृष्णचरणारविन्दमकरंद के भ्रमर बनेंगे।

जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी के श्रीकृष्णभक्ति संबंधी श्लोकों को अपने प्रवचनों में उद्धरित करके जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज यही सिद्ध करते हैं कि श्री शंकराचार्य जी प्रच्छन्न श्रीकृष्णभक्त ही थे।

(6) जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज ने समाज में व्याप्त कुरीतियों और वेदादिक ग्रंथों के अनर्थ कर देने से प्रचलित गलत मार्गों यथा - गुरुडम आदि का पुरजोर विरोध किया और शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा उसकी वास्तविकता को विश्व के समक्ष रखा।

ऐसे जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज के विलक्षण समन्वयवादी स्वरुप को देखकर काशी विद्वत् परिषद के जनरल सेक्रेटरी आचार्य श्री राजनारायण जी शुक्ल षट्शास्त्री जी ने 1956 में सार्वजनिक रुप से घोषणा करते हुए कहा था -

'इतनी छोटी अवस्था में इन्होंने सब वेदों शास्त्रों का इतना विलक्षण ज्ञान प्राप्त कर लिया है यह मैंने इससे पूर्व कभी भी स्वीकार नहीं किया था। किन्तु कल का प्रवचन सुनकर मैं मंत्रमुग्ध हो गया। उन्होंने समस्त दर्शनों का विवेचन करके जिस विलक्षण ढंग से भक्तियोग में समन्वय किया है वह अलौकिक था, दिव्य था। इस प्रकार का प्रवचन भगवान् की देन है। इस प्रकार की प्रतिभा एवं इस प्रकार का ज्ञान कोई स्वयं अर्जित नहीं कर सकता। आप लोगों का यह परम सौभाग्य है कि ऐसे दिव्य वाङ्मय को उपस्थित करने वाले एक संत आपके मध्य आये हैं..'

साथ ही समस्त विद्वानों ने नतमस्तक होकर यह स्वीकार किया था -

'शास्त्रार्थ तो मनुष्य से किया जाता है, ये मनुष्य तो हैं नहीं. इनसे हम क्या शास्त्रार्थ कर सकते हैं??'

तुलसीदास जी की काव्यकला के लिए कहा गया है -

'कविता करि के तुलसी न लसे, कविता लसि पा तुलसी की कला..'

इसी प्रकार 'जगद्गुरुत्तम्' की उपाधि से कृपालु जी नहीं अपितु कृपालु जी को पाकर 'जगद्गुरु' की उपाधि ने सम्मान पाया है।

00 सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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