ढाई रूपए के ग्रंथ में अनमोल ज्ञान...!
ढाई रूपए के ग्रंथ में अनमोल ज्ञान...!
दो रुपए का नोट कहीं दिखता नहीं, नेट में सर्च करो तो यह अफवाह भी लिखी मिलती है कि गुलाबी रंग के इस पिछले हिस्से पर आपको एक बंगाल टाइगर की दहाड़ते हुए तस्वीर देखने को मिलती है। इसे बेचकर लाखों कमा सकते हैं। रहा सवाल अट्ठनी का तो वह चलती नहीं। खैर, कुल होते हैं ढाई रुपए जिसकी आज कोई वेल्यू नहीं, लेकिन जब इसका मोल था तब ढाई रुपए में अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ मिला करते थे, जिसका आज भी कोई मोल नहीं लगा सकता। सन् 1976, यानी आज से 49 वर्ष पूर्व रूनवाल प्रिंटिंग प्रेस, रतलाम से प्रकाशित ‘श्री सूर्य साहित्य भाग प्रथम’ नामक एक पुस्तक मिली जो दो भागों ‘श्री सूर्य दृष्टांत शतक’ एवं ‘श्री सूर्य उपदेश शतक’ में विभाजित है। इसके ग्रंथकार कविवर प्रवर्तक श्री सूर्यमुनिजी महाराज और संपादक उमेशमुनि ‘अणु’ हैं। यह एक प्रेरक ग्रंथ है जिसमें अनेक रोचक कथाएँ हैं जो मानव जीवन के विकास की राह प्रशस्त करती प्रतीत होती हैं। इसकी विशेषता है थोड़े शब्दों में पूरी कथा को समेट लेना। इस ग्रंथ में मालवी बोली के शब्दों का काफी प्रयोग किया गया है और ब्रजभाषा, गुर्जरगिरा, और मारवाड़ी भाषा का भी यथेष्ट प्रभाव है। कविताओं और उसके भावार्थ के माध्यम से सारी कथाएँ कही गई हैं।
‘ सुखी दुख लेन गयो’ नामक कथा कुछ इस प्रकार है-
पुण्यशाली परम सुखी था। उसे कभी दुख का अनुभव नहीं हुआ था। उसके किशोर-ह्रदय में दुख का स्वाद लेने की इच्छा उत्पन्न हुई। उसने अपनी माता से दुख पाने का उपाय पूछा। माँ ने कहा-बेटा ! ‘’तू पुण्यशाली है. तुझे जीवन के अन्तिम क्षण तक दुख आने का नहीं है।‘’
बेटे के बहुत आग्रह करने पर माता ने कहा – ‘’दुख तुझे मिलने का नहीं है! परन्तु तू नहीं मानता है तो एक उपाय बताती हूँ। आज राजसभा में जाना और राजा के मुकुट को उसके मस्तक से नीचे पटक देना! फिर तुम्हें दुख मिलने का होगा तो मिल जाएगा।“
पुण्यशाली दनदनाता हुआ राजा के समीप पहुँच गया। उसने राजा के मस्तक से मुकुट को दूर फेंक दिया! सभासदों में सन्नाटा छा गया! कुछ सैनिक छोकरे को पकड़ने दौड़े तो कुछ मुकुट उठाने गये। लोगों ने सोचा-‘छोकरे की मौत आ गई है!’ पुण्यशाली को पकड़ने से पहले ही मुकुट उठा लिया गया। मुकुट से निकलकर जमीन पर रेंगते हुए एक जहरीले छोटे सर्प को सबने आश्चर्य से देखा। राजा का क्रोध न जाने कहाँ चला गया। उसने पुण्यशाली को पुरस्कार दिया।
जब उसने माँ से पूछा-‘’क्या दुख यही है ? ’’, तब वह हँस पड़ी। पुनः उसके आग्रह पर माता ने कहा -‘’अब लात मारकर राजा को ही सिंहासन से नीचे गिरा देना।‘’
वह दौड़ता हुआ आया और उसने राजा को सिंहासन के नीचे गिरा दिया! राजा दूर जा पड़ा और वह भी गति की तीव्रता के कारण आगे निकल गया। सब ओर सन्नाटा छा गया। क्षण भर में सिंहासन के ऊपर की छत गिर पड़ी! इस बार भी पुण्यशाली की इच्छा पूरी नहीं हुई। उसे राजा ने हाथी पर बिठाकर, बड़े पुरस्कार के साथ उसके घर पहुँचाया। यह कथा यहीं समाप्त होती है, जो यह शिक्षा देती है कि पुण्योदय होने पर उलटे कार्य भी सीधे होते हैं। अतः पुण्यशाली से ईर्ष्या नहीं करना चाहिये और पुण्यवान को भी अभिमानी नहीं बनना चाहिए।
‘मत आवन देव अधारो’ नामक कथा भी रोचक होने के साथ ही शिक्षाप्रद भी है-
‘’सासु कहे-सुनरी वधू यो घर-
मे मत आवन देय अँधारो
सास सामयिक धार लही, तब-
साँझ पड़ी तमकार पसारो।।
दीप कियो न, लई लट हाथ मे
फोड़त वासण, सर्व संहारो।
सूर्य कहे जड़ सीखन मानत
हारत है समझावनहारो।।‘’
कवित्त में कही गई यह रोचक कथा इस प्रकार है-नई-नवेली बहू घर में आई। सासू ने सोचा कि अब इसे घर का काम सम्हला दूँ और मैं अपना समय धर्म-आराधना में अधिक लगाऊँ। अतः वह धीरे-धीरे घर के काम का बोझ बहू पर डालती जा रही थी। बहू की बुद्धि कुछ जड़ थी। वह किसी बात को जल्दी नहीं समझ पाती थी। एक दिन सांयकाल के समय सासू ने कहा-
‘’बहू मैं सामयिक करने जा रही हूँ। साँझ हो रही है। घर में अंधेरे को मत आने देना।‘’ यह कहकर सासू चली गई।
बहू सोचने लगी कि सासूजी ने कहा है- ‘’अन्धेरे को मत आने देना। तो अन्धेरा सासूजी की बात मानता होगा।‘’ सूर्यास्त हुआ। घर में अन्धेरा हुआ। बहू ने अन्धेरे से कहा- ‘’देखो जी, तुम घर में मत आओ!’’ पर अन्धेरा बढ़ रहा था।
उसने डांट भरी आवाज में कहा- ‘’अरे अन्धेरे तुम सुनते नहीं हो मेरे सासूजी का हुक्म है- तुम घर में मत घुसो।‘’ जब उसे अपनी बात का कुछ प्रभाव होते हुए नहीं देखा, तब उसने अंधेरे से हाथ जोड़कर, नमस्कार किया और विविध भाँति प्रार्थना की, कि ‘’ हे अन्धेरे देव घर में मत आओ।’’
पर अन्धेरे ने एक न सुनी, घर में अन्धेरा छा गया था। तब बहू को बहुत क्रोध आया। उसने सोचा कि यह दुष्ट मार खाये बिना घर से बाहर नहीं निकलेगा। उसने एक मजबूत लट्ठ लिया और वह अन्धेरे को मारने पील पड़ी। लेकिन अन्धेरे का कुछ नहीं बिगड़ा और घर में तोड़-फोड़ हो गई! वह पसीने में तर होकर हारकर बैठ गई।
सासू घर आई। उसने घर में अन्धेरा देखा तो बहू को पुकार कर कहा-‘’बहू तुझे कहा था न, कि घर में अन्धेरे को मत घुसने देना!’’
बहू ने कहा- ‘’मैं क्या करूं इसने मेरी एक न मानी। और उसने सारा इतिहास सुना दिया। सासू को बात सुनकर हँसी भी आई और दुख भी हुआ। उसने दियासलाई लेकर दिया जलाया और कहा- ‘’देख अन्धेरे को ऐसे भगाया जाता है।‘’
बहू ने खिसायनी होकर कहा, ‘’तो, आपने पहले से ऐसा क्यों नहीं कहा ?’’
यह कथा शिक्षा देती है कि जड़ बुद्धिवाले मनुष्यों को समझाना बहुत ही कठिन है। उन्हें स्पष्ट समझाना पड़ता है। और अज्ञान रूपी अऩ्धेरे को ह्रदय रूपी घर से भगाने के लिए सद्ज्ञान रूपी ज्योति जलाना चाहिये।
इसी तरह ‘यों थी मेरे बकरे की दाढ़ी’ नामक कथा भी रोचकता के साथ मन पर नियंत्रण रखने की कला सिखाती है। यह कथा कुछ इस प्रकार है-
एक कथावाचक पंण्डितजी एक गाँव में कथा करने आये। पण्डितजी का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली था। वे बड़े लटके-झटके से कथा करते थे। जब वे जोश में आकर कथा करते थे, तब उनके हाथों की मुद्राएँ, आँखों की पुतलियों के हाव-भाव और चमकती हुई लम्बी, कुछ भूरी कुछ काली दाढ़ी का हिलना-ये सब मिलकर एक रोचक दृश्य खड़ा कर देते थे। उनके श्रोताओं की संख्या प्रतिदिन बढ़ रही थी।
भक्ति का एक प्रभावशाली उपदेश चल रहा था। श्रोता भावविभोर हो रहे थे। एक श्रोता पण्डितजी के ठीक सामने बैठा हुआ था। वह पण्डितजी की ओर एकटक देख रहा था। मानो वह आँख और कान दोनों ही इन्द्रियों से पण्डितजी का उपदेश सुन रहा था। वह अचानक ही रोने लगा। पहले धीमे-धीमे, फिर जोर-जोर से। पहले पास-पड़ोस के लोगों को पता लगा और फिर सभी लोगों को मालूम पड़ गया। उपदेश की धारा में बाधा उपस्थित हो गई। पण्डितजी और लोगों ने समझा की यह कोई भावुक श्रोता है। भक्ति के भावावेग में रुदन कर रहा है। उपदेश बंद हो गया, परन्तु उसका रोना बंद नहीं हुआ। लोग उसके आस-पास इकट्ठे हो गये। लोग उसे शान्त करने का प्रयत्न करने लगे।
एक श्रोता ने उससे पूछा- ‘’भाई अब तो शान्त होओ। रोते क्यों हो ?’’
वह रोता हुआ बोला- ‘’क्या करूँ पण्डितजी ने मेरा मर्म छू दिया!’’
लोगों ने समझा कि इस पर पण्डितजी के उपदेश का बहुत गहरा असर हुआ है। श्रोता ने कहा- ‘’पण्डितजी का उपदेश ऐसा मर्मस्पर्शी ही है।‘’
वह अपने आँसू पोछते हुए बोला-‘’नहीं जी, ऐसी बात नहीं है मुझे पण्डितजी की दाढ़ी को हिलती हुई देखकर एक बात याद आ गई!” लोग चौंक गये। पण्डितजी की हिलती हुई दाढ़ी और भक्ति-भावना में क्या सम्बन्ध है पण्डितजी को भी अपनी दाढ़ी की बात सुनकर, कुछ आश्चर्य हुआ। वह सबकी उत्सुकता का केन्द्र हो गया। वह कह रहा था-‘’मेरा एक बकरा था.........!’’
लोगों का आश्चर्य और बढ़ गया। वे सुन रहे थे- ‘’जैसी पण्डितजी की दाढ़ी है वैसी ही मेरे बकरे की दाढ़ी थी। उसकी दाढ़ी भी वैसी ही हिला करती थी, जैसे उपदेश देते समय पण्डितजी की दाढ़ी हिला करती है। कुछ दिन हुए वह मर गया। आज पण्डितजी की दाढ़ी को हिलते हुए देखकर, मेरे उसी बकरे की मुझे याद आ गई। इसलिये रोना आ गया!’’
पण्डितजी लज्जित हो गये। लोग भी मुसकाते हुए वहाँ से बिखर गये। इस प्रसंग से यह शिक्षा मिलती है कि अयोग्य श्रोता को उपदेश देने से कुछ भी लाभ नहीं होता है और उपदेश सुनते हुए मन को अन्यत्र नहीं भटकने देना चाहिए।
सूर्य सिद्धांत दशक में 101 छोटी-छोटी कथाएँ हैं जो मन में अपने को रमा लेने के साथ-साथ मानव जीवन के विविध आयामों को उद्घाटित कर ज्ञान और दर्शन का विस्तार करती हैं। ये कथाएँ आज भी समाज में प्रासंगिक प्रतीत होती हैं। प्रेरक कथाओं के माध्यम से लोगों के जीवन में उच्च संस्कारों को अंकुरित करे वाले जैन मुनि संत कविवर्य प्रवर्तक पं.र. श्री सूर्यमुनिजी को शत-शत नमन।
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