काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज को प्रदत्त उपाधियाँ - चौथे, 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्सम्प्रदायपरमाचार्य' की व्याख्या
जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (4)
काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा अन्य उपाधियों की व्याख्या, भाग - 4
00 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्सम्प्रदायपरमाचार्य'
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज शिष्य भी नहीं बनाते और सम्प्रदाय भी नहीं चलाते। उनके अनुसार यह सब उचित नहीं है। वे कहते हैं सम्प्रदायों में परस्पर द्वेष फैलता है। वे सभी संप्रदायाचार्यों के सिद्धान्तों का पूरा समन्वय करते हैं।
उन्होंने आज तक किसी को मन्त्रदान नहीं दिया। अमेरिका में एक बहुत बड़े पादरी ने आपसे प्रश्न किया कि आपके कितने लाख शिष्य हैं? इनका उत्तर सुनकर वह आश्चर्य चकित हो गया जब इन्होंने मुस्कुराते हुये उत्तर दिया - एक भी नहीं। उसने पुन: प्रश्न किया, आप वर्तमान मूल जगदगुरु हैं और आपका एक भी शिष्य नहीं। क्या आप कान नहीं फूँकते? जगदगुरु श्री कृपालु जी ने उत्तर दिया - नहीं, मैं कान नहीं फूँकता।
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज ने कोई भी नया सम्प्रदाय नहीं चलाया। वे कहते हैं तीन सनातन तत्व हैं - ईश्वर, जीव और माया। अत: दो ही क्षेत्र हैं - ब्रम्ह श्रीकृष्ण एवं मायिक जगत। मन ही शुभाशुभ कर्म का कर्ता है। यदि मन श्रीकृष्ण में लगा दिया जाय तो श्रीकृष्ण सम्बन्धी ज्ञान (सर्वज्ञता) एवं आनंद (दिव्य अनंत) प्राप्त होगा। यदि मायिक जगत में मन लगा रहेगा तो अज्ञान एवं दु:ख ही प्राप्त होता रहेगा। अत: जो भगवान में ही शाश्वत सुख मानते हैं तदर्थ निरंतर प्रयत्नशील हैं वे 'भगवत्सम्प्रदाय' वाले हैं और जो इसके विपरीत मायिक जगत में मन को लगाते हैं वे माया के सम्प्रदाय वाले हैं, और कोई सम्प्रदाय ही नहीं, हो ही नहीं सकता। इनको श्रेय और प्रेय भी कहते हैं।
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के अनुसार, सत्य मार्ग यह है कि जीव एकमात्र पूर्णतम पुरुषोत्तम आनन्दकन्द सच्चिदानन्द श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों में ही अपने आपको समर्पित कर दें, एवं उन्हीं के नाम, गुण, लीलादिकों का स्मरण करता हुआ रोमांचयुक्त होकर, आनंद एवं वियोग के आँसू बहावे। अपने हृदय को द्रवीभूत कर दे, तथा मोक्ष पर्यन्त की समस्त इच्छाओं का सर्वथा त्याग कर दे। इस प्रकार बिना किये अन्त:करण शुद्धि नहीं हो सकती। सत्य एवं दया से युक्त धर्म एवं तपश्चर्या से युक्त विद्या भी भगवान की भक्ति से रहित जीव को पूर्णत: शुद्ध नहीं कर सकती।
जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज सम्प्रदायवाद से दूर रहकर, शिष्य परम्परा से भी दूर हटकर केवल श्रीकृष्ण की निष्काम भक्ति के लिये ही जीवों को निर्देश देते हैं। उन्होंने अपने 'भक्ति-शतक' ग्रन्थ में लिखा है :::
सकल धर्म को मूल हैं, एक कृष्ण भगवान।
मूल तजे सब शूल हैं, कर्म, योग अरु ज्ञान।।
कर्म, ज्ञान अरु योग को, जो भी फल श्रुति गाय।
अनायास बिनु माँगे भगत, सकल फल पाय।।
सौ बातन की बात इक, धरु मुरलीधर ध्यान।
बढ़वहु सेवा वासना, यह सौ ज्ञानन ज्ञान।।
यही 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदाय' है। अत: आचार्य श्री को 'सनातनवैदिकधर्मप्रतिष्ठापनसत्संप्रदायपरमाचार्य' की उपाधि से अलंकृत किया गया।
00 सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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