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  भगवान और महापुरुषों की नकल क्यों नहीं करनी है? भगवान व महापुरुषों के मायिक सरीखे कर्मों के पीछे क्या रहस्य है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 343

(भूमिका - प्रस्तुत उद्धरण में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज यह समझा रहे हैं कि क्यों एक मायाधीन मनुष्य को मायातीत महापुरुष तथा मायाधीश भगवान द्वारा की गई लीलाओं/कर्मों की नकल नहीं करनी है? साथ ही इस रहस्य और भी प्रकाश डाला गया है कि कैसे भगवान और महापुरुष ऐसे कर्म कर लेते हैं जो साधारण बुद्धि से मायिक मनुष्यों जैसे प्रतीत होते हैं....)

...शुकदेव परमहंस महारास सुना रहे थे उसी बीच में यह प्रकरण आया कि श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और गोपियाँ विलाप करने लगीं। परीक्षित सुनते रहे। इतने में बीच में बोल पड़े परीक्षित कि महाराज! एक छोटा सा सवाल और है। क्या? ये पराई स्त्रियों के साथ श्रीकृष्ण ने जो रास किया ये तो ठीक नहीं लगता। पराई स्त्रियों के साथ?

संस्थापनाय धर्मस्य प्रशमायेतरस्य च।
अवतीर्णो हि भगवानंशेन जगदीश्वरः॥
(भाग. 10-33-27)

स कथं धर्मसेतूनां वक्ता कर्ताभिरक्षिता।
प्रतीपमाचरद् ब्रह्मन् परदाराभिमर्शनम्॥
(भाग. 10-33-28)
 
'परदारा' - दूसरी स्त्रियों के साथ श्रीकृष्ण ने रास का व्यवहार किया। क्यों? ये वेद विरुद्ध है और वेद श्रीकृष्ण का ही वाक्य है। अगर स्वयं ऐसा करेंगे वो, तो फिर और लोग क्या करेंगे। जब वेद बनाने वाला, वेद नहीं मानेगा तो फिर साधारण जीव कैसे मानेंगे। इसलिये महाराज! ये तो कुछ जमती नहीं बात। तो शुकदेव परमहंस ने कहा - हाँ, हाँ, ऐसा है कि ये जो बुद्धि है न, उसके अण्डर में मन है, उसके अण्डर में इन्द्रियाँ हैं ये सब के सब मैटीरियल हैं, मायिक हैं, प्रकृति से बने हैं और आत्मा परमात्मा से बना है उसका अंश है, दिव्य है। तो ये मायिक इन्द्रिय मन बुद्धि से ये बात समझ में नहीं आ सकती। अरे महाराज ! कुछ तो समझाइये। अच्छा सुन;

ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित्।
तेषां यत् स्ववचोयुक्तं बुद्धिमांस्तत् समाचरेत्॥
(भाग. 10-33-32)

देखो जो समर्थ लोग हैं भगवान् और महापुरुष इनकी वाणी का पालन करो। आज्ञा का पालन करो, आचरण का नहीं। क्यों? इसलिये कि ये वेद के कायदे कानून को क्रॉस कर गये, लाँघ गये, ये किसी के गुलाम नहीं हैं;

यान्यस्माक्ं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि।
(तैत्तिरीयो. 1-11)

वेद कह रहा है। तुम जिस कक्षा में हो उस कक्षा की बात मानो। पिताजी तो यूनीवर्सिटी नहीं जाते पढ़ने और हमसे कहते हो कि जाओ। तुम्हारी अटैन्डेन्स कम हो जायेगी। तो पिताजी तो कभी नहीं जाते यूनीवर्सिटी। अरे! पिताजी यूनीवर्सिटी पास कर चुके वो क्यों जायेंगे गधा! अरे! तुझको पढ़ना है तू जाया कर। जब तू यूनीवर्सिटी पास कर जायेगा न, तो तुम भी नहीं जाना कभी, कोई नहीं कहेगा। 
कक्षा की बात है, जिस कक्षा में जो जीव है वो अपनी कक्षा के अनुसार चले। दर्जा एक में पढ़ने वाले को लॉ क्लास में दाखिला दे दो तो क्या करेगा बेचारा, बैठा रहेगा ऐसे ही वो क्या समझेगा कानून की किताबों को। संसार में भी नहीं कोई सफल हो सकता। तो शुकदेव परमहंस कहते हैं;

धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्।
तेजीयसां न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा॥
(भाग. 10-33-30)

जो ईश्वर लोग हैं, समर्थ लोग हैं, मायातीत लोग हैं, भगवान् हों, चाहे महापुरुष हों, इनके व्यवहार को मत देखो। ये धर्म भी इनको नहीं बाँध सकता, अधर्म भी नहीं इनको बाँध सकता। जैसे कोई बीज होता है गेहूँ चना इसका लावा बन जाय। भाड़ में डाल करके चबैना बन जाये तो उस भुने हुये चने को, भुने हुये गेहूँ को फिर आप खेत में डाल दें तो अंकुर नहीं पैदा होगा। उसका जो बीज, उसकी शक्ति थी वो समाप्त हो चुकी । तो इसलिये;

गुणातीतः स्थितप्रज्ञो विष्णु भक्तश्च कथ्यते।
एतस्य कृतकृत्यत्वाच्छास्त्रमस्मान्निवर्तते॥
(वेदव्यास)

ये जितना उपदेश आप को दिया जाता है सच बोलो, झूठ नहीं बोलो। ये वेद का उपदेश है - सच बोलोगे तो अच्छा फल मिलेगा, झूठ बोलोगे तो खराब फल मिलेगा। अब एक महात्मा के पास गये, क्यों साहब आप सच बोलते हैं? मैं सच क्यों बोलूँ? मुझे कोई अच्छा फल नहीं चाहिये, मुझे तो भगवान् मिल गया, अच्छा फच्छा क्या करूँगा मैं लेकर, तो आप झूठ से प्यार करते हैं? मैं क्यों बोलूँ? यानी मुझे न नरक चाहिये न स्वर्ग चाहिये, तो सच-झूठ, धर्म-अधर्म से हमारा मतलब क्या? हमारे वर्क का वर्कर भगवान् है वो हमसे अच्छा करावे चाहे बुरा करावे। यानी एक पार्टी जिसको अच्छा कहती है दूसरी पार्टी उसको बुरा कहती है। तो देखो परीक्षित! अग्नि सब कुछ खा लेती है उसमें पाखाना डाल दो, मुर्दा डाल दो, जिन्दा डाल दो, सोना-चाँदी डाल दो, हीरा-मोती डाल दो, लक्कड़-पत्थर डाल दो, अग्नि सबसे प्यार करती है। सबको अपना स्वरूप प्रदान कर देती है। वो गन्दी नहीं होती। अग्नि अपनी पर्सनैलिटी में रहती है और सब कुछ खा जाती है, 'सर्वभुक्त' उसका नाम है।

रवि पावक सुरसरि की नाईं।

गंगा जी में हजारों नाले गन्दे बह कर जाते हैं और आप लोग आचमन लेते हैं - जय हो! जय हो! गंगा मैया की जय! वो जितने नाले गंगाजी में गये सब गंगा जी बन गये। गंगा जी गन्दी नहीं हुईं। वो जो गन्दी चीज़ गयी वो गंगा जी बन गयी। तो इसलिये सुन परीक्षित, उन समर्थ लोगों में वो दोष नहीं जायेगा, उनसे जो प्यार करेगा वो शुद्ध हो जायेगा। लेकिन ये समर्थ लोगों के लिये मैं बता रहा हूँ परीक्षित।

नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः।

जो अनीश्वर है, असमर्थ है, यानी जो माया के अण्डर में है वो मन से भी उन सिद्धों की नकल न सोचे, करना तो बहुत दूर की बात है वरना;

विनश्यत्याचरन् मौढ्याद्यथारुद्रोऽब्धिजं विषम्।।
(भाग. 10-33-31)

शंकर जी हालाहल पी गये और नीलकण्ठ की डिग्री मिल गयी लेकिन तुम अगर मामूली पॉयज़न, संखिया, अफीम भी ज्यादा मात्रा में खा लोगे तो 0/100 हो जाओगे। तुमको नकल नहीं करना। एक नट 200 फुट की ऊँचाई पर एक रस्सी बाँधकर उसके ऊपर चलता है लेकिन नट यह नहीं कह रहा है कि आप लोग भी अपने घर में ऐसे ही कीजियेगा। वो नट जो इतनी ऊँचाई पर चल रहा है उसने 20 साल प्रैक्टिस की है। आप भी 20 साल उसी प्रकार प्रैक्टिस करके उतनी योग प्राप्त कर लीजिये फिर आप भी चलिये रस्सी के ऊपर। अभी मत चल दीजिये। जो जहाँ है वहाँ की नकल करे उससे आगे वाली न करे और संसार में भी आप लोग नकल आगे वाले की नहीं करते। एक तहसीलदार है वो डी. एम. की कुर्सी पर जाकर नहीं बैठ जायेगा, सस्पैण्ड कर देगा फिर वो। यहाँ कैसे हमारी कुर्सी पर बैठे? साहब! आप भी तो हमारी कुर्सी पर बैठे थे। मैं बैठ सकता हूँ तेरी कुर्सी पर, तू कैसे बैठ सकता है मेरी कुर्सी पर? हाँ। (ध्यान दो) मायाबद्ध मायातीत का अनुकरण नहीं कर सकता, मायिक का अनुकरण कर सकता है।

अरे, गधे की अकल से समझो। आप लोग जो बड़े विद्वान् हैं वो मूर्खता की एक्टिंग कर सकते हैं। जैसे - आपको बोलना आता है, भाषा ज्ञान है लेकिन आप मूर्खता की एक्टिंग करना चाहते हैं कहीं पर, तो आप कह देते हैं - मैं जाती थी, उसने बोली थी, ऐसी निष्काम प्रेम अण्डबण्ड भाषा में बोलो, तो लोग कहेंगे ये तो घोर मूर्ख हैं जी। 'डोन्ट टॉक' को बोलो 'डीन्ट टौक', लोग समझ लेंगे कि ये बेवकूफ है पढ़ा लिखा नहीं है। यानी समझदार नासमझ की एक्टिंग कर सकता है लेकिन नासमझ समझदार की एक्टिंग कैसे करेगा? गाउन पहना दो किसी अँगूठा छाप को और खड़ा कर दो हाईकोर्ट में साहब! आप हमारी वकालत कीजिये। अरे! यह क्या वकालत करेगा बेचारा, उसको क-ख-ग-घ नहीं आता। तो समर्थ असमर्थ की एक्टिंग करते हैं, किया है। सब भगवान् के अवतार और महापुरुषों ने किया है।

भक्त हेतु भगवान् प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप॥

संसारी आदमियों की एक्टिंग कर रहे हैं भगवान् और सारे सन्त भी। हनुमान जी राम से पूछ रहे हैं - आप कौन हैं? और राम हनुमान जी से पूछते हैं - आप कौन हैं? हाँ, जरा सोचिये, ये सुप्रीम पॉवर का यह हाल है। हनुमान जी कहते हैं;

की तुम तीन देव महँ कोऊ।

तुम ब्रह्मा हो? भगवान् ने सिर हिलाया नहीं, विष्णु हो? नहीं। शंकर हो? नहीं। नर हो? नहीं। अरे! तो तुम हनुमान जानते नहीं कि मैं कौन हूँ? नहीं, मैं नहीं जानता। मुझे क्या मालूम? अपने वक्षस्थल को चीर कर दिखलाने वाले हनुमान जी को नहीं मालूम है। अपने इष्टदेव को नहीं पहचानते हैं, ये कितना बड़ा आश्चर्य। यानी एक्टिंग भी कितनी अन्तिम सीमा की कोई सुने तो हँसे। और इसी प्रकार फिर राम ने भी पूछा- आपकी तारीफ?

राम ने अपनी तारीफ बता दी कि भाई देखो मैं न ब्रह्मा हूँ, न विष्णु हूँ, न शंकर हूँ, न नर हूँ। मैं क्या हूँ बता दूँ। हाँ बताओ बताओ।

कौशलेश दशरथ के जाए।
हम पितु वचन मानि वन आए।।

हम दशरथ जी के बेटे हैं भाई, राजकुमार हैं।

इहाँ हरी निसिचर वैदेही।
खोजत विप्र फिरहिं हम तेही॥

यहाँ हमारी श्रीमती जी को राक्षस लोग कहीं चुरा ले गये हैं उन्हीं को हम ढूँढ़ रहे हैं। आपकी तारीफ? हनुमान जी से कहते हैं, मैंने अपना परिचय दे दिया अब तुम भी बोलो। तो हनुमान जी ने कहा कि...। अब देखो अभी तो हनुमान जी अल्पज्ञ बने हुये थे अब सर्वज्ञ बन गये। अरे!

मोर न्याउ मैं पूछा साईं।
तुम कस पूछत नर की नाईं॥ 

क्यों जी, जब महापुरुष और भगवान् एक हैं वेद से लेकर रामायण तक हर ग्रन्थ, हर सन्त, हर पन्थ कहता है तो तुम्हारा कैसा न्याय है पूछने वाला। जान जान करके कोई अनजान बने, ये तो बहुत बड़ी 420 है और भगवान् को ही ठगे। उन्हीं से कहे तुम कौन हो। तो ये महापुरुषों ने भी, सारे महापुरुषों ने ऐसी एक्टिंग की। पार्वती को मोह हो गया, गरुड़ को मोह हो गया, शंकर जी को मोह हो गया, ब्रह्मा को मोह हो गया।

शिव विरंचि कहं मोहई को है बपुरा आन।

तो ये भगवान् और महापुरुष अज्ञान की एक्टिंग करते हैं। मायिक वर्क करते हैं लेकिन मायिक व्यक्ति इनके क्लास का अभिनय नहीं कर सकता। उसके लिये सख्त हिदायत है- 'मनसापि' मन से भी न सोचना। प्रेक्टीकल तो बहुत दूर की बात है। शुकदेव जी का मूड ऑफ हो गया उन्होंने महारास सुनाना ही बन्द कर दिया। भागवत में महारास का वर्णन है ही नहीं कुछ। पाँच अध्याय में सब कुछ। क्योंकि शुकदेव परमहंस ने देखा कि ये बार-बार इसकी खोपड़ी में बीमारी पैदा होती है वही, ये अधिकारी नहीं है, इसलिये बिना अधिकारी व्यक्ति पाये उससे ऊपर वाली कक्षा की बात को कहना वक्ता का दोष है। वक्ता को यह ध्यान रखना चाहिये कि किस क्लास के जीव हैं वहीं तक इनको ले जायेंगे उसके आगे नहीं ले जायेंगे। नहीं तो मस्तिष्क फट जायेगा। कोई भी महापुरुष अपनी इच्छानुसार संसार में प्रवचन नहीं दे सकता। कोई भी महापुरुष। क्योंकि उसको डर लगा रहता है, हमेशा अगर मैं इसको और गहराई में ले गया तो ये तो बिचारा कुछ नहीं समझ पायेगा इसीलिये यहीं तक छोड़ दो इसको, क्या करे? आजादी से तो गोलोक में बोल सकता है। जहाँ सब परिपूर्ण हैं प्रैक्टिकल एक्सपीरियंस है सबको और जहाँ थ्योरिटीकल नॉलेज भी न हो और अगर थ्योरिटिकल हो भी जाय तो बिना अनुभव के समाधान नहीं हो सकता।

० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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