भक्ति को 'कल से करूँगा' कहकर टालना महान भूल है, जानें काल अर्थात मृत्यु का भरोसा क्यों नहीं करना है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 287
(भूमिका - 'काल' अर्थात 'मृत्यु' अनिश्चित है, कब आयेगी पता नहीं। इसलिये मनुष्य के लिये शास्त्रों की आज्ञा है कि अपने परमार्थ के लिये अति शीघ्रता करनी होगी। आइये जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से निःसृत इन शब्दों के द्वारा 'काल/मृत्यु' की अनिश्चितता के सम्बन्ध में विचार करें....)
कालि कालि जनि कहु गोविंद राधे।
जाने काल कालि को ही आवन न दे।।
(स्वरचित दोहा)
कल से भजन करेंगे , कल से यही करेंगे। हाँ वेद कहता है;
न श्वः श्वः उपासीत को हि पुरुषस्य श्वो वेद।
(वेद)
कल करेंगे, कल करेंगे, कल भजेंगे, कल से यही करेंगे - ये बकवास बन्द करो। यही करते-करते तो अनन्त जन्म बीत गये; उधार, उधार।
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालोभविष्यति।
(महाभारत)
अरे एक सेकण्ड लगता है प्राण निकलने में। बड़े-बड़े वैज्ञानिक, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, योगी, तपस्वी जो नया स्वर्ग बना सकते हैं, ऐसे विश्वामित्र वगैरह कहाँ हैं? सबको जाना पड़ा। भगवान् को छोड़कर, किसी की हिम्मत नहीं है जो काल को चैलेन्ज कर सके और भगवान् को भी तो जाना पड़ता है। लेकिन वो काल के आधीन होकर नहीं जाते, काल की प्रार्थना से जाते हैं। जब ग्यारह हजार वर्ष पूरे हो गये राम के, तो यमराज आया और आकर के चरणों में प्रणाम करके कहता है - महाराज! याद दिलाने आया हूँ। आपने कहा था कि ग्यारह हजार वर्ष रहूँगा, तो मैं याद दिलाने आया हूँ और प्रणाम करके चला गया। अरे! महापुरुष के पास भी यमराज आता है, आकर के बैठ जाता है तो महापुरुष उसके सिर पर पैर रखता है, तब आगे विमान में बैठता है। तो ये काल किसी को नहीं छोड़ता। सीधे नहीं टेढ़े, सबको जाना होगा। जाना नहीं चाहता कोई संसार से, अटैचमेन्ट है न, इसलिये मम्मी, पापा, बेटा, बेटी, नाती, पोता जो भी होते हैं उनको छोड़ के नहीं जाना चाहता। जानता है, सब छूटेंगे, फिर भी पहले नहीं छोड़ता अटैचमेन्ट।
अन्तहुँ तोहि तजेंगे पामर तू न तजै अबही ते।
अरे ! ये सब छोड़ेंगे तेरा साथ। किसी का आज तक इतिहास में ऐसा नाम नहीं है जो सब साथ गये हों और अगर एक साथ चलें भी तो रास्ता सबका अलग-अलग होगा। आप कह सकते हैं सारी दुनियाँ में छः अरब आदमी हैं और एक सेकेण्ड में दस मरे हैं, हाँ, एक साथ मरे दस, ठीक है, लेकिन उसके बाद क्या हुआ? सब अलग-अलग गये ।
पुण्येन पुण्यं लोकं नयति पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्।।
(प्रश्नोपनिषद 3-7)
सब अपने-अपने कर्म के अनुसार गये। इसलिये उधार नहीं करना॥
०० व्याख्याकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० पुस्तक सन्दर्भ ::: 'हरि-गुरु स्मरण - दैनिक चिन्तन' पुस्तक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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