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  प्रश्न: महापुरुष का त्यागमय जीवन उचित है कि गृहस्थ जीवन जीना उचित है? जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर!!
 जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 173

प्रश्न: महापुरुष का त्यागमय जीवन उचित है कि गृहस्थ जीवन जीना उचित है?

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर :::

ऐसा है कि शुरू शुरू में तो संसार से वैराग्य आवश्यक है, जैसे पहले दूध होता है, उसको एकान्त में जमा देते हैं तो दही बन जाता है। फिर दही को जब मथ दिया और उसका मक्खन निकल आया तो फिर चाहे उसे पानी में डाल दो कोई डर नहीं। उसी प्रकार संसार में जो एटमॉसफीयर है गन्दा, इससे मन को हटाने के लिये पहले विरक्त होता है आदमी और जब भगवान की शक्ति मिल गई, तो फिर हमारे देश में तो ध्रुव ने छत्तीस हज़ार वर्ष तक राज्य किया। प्रह्लाद ने तीस करोड़ वर्ष राज्य किया। भरत ने एक करोड़ वर्ष राज्य किया। सब गोपियाँ ब्रज की गृहस्थ ही थीं। ब्रह्मा, शंकर उनकी चरण धूलि चाहते थे। निन्यान्वे प्रतिशत सन्त हमारे यहाँ गृहस्थ हुए इण्डिया में और ये संन्यास तो अभी शंकराचार्य ने निकाला है ज्यादा जोरदार। तो संन्यासी बन गए लोग तमाम । नहीं तो सब हमारे गृहस्थी में ही साधना करते थे। लेकिन, चूँकि वातावरण खराब हो गया है संसार का कलियुग में, इसलिये कुछ दिन पहले विरक्त हो के साधना करके मन को जमा लें और खूब मथकर, रूपध्यान करके, साधना करके, भक्ति करके भगवान का प्रेम प्राप्त कर लें, फिर संसार का कोई डर नहीं। संसार में आवें, रहें, कुछ भी हो।

दूध में पानी डालोगे तो मिल जायेगा। मक्खन बनाकर जब पानी में डालोगे तो नहीं मिलेगा।

अगर महापुरुष संसार में न आवे तो किसी जीव का कल्याण ही नहीं हो सकता तो फिर कोई महापुरुष बनेगा कैसे? अरे! जब वो संसार में आयेगा, तो लोगों को समझायेगा, तब तो जीव भगवान की ओर चलेंगे। अगर वो अपना मतलब हल करके, बाबाजी बनके, भजन करके, भगवत्प्राप्ति करके चला जाय भगवान के यहाँ, तो हम लोग क्या करेंगे? संसार वालों को भी तो भगवत्प्राप्ति करना है। इसलिये स्वार्थ सिद्ध होने के बाद गुरु का ऋण उतारने के लिये उसको संसारी लोगों को ईश्वर की ओर ले जाने का काम दिया जाता है। वो कम्पलसरी है, वो करना पड़ेगा उसको, नहीं तो ऋण से उऋण नहीं होगा। तुमको ज्ञान दिया है किसी ने, तो तुम भी तो दूसरों को दो, वरना वो लिंक टूट जायेगी तो फिर किसी जीव का उद्धार कैसे होगा?

इसलिये प्राचीन काल में सतयुग में भी जंगलों में रहने वाले महात्मा लोग गृहस्थियों के यहाँ, राजाओं के यहाँ जाते थे, उनको तत्त्वज्ञान देते थे। रहते नहीं थे हमेशा उनके घर में, लेकिन जाते-आते थे। उस समय नॉलेज बहुत थी लोगों में। थोड़ा सा तत्त्वज्ञान देने पर ही लोग चल पड़ते थे। अब बुद्धि बहुत वीक (कमजोर) हो गई है मनुष्य की। सौ बार समझाओ तो कोई बात कहीं बुद्धि में बैठती है। दूसरी बात एक और है, जैसे सब नदियाँ समुद्र में मिलती हैं, कोई टेढ़ी, कोई सीधी। उसी प्रकार मार्ग भी बहुत से हैं, भगवान को प्राप्त करने के। कोई टेढ़े हैं, कोई सीधे हैं, कोई ज्ञान मार्ग है, कोई भक्ति मार्ग है, तपस्या है, कोई कुछ है। और मार्गों में तो एकान्त वास, जंगल में रहना और वो सब नियम का पालन, योग वगैरह में शारीरिक नियम भी है बहुत। वो तो संसार में नहीं रह सकते, साधना उनकी नहीं बनेगी। लेकिन भक्तिमार्ग में भगवान की भक्ति एक ऐसा साधन है जिसमें कोई देश नियम नहीं, काल नियम नहीं, कोई प्रपंच नहीं। जैसे संसार में माँ से, पिता से, बेटे से, बीवी से, पति से कोई प्यार करता है, ऐसे ही भगवान से करता है। चाहे जहाँ रहो, चाहे जैसे रहो। भक्तिमार्ग गृहस्थ में अधिक चलता है। अधिक महापुरुष गृहस्थ में इसीलिये हुए। यहाँ पर रहकर भक्ति कर लेते हैं अपना। और जो तपस्या वगैरह है और मार्ग हैं उसमें तो एकान्त वास भी हो, खाने का भी नियम, अब पानी पीओ खाली, खाली पत्ते खाओ, अब खाली फल खाओ। सब कायदे कानून है उसमें। अष्टांग योग है यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, समाधि सब कायदे-कानून हैं। वो संसार में रहकर नहीं हो सकते। वो जंगल ही में होंगे। वातावरण ही यहाँ नहीं मिलेगा उसको। लेकिन भक्ति तो सब जगह हो सकती है। हुई है। तमाम महापुरुष संसार में ही तो हुए हैं। तुलसीदास हों, सूरदास हों, मीरा हों, कबीर हों, नानक हों, तुकाराम हों सभी गृहस्थ में ही (संसार में) हुए हैं अभी कलियुग में। रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य सब गृहस्थी। बस, एक शंकराचार्य हुए हैं जिन्होंने संन्यासी बनने का नाटक किया। अब निरे संन्यासी हो गये हमारे देश में और वो सब गृहस्थियों के यहाँ रहते हैं, जबकि संन्यासियों के लिये बड़े कायदे कानून हैं वेद में, किसी के घर के सामने एक मुहूर्त से ज्यादा न ठहरो। खाली भिक्षा माँगने जाओ बस और कोई आश्रम भी न बनाओ। सबके आश्रम हैं संन्यासियों के, सब गृहस्थियों के यहाँ रहते हैं।

भक्ति मार्ग में कोई नियम नहीं है, बस प्यार करना है भगवान् से। ये सुविधा है सबके लिये।

00 प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
00 सन्दर्भ ::: जगदगुरु कृपालु जी महाराज साहित्य
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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