कोलाहल से दूर कहीं चल, आलय एक बनाएँ...
गीत
-लेखिका- डॉ. दीक्षा चौबे
- दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
कोलाहल से दूर कहीं चल, आलय एक बनाएँ ।
नीले छत पर टाँग सितारे, सुंदर महल सजाएँ ।।
सरिता की हो निर्मल धारा, चिड़ियों की मीठी धुन।
क्या कह गई पवन कानों में, चुपके हम लेवें सुन।
नाजुक बेलों की दीवारें, कोमल पात बिछौने।
हरियाली की चादर ओढ़े, जाएँ हम नित सोने ।
मद्धिम स्वर में लोरी गाते,मलयानिल के झोंके,
निंदिया से बोझिल पलकों को,छू शबनम सहलाएँ।।
उषा किरण आ हमें जगाती, कर स्नेहिल आलिंगन।
मधुरिम रंगोली से सज्जित, अंबर दे आमंत्रण।
नित्य दिवाकर भरे प्राण में, उम्मीदों के मोती।
स्वर्ण-पालकी अभिलाषा की, धीरज कभी न खोती।
चहकें अँगनाई में आकर, विहग-वृंद खुशियों के,
प्रीति-पताका सुखद सदन में, हम तुम मिल फहराएँ ।।
रचें रुचिर संसार स्नेह का, सुंदर सुरुचि मनोहर ।
मनभावन रमणीय दृश्य ज्यों,नीरज खिले सरोवर।
निश्छलता लेती अँगड़ाई, शुचिता गान प्रभाती।
दृग बनकर संवदिया पढ़ लें, प्रिय के मन की पाती।
अंतर्भासित प्रांजल दीपक, दिवस-निशा का सहचर,
निकल कलह तम की छाया से, सुख उज्ज्वल हम पाएँ ।।
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