हर बार
लघुकथा-
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
पिछले कई दिनों से दीपावली की तैयारी में जुटी प्रियल थककर चूर हो गई थी । सफाई है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती और हर बार कुछ न कुछ रह ही जाता है । इस बार प्रियल ने पूरे घर को जगमगाने की तैयारी की थी ...छुट्टियाँ लगने के बाद ही सही तरीके से काम हो पाता है , उसके पहले तो बस छोटे - मोटे काम होते रहते हैं । चलो इसी बहाने फालतू चीजें बाहर निकल जाती हैं और घर साफ - सुथरा लगता है । दीपावली के दिन सुबह से लक्ष्मी जी के पूजन की तैयारियाँ करते- करते प्रियल के हाथ - पैर जवाब देने लगे थे । रात को दिये जलाने के बाद बड़ी हसरत से अपनी नई साड़ी के साथ पहनने के लिए खूब ढूँढ-ढूँढ कर खरीदी गई चूड़ियों और आभूषणों की ओर देख रही थी पर थके हुए शरीर ने बिल्कुल साथ न दिया..और जैसे - तैसे तैयार होकर उसने पूजा की । कोई न कोई कसर रह जाती है हर बार....सारे काम तो हो जाते हैं पर उसका अपना ही कुछ छूट जाता है ..न पार्लर जा पाई... न कहीं और... अच्छे से तैयार होने की साध तो पूरी नहीं कर पाई ...पर अपने चमकते - दमकते आशियाने को देखकर उसने संतोष भरी राहत की साँस ली और दर्द भरी पिंडलियों में मालिश करने लगी ।
Leave A Comment