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  कृपालु महाराज का 100 वां प्राकट्य दिवस भक्तिभाव के साथ धूमधाम से मनाया गया

-देशभर से बड़ी संख्या में श्रद्धालु भक्तिधाम मनगढ़ में जुटे
 मनगढ़ (उप्र)। आधुनिक युग के परमाचार्य और पंचम मूल जगद् गुरु श्री कृपालु महाराज जी का सौवां प्राकट्य दिवस  शरद पूर्णिमा को  प्रतापगढ़ जिले के भक्तिधाम मनगढ़ में श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया गया। कृपालुजी महाराज का सौवां प्राकट्य दिवस  मनगढ़ में महा उत्सव के रूप में मनाया गया। रात 12 बजे उनके जन्म समय से शुरू हुआ संकीर्तन और जीवन लीला का मंचन पूरी रात चलता रहा।   रात डेढ़ बजे से ही संकीर्तन की धुन पर श्रद्धालु झूमते रहे। साथ ही पूरी रात मनगढ़ के मंदिर में कृपालु जी महाराज के जीवन पर आधारित लीलाएं दिखाईं गईं।
 इस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए देश भर से उनके भक्त और श्रद्धालु पहुंचे थे।  यह कार्यक्रम देशभर में स्थित सत्संगियों के द्वारा हरिनाम सहित नगर परिक्रमा से शुरू हुआ। संस्थान के श्रद्धालुओं ने बताया कि चार अक्टूबर को श्री कृपालु महाराज जी की जन्मस्थली पर देशभर से आए श्रद्धालु एकत्र हुए थे। पवित्र नदियों गंगा- यमुना के पावन जल को लेकर कलश यात्रा निकाली गई।  जिसमें हजारों सत्संगी शामिल हुए। इन भक्तों ने मंदिर में एकत्र होकर मंदिर की परिक्रमा की। उसके बाद गुरुवार की पालकी यात्रा के अलावा रथ यात्रा भी निकाली गई। इस दौरान सत्संगियों का  भक्तिभाव और उत्साह देखते ही बन रहा था। गुरुवार को महाअभिषेक, चरण पूजन और महाआरती के अलावा कई सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हुए। कार्यक्रम की भव्यता का नजारा मन को मोह रहा था।  आरती और अभिषेक के बाद श्री कृपालु महाराज जी को 56 प्रकार के भोग लगाए गए। इस अवसर पर भक्तों ने केक भी काटा। बड़ी संख्या में जुटे श्रद्धालु कृष्ण भजन में झूमते रहे।  
गौरतलब है कि श्री कृपालु महाराज जी ने मात्र 16 वर्ष की आयु में राधा-कृष्ण की भक्ति का प्रचार शुरू किया। 1955 में उन्होंने चित्रकूट (उप्र) में एक विशाल आध्यात्मिक सम्मेलन का आयोजन किया। 15 दिनों तक चले इस कार्यक्रम में देश के  विद्वानों  को आमंत्रित किया गया था।  14 जनवरी 1957 को मकर संक्रांति के दिन महज़ 34 वर्ष की आयु में उन्हें काशी विद्वत् परिषद् की ओर से जगद्गुरु की उपाधि से विभूषित किया गया था।
वे अपने प्रवचनों में समस्त वेदों, उपनिषदों, पुराणों, गीता, वेदांत सूत्रों आदि के खंड, अध्याय, आदि सहित संस्कृत मन्त्रों की संख्या क्रम तक बतलाते थे जो न केवल उनकी विलक्षण स्मरणशक्ति का द्योतक था, वरन् उनके द्वारा कण्ठस्थ सारे वेद, वेदांगों, ब्राह्मणों, आरण्यकों, श्रुतियों, स्मृतियों, विभिन्न ऋषियों और शंकराचार्य प्रभृति जद्गुरुओं द्वारा विरचित टीकाओं आदि पर उनके अधिकार और अद्भुत ज्ञान को भी दर्शाता था।
 

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