बचपन की मोहब्बत को .......
0 जाने-माने संगीतकार नौशाद की पुण्यतिथि पर विशेष
0 मुफलिसी में नौशाद बिल्डिंग की सीढिय़ों के नीचे सोया करते थे और एक मशहूर एक्ट्रेस उन पर पैर रखकर चली जाती थीं.....
आलेख- मंजूषा शर्मा
बीते जमाने के सुमधुर संगीत की बात जब भी चलती है तो संगीतकार नौशाद का नाम बड़े आदर से लिया जाता रहा है। 40 के दशक से अपना संगीत कॅरिअर शुरु करने वाले नौशाद की अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक यही सोच रही कि अभी तो उन्हें और बेहतरीन संगीत देना है।
नौशाद का कलाकार मन आज के रिमिक्स या नकल वाले गाने तैयार करने से बचता रहा, शायद इसीलिए वे अपने बंगले में पुराने सुमधुर संगीत के साये में जीवन बसर कर रहे थे। पाकिस्तान में जब मुगल ए आजम और ताजमहल की धूम मची हुई है। इनके गाने लोग बड़े चाव से सुन रहे हैं, लेकिन उसे तैयार करने वाला इंसान बढ़ती उम्र की बंदिशों के कारण इस सफलता को देखने के लिए इन फिल्मों के प्रीमियर के मौके पर पाकिस्तान नहीं जा पाया।
नौशाद का फिल्मी कॅरिअर 64 साल तक लगातार चलता रहा, लेकिन इस दौरान उन्होंने केवल 67 फिल्मों में ही संगीत दिया। लेकिन उनका सुमधुर संगीत इस बात का प्रमाण है कि गुणवत्ता, संख्या से अधिक प्रभावशाली होती है।
नौशाद साहब को अपनी आखिरी फिल्म के सुपर फ्लाप होने का बेहद अफसोस रहा। यह फिल्म थी सौ करोड़ की लागत से बनने वाली अकबर खां की ताजमहल, जो रिलीज होते ही औंधे मुंह गिर गई। मुगले आजम को जब रंगीन किया गया, तो उन्हें बेहद खुशी हुई। मारफ्तुन नगमात जैसे संगीत की अप्रियतम पुस्तक के लेखक ठाकुर नवाब अली खां और नवाब संझू साहब से प्रभावित रहे नौशाद ने मुंबई में मिली बेपनाह कामयाबियों के बावजूद लखनऊ से अपना रिश्ता कायम रखा। मुंबई में भी नौशाद साहब ने एक छोटा सा लखनऊ बसा रखा था, जिसमें उनके हम प्याला हम निवाला थे- मशहूर पटकथा और संवाद लेखक वजाहत मिर्जा चंगेजी, अली रजा और आगा जानी कश्मीरी (बेदिल लखनवी), मशहूर फिल्म निर्माता सुल्तान अहमद और मुगले आजम में संगतराश की भूमिका निभाने वाले हसन अली कुमार।
यह बात कम लोगों को ही मालूम है कि नौशाद साहब शायर भी थे और उनका दीवान आठवां सुर नाम से प्रकाशित हुआ। पांच मई 2006 को इस फनी दुनिया को अलविदा कह गए नौशाद साहब को लखनऊ से बेहद लगाव था और इसे उनकी खुद की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है- रंग नया है लेकिन घर ये पुराना है। ये कूचा मेरा जाना पहचाना है। क्या जाने क्यूं उड़ गए पंछी पेड़ों से भरी बहारों में गुलशन वीराना है।
नौशाद का जन्म 25 दिसबर, 1919 को लखनऊ में मुंशी वाहिद अली के घर में हुआ था। उन्होंने मात्र 17 साल की उम्र में ही अपनी किस्मत आजमाने के लिए मुंबई की राह पकड़ी। शुरुआती संघर्ष के दिनों में उन्हें उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां, उस्ताज झंडे खां और पंडित खेमचंद्र प्रकाश जैसे गुणी उस्तादों की सोहबत नसीब हुई।
नौशाद की आंखों ने फिल्म संगीत का सपना तब देखा था, जब मूक फिल्मों का दौर था। उस समय के जाने-माने गुरुओं उस्ताद गुबत अली, उस्ताद युसूफ अली और उस्ताद बब्बन साहिब से तालीम लेकर नौशाद ने मुंबई की राह पकड़ी। आंखों में कुछ कर दिखाने का सपना था और संघर्ष करने का जज्बा। मुंबई की भूलभुलैया से वे वाकिफ नहीं थे। उन्होंने 15 रुपए का टिकट लिया वो भी फस्र्ट क्लास का और मुंबई की राह पकड़ ली। जेब में 15-20 रुपए की पूंजी ही थी। लखनऊ जैसे शहर से मायानगरी पहुंचने पर इन सपनों को साकार करने में नौशाद को कई-कई रातें भूखे पेट गुजारनी पड़ीं।
मुंबई का फुटपॉथ तो उनका साथी बनता जा रहा था। वे अक्सर उस दौर को याद करते हुए बताते थे कि कैसे बारिश से बचने के लिए वे दादर में एक बिल्डिंग की सीढिय़ों के पास पैसेज पर बिस्तर लगाकर सो जाया करते थे और उस दौर की एक जानी-मानी नायिका, जो उसी बिल्डिंग के फ्लैट पर रहा करती थी, सुबह-सुबह जब काम पर निकलती तो मेरे ऊपर पैर रखकर चली जाती थी। बाद में नौशाद ने उस अभिनेत्री का नाम बताया -लीला चिटणीस। उनकी तारीफ में नौशाद कहा करते थे- वे निहायत आला लेडी थी। वो इस मामले में बेकसूर थीं । उन्हें क्या पता था कि कोई उनकी सीढिय़ों के पास पड़ा रहता है। नौशाद ने अपना पहला गाना भी लीला चिटणीस की आवाज में रिकॉर्ड किया था फिल्म थी-कंचन और गाना था- बता दो मोहे कौन गली गए श्याम।
नौशाद की मीना कुमारी के साथ भी कुछ ऐसी ही सुखद यादें जुड़ी हुई थीं। नौशाद उनके पिता अलीबख्श साहब को बहुत गुणी व्यक्ति मानते थे। अक्सर उनकी मुलाकात होती थी। मीना कुमारी और उनकी बहनें, उस वक्त काफी छोटी थीं। अपनी शैतानी से वे अक्सर नौशाद को परेशान किया करती थीं। तीनों नौशाद के घर पर रोज पत्थर फेंकती थीं। एक रोज अलीबख्श साहब नौशाद के घर पहुंचे। वे आपस में बातें कर रहे थे। कमरे के पास खुला टैरेस था। अलीबख्श साहब ने देखा कि वहां पर बहुत सारे पत्थर पड़े हुए हैं। उन्होंने जिज्ञासावश पूछा कि भाई, यहां इतने सारे पत्थर क्यों पड़े हुए हैं। नौशाद ने तुरंत बताया कि यह सब आपकी बेटियों की मेहरबानी है। आपकी लड़कियां पत्थर फेंका करती हैं। अलीबख्श फौरन घर गए और मधु, मीना और खुर्शीद की पिटाई की। इस घटना के बाद से तीनें बहनें नौशाद से खूब चिढऩे लगी थीं। यह एक संयोग ही रहा कि मीना कुमारी की बतौर नायिका पहली फिल्म बैजू बावरा का संगीत भी नौशाद ने ही तैयार किया था। इस फिल्म का ही गाना है, बचपन की मोहब्बत को दिल से न जुदा करना जब याद मेरी आए मिलने की दुआ करना.....
इसी फिल्म के लिए नौशाद को पहला फिल्म फेयर अवार्ड मिला और मीना कुमारी ने भी इसी फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठï अभिनेत्री का फिल्म फेयर पुरस्कार जीता।
सुरैया को भी मात्र तेरह साल की उम्र में बतौर प्लेबैक सिंगर पेश करे वाले नौशाद ही थे। उन्होंने ही फिल्म शारदा में नायिका मेहताब के लिए सुरैया की आवाज ली। सुरैया हमेशा यह बात याद करती थीं कि वे नौशाद ही थे, जिनके कारण उन्होंने गाना ना जानते हुए भी एक गायिका के तौर पर लोकप्रियता प्राप्त की। इस फिल्म के गाने को सुनकर कुंदनलाल सहगल ने अपनी नायिका के लिए सुरैया का चयन किया था।
नौशाद को स्वतंत्र रुप से पहली फिल्म मिली- शारदा, जिसमें सुरैया से उन्होंने गाया गवाया ,लेकिन उन्हें सफलता मिली फिल्म- रतन से। प्लेबैक सिंगिग शुरु करने का श्रेय जहां नौशाद को जाता है, वहीं उन्होंने ही साउंड मिक्सिंग यानी आवाज तथा संगीत को अलग-अलग रिकॉर्ड करने तथा बाद में उन्हें मिलाकर गाना तैयार करने की तकनीक भी पहले पहल इस्तेमाल की।
नौशाद एक समय सबसे मंहगे संगीतकार माने जाते थे। उन्हें एक फिल्म के संगीत के लिए ढाई हजार मिला करते थे। इसके बाद भी उन्हें पुरस्कारों के मामले में हमेशा पीछे छोड़ दिया जाता था। हालांकि उन्हें दादा साहब फाल्के सम्मान भी मिला था, लेकिन सही समय पर पुरस्कार का मिलना जितनी खुशी देता है, इस बात का शायद पुरस्कार का चयन करने वालों को पता नहीं होता है।
नौशाद को पहली बार स्वतंत्र रूप से 1940 में प्रेम नगर में संगीत देने का अवसर मिला, लेकिन उनकी अपनी पहचान बनी 1944 मेें प्रदर्शित हुई फिल्म रतन, से जिससे जोहरा बाई अम्बाले वाली, अमीर बाई कर्नाटकी, करन दीवान और श्याम के गाए गीत बहुत लोकप्रिय हुए और यही से शुरू हुआ कामयाबी का ऐसा सफर जो कम लोगों के हिस्से ही आता है।
अंदाज, आन, मदर इंडिया, अनमोल घड़ी, बैजू बावरा, अमर, स्टेशन मास्टर, शारदा, कोहिनूर, उडऩ खटोला, दीवाना, दिल्लिगी, दर्द, दास्तांन, शबाब, बाबुल, मुगले आजम, दुलारी, शाहजहां, लीडर, संघर्ष, मेरे महबूब, साज और आवाज, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम, गंगा जुमना, आदमी, गंवार, साथी, तांगेवाला, पालकी, आईना, धर्मकांटा, पाकीजा (गुलाम मोहम्मद के साथ संयुक्त रूप से), सन ऑफ इंडिया, लव एंड गाड सहित अन्य कई फिल्मों में उन्होंने अपने संगीत से लोगों को झूमने पर मजबूर किया।
उन्होंने छोटे पर्दे के लिए द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान और अकबर द ग्रेट जैसे धारावाहिकों में भी संगीत दिया। उनका तैयार किया हुआ संगीत और प्यारी-प्यारी धुनें आज भी बजा करती हैं और आज की पीढ़ी भी उसे बड़े चाव से सुनती है, क्योंकि अच्छा संगीत वही है, जो कानों को प्यारा लगे और दिल तक पहुंचे।
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