कोई भी साधना करते समय सबसे प्रमुख बात कौन सी है जो ध्यान में रखनी आवश्यक है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 198
(जैसे प्राण के बिना शरीर का महत्व नहीं, साधना में रूपध्यान की ऐसी ही महत्त्वता पर जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा संक्षिप्त प्रकाश...)
अन्तरंग नियमों में सबसे प्रमुख है 'रूपध्यान'। ये तो आप लोगों को पता ही है कि साधना, 'ईश्वरीय साधना' केवल मन को करनी है। केवल मन को। इन्द्रियाँ इसलिये साथ लगा दी जाती हैं, वेद कहता है, इन्द्रियाँ बाहर की ओर ले जाने वाली है। ये स्वयं भू ब्रह्मा ने, इन्द्रियों को ऐसा बनाया है, जो बाहर की ओर जाती हैं, भागती हैं, नेचुरल। तमाम जन्मों का अभ्यास भी है। और फिर इन्द्रियाँ भी प्राकृत हैं, संसार भी प्राकृत है; इसलिये सजातीय होने के कारण स्वाभाविक आकर्षण संसार की ओर होता है। हम संसार देखते हैं, सुनते है, सूँघते है, रस लेते हैं, स्पर्श करते हैं, तो हमारा मन संसार की ओर तत्काल आकृष्ट हो जाता है। इसलिये हमको सबसे पहले ये सोचना है कि हम उपासक हैं, साधक हैं, श्रीकृष्ण के दास हैं। इसके बाद फिर सोचना है श्रीकृष्ण हमारे स्वामी हैं। राधाकृष्ण को हम पहले अपने सामने खड़ा करें। चाहे अपने अन्तःकरण में खड़ा करें। चाहे अपने सामने खड़ा करें, चाहे स्वयं को भाव देह बना करके, अपना सूक्ष्म शरीर बना करके, इस शरीर से निकल करके, और भगवान के लोक में चले जायें। जिसको जिस प्रकार की रुचि हो, अच्छा लगे, जैसा आपका हिसाब बैठ जाय, इस प्रकार से रूपध्यान करें; किन्तु बिना रूपध्यान के कोई भी साधना न करें।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: साधना नियम पुस्तक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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