न्यायालय ने दिव्यांगजनों के प्रति भेदभाव को लेकर गंभीर चिंता जताई
नयी दिल्ली। रोजगार में दिव्यांगजनों के प्रति भेदभाव का उल्लेख करते हुए उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को केंद्र से सवाल किया कि क्या अनारक्षित श्रेणी के लिए निर्धारित ‘कट-ऑफ’ से अधिक अंक प्राप्त करने वाले मेधावी उम्मीदवारों को ‘‘आगे बढ़ाने’’ के लिए उपाय किये गए हैं। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने दिव्यांगजनों के समक्ष पेश आने वाली प्रणालीगत बाधाओं को दूर करने और वैधानिक सुरक्षा उपायों के प्रवर्तन को सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप के अनुरोध वाली याचिकाओं पर यह टिप्पणी की। पीठ ने दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम (आरपीडब्ल्यूडी), 2016 के तहत आरक्षण के पहलू पर विचार किया और कहा कि अधिनियम की धारा 34 के तहत ‘आरक्षण’’ की सकारात्मक व्याख्या करना अनिवार्य है।
पीठ ने दिव्यांग व्यक्तियों के लिए आरक्षण के एक महत्वपूर्ण पहलू का उल्लेख किया और कहा कि सामाजिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप भेदभाव का सामना करने वाले लोगों के मुकाबले दिव्यांगजनों को कहीं अधिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
पीठ ने अपने 65 पृष्ठों के फैसले में कहा कि दिव्यांगजन संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत सामाजिक आरक्षण के हकदार हैं, जो आरक्षित श्रेणी के व्यक्ति द्वारा मूल्यांकन प्रक्रिया में अच्छा प्रदर्शन करने और अनारक्षित श्रेणी के कट-ऑफ से ऊपर मेधा में आने पर उन्हें ऊपर बढ़ाने का प्रावधान करता है।
पीठ ने कहा कि ऐसा मेधावी उम्मीदवार स्वतः ही अनारक्षित श्रेणी में चला जाएगा, जिससे आरक्षित सीट खाली रह जाएगी और यह मूल्यांकन प्रक्रिया में कम अंक पाने वाले आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवार को मिल जाएगी।
न्यायालय ने कहा, ‘‘हालांकि, हमें सूचित किया गया है और यह गंभीर चिंता का विषय है कि दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम के तहत संरक्षित दिव्यांगजनों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जाता है, जो योग्यता में उच्च स्थान पर होने के बावजूद, इस तरह से ऊपर बढ़ने से वंचित रह जाते हैं।’’पीठ ने कहा कि यह अधिनियम की धारा 34 के तहत आरक्षण के मूल उद्देश्य को ही विफल करता है और ‘‘दिव्यांगजनों के प्रति भेदभाव का एक ज्वलंत उदाहरण है और इसमें तत्काल सुधार की आवश्यकता है।’
पीठ ने कहा कि ऊर्ध्वगामी संचलन के सिद्धांत के अनुसार, सामान्य ‘कट-ऑफ’ से अधिक अंक प्राप्त करने वाले आरक्षित श्रेणी के मेधावी उम्मीदवार को अनारक्षित सूची में स्थानांतरित किया जाना चाहिए।
न्यायालय ने कहा कि दुर्भाग्य से, दिव्यांगजनों को वर्तमान में यह लाभ नहीं दिया जा रहा है।पीठ ने कहा, ‘‘इन बातों को ध्यान में रखते हुए, हम भारत सरकार द्वारा यह स्पष्ट किया जाना उचित समझते हैं कि यदि ऐसा अभ्यर्थी अनारक्षित श्रेणी के लिए निर्धारित कट-ऑफ से अधिक अंक प्राप्त करता है तो दिव्यांगजनों के लिए आरक्षित पद/पदों के लिए आवेदन करने वाले मेधावी अभ्यर्थियों को आगे बढ़ाने के लिए क्या उपुयक्त उपाय किए गए हैं।’’
पीठ ने कहा कि यही सिद्धांत पदोन्नति पर भी लागू होना चाहिए।न्यायालय ने कहा कि इस तरह के विचार को इस व्यापक उद्देश्य से निर्देशित किया जाना चाहिए कि आरक्षण का वास्तविक और आवश्यक लाभ सबसे अधिक जरूरतमंद लोगों तक पहुंचे, यह सुनिश्चित किया जाए कि किसी भी दिव्यांग व्यक्ति को केवल गरीबी और पहुंच की कमी के कारण पद के लिए उसके सही दावे से वंचित न किया जाए।
पीठ ने कहा, ‘‘इस तरह की कार्रवाई समानता, गरिमा और समावेशिता के संवैधानिक वादे को ध्यान में रखते हुए की जानी चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि आरक्षण का लाभ न तो कम किया जाए और न ही उन लोगों को वंचित किया जाए जिन्हें वास्तव में इसकी आवश्यकता है।’’शीर्ष अदालत ने केंद्र से 14 अक्टूबर तक अपने प्रश्न का उत्तर देने को कहा।
न्यायालय ने आठ राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों के ‘प्रोजेक्ट एबिलिटी एम्पावरमेंट’ की एक विस्तृत समेकित रिपोर्ट छह महीने के भीतर प्रस्तुत करने का निर्देश दिया, जिसमें प्रणालीगत सुधारों और समुदाय-आधारित विकल्पों की ओर बढ़ने के लिए कार्रवाई योग्य सिफारिशें शामिल हों।न्यायालय ने ‘प्रोजेक्ट एबिलिटी एम्पावरमेंट’ के तहत राज्य संचालित सभी संज्ञानात्मक दिव्यांग देखभाल संस्थानों की राष्ट्रव्यापी निगरानी का भी निर्देश दिया।
पीठ ने मामले की सुनवाई 13 मार्च 2026 के लिए स्थगित कर दी।
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