भगवदीय मार्ग के साधक के लिये एक गुरु, एक इष्टदेव और एक साधना मार्ग की अनन्यता पर जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा प्रकाश!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 243
साधक का प्रश्न ::: महाराज जी! क्या ये भी आवश्यक है कि एक ही इष्टदेव, गुरु हो?
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::: हाँ! ये अत्यावश्यक है कि एक ही इष्टदेव हो, एक ही गुरु हो। एक ही इष्टदेव की भक्ति करना है, बाकी को उन्हीं का रूप मान लेना है। रूपध्यान करना होगा न। तो रूपध्यान में एक इष्टदेव बनाओ, एक गुरु बनाओ और उसके अनुसार चलो; क्योंकि अगर कई महात्माओं के पास जाओगे, तो वो कुछ बतायेगा, वो कुछ बतायेगा तो कन्फ्यूजन पैदा होगा। इसी प्रकार कई इष्टदेव का ध्यान करोगे तो इसका ध्यान बनाओगे तो वो कम बना, फिर उसका शुरू किया। तमाम प्रैक्टिस करनी पड़ती है न। इसलिये एक ही इष्टदेव हो, एक ही गुरु हो तो जल्दी सफलता मिलती है। बाकी फिर चाहे चार दिन राम राम करो, चार दिन श्याम श्याम करो सब बराबर। इसमें कोई फरक नहीं है। लेकिन अगर तुम 'राम' का ध्यान बनाती हो, फिर 'नृसिंह' भगवान् का ध्यान बनाती हो, फिर तुम 'कच्छप' भगवान् का बनाती हो; एक ही ध्यान बनाना मुश्किल पड़ता है, इतना खराब मन है और फिर तमाम ध्यान कैसे बनेगा।
एक इष्ट, एक गुरु, एक मार्ग - तीन बात। बस अपने इष्टदेव की ही बात सुनना, अपने गुरु की ही बात सुनना, उन्हीं का सत्संग करना और अपने मार्ग के अलावा किसी मार्ग की बात सुनना भी नहीं, पढ़ना भी नहीं। नहीं तो कन्फ्यूज़न होगा। क्योंकि बात तो सब सही है लेकिन अधिकारी भेद का फरक है। जैसे भक्त कहता है मैं दास हूँ, अधम हूँ, पतित हूँ, गुनहगार हूँ, नाचीज़ हूँ, अनन्त पाप किये बैठा हूँ। अब इसका उलटा है ज्ञानमार्ग। मैं शुद्ध हूँ, बुद्ध हूँ, ब्रह्म हूँ और बिल्कुल उलटा बोल रहा है वो और केवल आत्मा के लिये बोल रहा है। और हम बोल रहे हैं शरीरेन्द्रिय, मन, बुद्धि जो माया के अण्डर में हम हैं, वो मिलाकर के बोल रहे हैं। अब वो क्यों बोल रहा है वैसा? उसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, वो चार साधनों से सम्पन्न हो चुका है, इसलिए बोल रहा है। इसलिये वो ठीक है।
हम वहाँ पहुँच जायेंगे तब हम भी वैसे ही बोलेंगे।अभी कैसे बोलेंगे? ये फरक है। देखो! छोटे बच्चे इतना बड़ा बस्ता ले जाते हैं बाँध कर अपनी पीठ पर और यूनिवर्सिटी में जाते हैं बच्चे पढ़ने, एक कॉपी ले जाते हैं। खाली नोट्स लिख लिया, हो गया बस। तो शुरू शुरू में साधक के लिये सब प्रॉब्लम्स हैं फिर बाद में सब सुविधा हो जाती है।
अब एक कर्मकाण्ड में बैठो संध्या करने, कोई कर्म करने, तो कहाँ बैठो, ये सोचो पहले? शुद्ध जगह होनी चाहिये, गंदी जगह न बैठना, ये लेट्रीन है यहाँ नहीं बैठना। बैठने के बाद किधर को मुँह करें? दक्षिण तरफ मुँह न करना, पूरब की तरफ करना। फिर आचमन करो, कवच, अर्गला, तिलक, दिशाओं की शुद्धि। तमाम नाटक करो, तब जाकर तुम जप शुरू करो। मृत्युंजय का जाप करने जा रहे हो। इतने नियम हैं। और भक्ति मार्ग में तुम चाहे घोर गन्दगी में बैठे हो, हजार दिन से नहीं नहाये हो, किसी भी गन्दगी की हालत में हो 'राधे' 'राधे' बोलो, भगवान् से प्यार करो।
गौरांग महाप्रभु के जमाने में एक आदमी 'हरे राम हरे राम' मंत्र का जप दिन रात करे, आदत डाल लिया उसने। तो जब लघुशंका के लिये जाय तो मुँह पर हाथ धर ले क्योंकि लोगों ने बताया था कि पाखाना, पेशाब करते समय भगवान् का नाम या कोई ऐसी चीज़ नहीं करनी चाहिये, तो किसी ने देख लिया। उसने महाप्रभु जी से कहा कि स्वामी जी! ये ऐसा करता है। उन्होंने उसे हँस कर बुलाया इधर आओ, क्या करते हो तुम?
गुरु जी क्या करें, निकल जाता है मुँह से, भगवन्नाम की आदत पड़ गई है, इसलिये मुँह बन्द कर लेता हूँ। उन्होंने कहा - नहीं नहीं, भगवान् का नाम गन्दगी को शुद्ध करता है। गन्दगी से भगवान् का नाम अशुद्ध नहीं होता है। तू हर समय लिया कर।
अब पूजा है मन्दिर की, ये है, वो है नहा कर जाओ, ये करो, रजस्वला है वो न जाय स्त्री मन्दिर में, ठाकुर जी की मूर्ति न छुए, सब कायदे कानून हैं। भक्ति में ये कुछ नहीं;
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोपि वा।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥
(पद्म पुराण, पाताल खण्ड 80-12)
वेदव्यास लिखते हैं चाहे पवित्र हो वो, परमपवित्र ब्रह्मा, शंकर हो, और चाहे घोर अपवित्र पापात्मा हो बाहर से भी भीतर से भी गन्दा हो, भगवान् का स्मरण कर ले, भीतर बाहर सब शुद्ध हो जाय।
इतनी रियायत है भक्ति मार्ग में। बस, भगवान् का स्मरण करना है और कुछ नहीं। नाम लो ठीक है, न लो तो भी चलेगा। मन से स्मरण करना आवश्यक है क्योंकि गन्दगी तो मन की शुद्ध करना है। शरीर की गन्दगी तो साबुन से हो जायेगी शुद्ध दो मिनट में, गड़बड़ तो वो मन कर रहा है। सारा संसार दु:खी है मन से। शरीर से चाहे कोई वो सारे संसार की सुन्दरी हो, लेकिन मन से सब दु:खी हैं, परेशान हैं इसी प्रकार। जैसे एक भिखारी वैसे ही एक अरबपति। तो मन ही को ठीक करना है।
चित्तमेव हि संसारः। (मैत्रेयी उपनिषद् 1-5)
वेदव्यास कहते हैं संसार की परिभाषा क्या है? बस, चित्त, मन। इसी का नाम संसार है। इसी संसार में संत महात्मा रहते हैं, आनन्दमय रहते हैं। उनके भी माँ है, बाप है, बेटा-बेटी हैं, वो भी कोई मरता है, कोई जीता है, कोई बीमार होता है। लेकिन उनके ऊपर असर नहीं। और इसी में मायाबद्ध रहता है, वो दिन रात हाय! हाय! आज बेटा मर गया, आज वो मर गया, आज वो धन लुट गया, आज ये हो गया, आज उसने हमारी बुराई कर दी, दिन रात टेन्शन। आज बीबी ने ये कह दिया, बाप ने ये कह दिया, पति ने ये कह दिया दिनभर यही गोबर गणेश खोपड़ी में घूमता रहता है। भगवान् का स्मरण कैसे करे?
गृह कारज नाना जंजाला।
सोई अति दुर्गम शैल विशाला॥
आज कल का गृहस्थ बहुत गड़बड़ है। बेटा कहता है श्रीकृष्ण की भक्ति करो, बाप कहता है आर्यसमाजी बनो, बीबी कहती है राधास्वामी बनेंगे। इसी में लड़ाई हो रही है। तुम्हारे गुरु जी दो कौड़ी के हैं, उसने कहा तुम्हारे गुरु जी दो कौड़ी के हैं, इसी में लड़ाई हो रही है। वो ठाकुरजी की मूर्ति फेंकता है, वो उसकी फेंकता है। ये गृहस्थी है आजकल की।
जब तक पूरा गृहस्थ एक लक्ष्य का न हो, बहुत दुर्लभ है, माँ भी वैसी मिले, बाप भी वैसा मिले, बेटा भी वैसा मिले, बीबी भी वैसी मिले, पति भी वैसा मिले। सब एक इष्टदेव, एक गुरु, एक मार्ग के चलने वाले हों, तब तो कुछ हिसाब बैठ जाता है, वरना बहुत मुश्किल है।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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