कृष्ण की प्रिय वस्तु (भाग - 2)
जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से नि:सृत प्रवचन, जो कि भगवत्प्रेमपिपासु जनों के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है, आइये इन शब्दों को हृदयंगम करें....
(पिछले भाग से आगे)
यह जो आंसू आप बहाते हैं, भगवान के लिये साधना के समय, यह आंसू इसलिये हैं कि असली आंसू मिल जायें। यानी हम जो मन का अटैचमेंट करते हैं, जो विरह की फीलिंग होती है, हमको मिलन के लिये, यह प्रेम नहीं है। यह तो याचना का एक रुप है।
जैसे हम ठीक-ठीक कोई चीज मांगें नॉर्मल होकर के अहंकाररहित होकर, तो वह धनी हमको सामान दे देता है। तो हृदय की गंदगी को साफ करने के लिये आपको अभी आंसू बहाना है। यह अहंकार नहीं करना है कि ऐसे ही आंसू आते होंगे उधर भी। सिद्ध पुरुषों के आंसू प्रेमाश्रु हैं, दिव्य प्रेम उनको मिल जाता है उससे सात्विक भाव होते हैं। अभी हम लोगों को जो कुछ मिल जाता है गुरु कृपा हरि कृपा से, इससे अपना अहंकार न बढ़ावें।
सात्विक अश्रु तो प्रेमाभक्ति की प्राप्ति पर ही आते हैं। यह सिद्धावस्था की बात है। साधनावस्था के सबसे अच्छे आंसू वह कहे जाते हैं, जो भगवान के मिलन अथवा वियोग में आते हैं। इसके नीचे के भी आंसू होते हैं जो अपने को अधम पतित मानने से आते हैं। एक गलत आंसू भी होता है। जैसे यशोदा जो अपने लाला के लिये तड़प रही है। किसी मां को उसका ध्यान करते-करते अपने लड़के की याद आ गई और वह रोने लगी - यह गलत आंसू है।
(समाप्त)
( प्रवचन स्त्रोत- आध्यात्म संदेश पत्रिका, मार्च 2005 अंक से।
सर्वाधिकार सुरक्षित - जगद्गुरु कृपालु परिषत एवं राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।)
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