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अपराधबोध

लघुकथा

-लेखिका- डॉ. दीक्षा चौबे
- दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)

नीरजा के पड़ोस में एक नया परिवार कुछ माह पहले ही शिफ्ट हुआ था । सामान्य शिष्टाचार ही हुआ था , उनसे अधिक बातें करने का अवसर नहीं मिला था । आज आते दिखीं तो सोचा थोड़ा बातें कर ले लेकिन वह नीरजा को देखे बिना ही शीघ्रतापूर्वक निकल गई । नीरजा को बहुत बुरा लगा, उसने जान बूझकर मेरी उपेक्षा की यह विचार उसे व्यथित कर गया । ऐसे घमंडी लोगों से दूरी रहे वही बेहतर है , उसने सोचा । कुछ दिनों के बाद उसके घर की घंटी बजी , उसकी
नई पड़ोसन आई थी । नीरजा ने बेमन से दरवाजा खोला -
अपने दोनों  हाथ जोड़ते हुए उसने कहा - "उस दिन आपसे बात नहीं कर पाई माफ कीजिएगा , उसी समय मेरे भाई के दुर्घटनाग्रस्त होने की खबर आई थी तो मैं दौड़ते-भागते अस्पताल जा रही थी । अच्छा हुआ तुरंत चली गई , उसको खून की जरूरत थी तो मैंने उसे अपना खून दिया । अभी वह खतरे से बाहर है । नीरजा ने बहुत अपनेपन के साथ उनके हाथ थाम लिए । उसकी आँखों में आँसू थे शायद गलत समझने के अपराधबोध के ।

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