बद्रीनाथ मंदिर में क्योंं नहीं बजाए जाते शंख
चमोली। चार धाम यात्रा में से एक बद्रीनाथ मंदिर के द्वार खुल चुके हैं, लेकिन इस बार यहां पर भक्तों का तांता नहीं लगा हुआ है। कोरोना वायरस के बचाव के कारण देश भर में लॉकडाउन है जिसके कारण इस मंदिर के दरवाजे भी भक्तों के लिए बंद हैं।
बद्रीनाथ मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित हैं। हर साल छह महीने के लिए ब्रदीनाथ धाम के द्वारा बंद हो जाते हैं। अक्षय तृतीया पर बड़ी धूमधाम से मंदिर के द्वार भगवान के दर्शनों के लिए खोले जाते हैं। इस मंदिर की अपनी परंपरा और पूजा विधान है। इसमें से एक है कि यहां पर पूजा के दौरान शंख नहीं बताया जाता। आम तौर पर पूजा के दौरान शंख की ध्वनि शुभकारी मानी जाती है, लेकिन बद्रीनाथ धाम में ऐसा नहीं होता है। इसके पीछे एक पौराणिक कथा है।
इस मंदिर में शंख नहीं बजाने के पीछे ऐसी मान्यता है कि एक समय में हिमालय क्षेत्र में दानवों का बड़ा आतंक था। वो इतना उत्पात मचाते थे कि ऋषि-मुनि न को मंदिर में और न ही आश्रमों में भगवान की पूजा-अर्चना कर पाते थे और । यहां तक कि दानव ऋषि-मुनियों को ही अपना निवाला बना लेते थे। राक्षसों के इस उत्पात को देखकर ऋषि अगस्त्य ने मां भगवती को मदद के लिए पुकारा, जिसके बाद माता कुष्मांडा देवी के रूप में प्रकट हुईं और अपने त्रिशूल और कटार से सारे राक्षसों का विनाश कर दिया। हालांकि आतापी और वातापी नाम के दो राक्षस मां कुष्मांडा के प्रकोप से बचने के लिए भाग गए। इसमें से आतापी मंदाकिनी नदी में छुप गया जबकि वातापी बद्रीनाथ धाम में जाकर शंख के अंदर घुसकर छुप गया। इसके बाद से ही बद्रीनाथ धाम में शंख बजाना वर्जित हो गया और यह परंपरा आज भी चलती आ रही है।
ब्रदीनाथ मंदिर उत्तराखंड के चमोली जनपद में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित एक प्राचीन मंदिर है, जिसका निर्माण सातवीं-नौवीं सदी में होने के प्रमाण मिलते हैं। इसे भारत के सबसे व्यस्त तीर्थस्थानों में से एक माना जाता है, क्योंकि यहां हर साल लाखों लोग भगवान बद्रीनारायण के दर्शन के लिए आते हैं। इस मंदिर में भगवान बद्रीनारायण की एक मीटर (3.3 फीट) लंबी शालिग्राम से निर्मित मूर्ति है जिसके बारे में मान्यता है कि इसे भगवान शिव के अवतार माने जाने वाले आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में पास ही स्थित नारद कुंड से निकालकर स्थापित किया था। कहा जाता है कि यह मूर्ति अपने आप धरती पर प्रकट हुई थी।
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