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  मान अपमान (अंतिम भाग - 5)
  • विश्व के पंचम मूल जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा भक्तिमार्गीय साधकों के लिये मान और अपमान विषय पर दिया गया महत्वपूर्ण प्रवचन 
  •   (पिछले भाग से आगे)
 मान-अपमान के गर्त से निकलना होगा। इसे छोडऩा होगा नहीं तो हमारा जो भविष्य है, परलोक, वो बिगड़ जायेगा। और वर्तमान में भी परेशान रहेंगे। वर्तमान भी दु:खमय और भविष्य भी हानिकारक।
 अगर इसी प्रकार मान-अपमान के चक्कर में पड़े रहे, तो अभी तो आपस में मान-अपमान की बीमारी है, फिर संत और भगवान का भी अपमान करेंगे। इसलिये हमें इसको छोड़कर निरंतर भगवत्प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये। जब श्यामसुन्दर स्वयं अपने पीताम्बर से हमारे आँसू पोंछकर हमें सम्मानित करेंगे तब वो दिन हमारे लिये सम्मान का दिन होगा। उस दिन मानव-देह का मूल्य चुक जायेगा।
 कोई अच्छा है, या बुरा है उसको छूना नहीं है, अंदर से उसको नहीं छूना है। यह मन, संसार को छूने के लिये नहीं है, इस मन से तो भगवान के नाम, रुप, लीला, गुण, धाम और जन (संत, भक्त) को छूना है। इसलिये मान-अपमान दोनों को छोड़कर भगवान का स्मरण करके अपने लक्ष्य को प्राप्त करना है।
 जब आप भगवान को प्राप्त कर लेंगे तो मान-अपमान सब एक हो जायेगा।  निंदा स्तुति उभय सम।  तब निंदा-स्तुति दोनों एक समान लगती है। लेकिन भगवत्प्राप्ति से पहले हम वन्दनीय नहीं हैं, निन्दनीय भले ही हैं। तो अगर कोई निन्दनीय कहता है हमें, तो वो हमारा हितैषी है। जब सबके बारे में सोचना भी नहीं है।
 (समाप्त)
 (प्रवचन संदर्भ -अध्यात्म संदेश  पत्रिका के मार्च 2005 अंक से, सर्वाधिकार  जगद्गुरु कृपालु परिषत  एवं  राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के अंतर्गत)

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