मान अपमान (भाग - 4)
- विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन-
- (पिछले भाग से आगे)
भक्त लोग जिस प्रकार से राम कहते हैं और राम सामने आकर खड़े हो जाते हैं, इसी प्रकार जब हम क्रोध करते हैं तो क्रोध भी आकर खड़ा हो जाता है।
आप कहते हैं - रावण अहंकारी था। लेकिन रावण में इतना बल था कि यमराज भी उसके यहाँ नौकरी करता था। ब्रम्हा उसके यहाँ वेद पढऩे के लिये आता था। अगर वो अहंकार करे तो क्या बुरा करता था, उसके पास तो स्प्रिचुअल पॉवर थी। शंकर जी को सिर काटकर चढ़ाता था। लेकिन आज का मनुष्य, न कुछ होते हुये भी, अपने को सब कुछ समझता है।
तो अगर हम राग-द्वेष, मान-अपमान को छोड़ देंगे तो फिर फैक्ट बुरा नहीं लगेगा। किसी के कामी, क्रोधी, मोही कहने पर हम कुछ भी बुरा नहीं मानेंगे। क्योंकि अनंत जन्मों के कामी, क्रोधी, लोभी, मोही हैं और जब तक भगवत्प्राप्ति न हो जायेगी, तब तक रहेंगे। इसलिये अगर कोई दोष बताता है तो यही समझो कि वह हमारा हितैषी है। तुलसीदास जी इसीलिये कहते हैं - निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छबाय ।
किसी आदमी ने अपमान किया और आपको गुस्सा आया भीतर से, लेकिन चुप हो गये और चले आये। यह उससे अच्छा है जो अन्दर गुस्सा आया और जवाब दे दिया। यह जबान ऐसी चीज है जो बाहर तो नुकसान पहुंचाती ही है, भीतर भी पहुंचाती है। कैसे? आपने कहा देखकर चलो, दूसरे ने कहा बोलने की तमीज भी है? इसी पर मारपीट मुकदमेबाजी हो गई।
आपने जबान खोली और दूसरे ने चप्पल मार दी, लेकिन चप्पल तब पड़ी, जब आपने जबान खोली। जबान को आपने नहीं सहा, लेकिन चप्पल को सहा। दशरथ जी, अपनी जबान से दो वरदान दे गये और उसके कारण सारी रामायण बन गई। अपने आप को समझा लीजिये तो काम बन जायेगा। ये जो दोनों का बोलना है, वही खतरनाक है और वही आपका शारीरिक, मानसिक नुकसान कर रहा है।
(क्रमश:, शेष अगले भाग में कल प्रकाशित होगी।)
प्रवचन संदर्भ: अध्यात्म संदेश पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत।
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