जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी विरचित 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का ग्यारहवाँ भाग, दोहा संख्या 51 से 55
जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 193
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 1008-ब्रजभावयुक्त दोहों के विलक्षण ग्रन्थ 'श्यामा श्याम गीत' के दोहे, ग्रन्थ की प्रस्तावना सबसे नीचे पढ़ें :::::::
(भाग - 10 के दोहा संख्या 50 से आगे)
निन्दनीय श्यामा श्याम प्रेम भी सकामा।
वन्दनीय श्यामा श्याम प्रेम निष्कामा।।51।।
अर्थ ::: श्यामा श्याम का भी प्रेम यदि वह सकाम है, निंदनीय है। श्यामा श्याम का निष्काम प्रेम वन्दनीय है।
हरि गुरु ते न कछु माँगो ब्रज बामा।
दोनों ते सदा करो प्रेम निष्कामा।।52।।
अर्थ ::: हरि एवं गुरु से कभी अपनी किसी कामना पूर्ति की आशा नहीं करनी चाहिये। जीव को सदैव निष्काम प्रेम ही करना चाहिये।
विष कीड़ा विष रस माँगे आठु यामा।
मन माँगे विषयन नहिं माँगे श्यामा।।53।।
अर्थ ::: जिस प्रकार विष का कीड़ा निरंतर विष के रस में ही संतुष्ट रहता है, उसी प्रकार यह धूर्त मन भी निरंतर विषयों के रस में ही आनन्द का अनुभव करता है। यह श्रीराधिका के नाम, रूप, लीला, गुणादि का गायन, स्मरण आदि कर सुखानुभूति नहीं करता।
भुक्ति माँगें मूढ़ जन मिटै नहिं कामा।
मुक्ति माँगें महामूढ़ कहें ब्रज बामा।।54।।
अर्थ ::: जो लोग भगवान से सांसारिक भोग माँगते हैं, वे मूर्ख हैं, मुक्ति की कामना करने वाले तो और भी अधिक मूर्ख हैं, क्योंकि मुक्त हो जाने पर तो भगवत्प्रेम मिलने की सम्भावना भी नहीं रहेगी।
माँगना हो तो माँगो सेवा श्याम श्यामा।
सेवा हित पुनि माँगो प्रेम निष्कामा।।55।।
अर्थ ::: यदि माँगना ही है तो युगल-सरकार की सेवा ही माँगनी चाहिये। सेवा के लिये निष्काम-प्रेम की याचना करनी चाहिये।
०० 'श्यामा श्याम गीत' ग्रन्थ का परिचय :::::
ब्रजरस से आप्लावित 'श्यामा श्याम गीत' जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की एक ऐसी रचना है, जिसके प्रत्येक दोहे में रस का समुद्र ओतप्रोत है। इस भयानक भवसागर में दैहिक, दैविक, भौतिक दुःख रूपी लहरों के थपेड़ों से जर्जर हुआ, चारों ओर से स्वार्थी जनों रूपी मगरमच्छों द्वारा निगले जाने के भय से आक्रान्त, अनादिकाल से विशुध्द प्रेम व आनंद रूपी तट पर आने के लिये व्याकुल, असहाय जीव के लिये श्रीराधाकृष्ण की निष्काम भक्ति ही सरलतम एवं श्रेष्ठतम मार्ग है। उसी पथ पर जीव को सहज ही आरुढ़ कर देने की शक्ति जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज की इस अनुपमेय रसवर्षिणी रचना में है, जिसे आद्योपान्त भावपूर्ण हृदय से पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे रस की वृष्टि प्रत्येक दोहे के साथ तीव्रतर होती हुई अंत में मूसलाधार वृष्टि में परिवर्तित हो गई हो। श्रीराधाकृष्ण की अनेक मधुर लीलाओं का सुललित वर्णन हृदय को सहज ही श्यामा श्याम के प्रेम में सराबोर कर देता है। इस ग्रन्थ में रसिकवर श्री कृपालु जी महाराज ने कुल 1008-दोहों की रचना की है।
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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