मान अपमान (भाग - 3)
- विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन
(पिछले भाग से आगे)
लक्ष्य तक पहुंचने के लिये मान-अपमान की बात पहले छोडऩी होगी। अगर हम निर्दोष हैं और कोई हमें सदोष कहता है, तो उस ओर अगर हम एतराज करते हैं, तो हम सदोष हो गये। अगर किसी अच्छे आदमी की कोई बुराई करे और वह उसको बुरी लग गई, तो एक सदोष शब्द ने जब इतनी गड़बड़ी पैदा कर दी तो इससे मालूम होता है कि अंदर कितनी बुराई भरी पड़ी है।
इतना बड़ा दोष अंदर भरा हुआ था, लेकिन थोड़ा ही निकला। एक शब्द में इतना असर किया कि इतना दोष निकल आया। तो देखिये, अगर हम निर्दोष हैं और कोई हमें सदोष कह देता है, तब भी अगर हम निर्दोष बने रहते हैं तब तो हम निर्दोष हैं, लेकिन अगर निन्दनीय कहने से हम निन्दनीय बन जाते हैं, तो निन्दनीय हो गये।
किसी हवलदार को हवलदार और स्त्री को स्त्री कह दीजिये, लेकिन वे बुरा नहीं मानेंगे। इसलिये जब हम कामी, क्रोधी, लोभी, मोही हैं तो फिर किसी के कहने का बुरा क्यों मानते हैं? भगवत प्राप्ति से पहले कौन सा ऐसा अवगुण है जो हमारे अन्दर नहीं है? ये सारे विकार (काम, क्रोध आदि) भगवत्प्राप्ति पर ही जायेंगे, उससे पहले हम समस्त अवगुणों की खान हैं।
(क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)
( प्रवचन संदर्भ : अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत।)
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