जल की उत्पत्ति कैसे हुई?
जल की उत्पत्ति कैसे हुई? इस प्रश्न के उत्तर के लिए पुराणों का मंथन करना पड़ेगा। आधुनिक भौतिक-विज्ञान के अनुसार जल की उत्पत्ति हाईड्रोजन+ऑक्सीजन इन दो गैसों पर विद्युत की प्रक्रिया के कारण हुई है। पौराणिक सिद्धान्त के अनुसार वायु और तेज की प्रतिक्रिया के कारण जल उत्पन्न हुआ है। यदि वायु को गैसों का समुच्चय एवं तेज को विद्युत माना जाये तो इन दोनों ही सिद्धांतों में कोई अन्तर नहीं है। अत: जल की उत्पत्ति का पौराणिक सिद्धांत पूर्णतया विज्ञान-सम्मत सिद्ध होता है।
आधुनिक वैज्ञानिक आकाश, वायु तेज, जल और पृथ्वी को तत्व नहीं मानते। न मानने का कारण तत्व संबंधी अवधारणा है। तत्व के सम्बन्ध में पौराणिक अवधारणा यह है कि जिसमें तत (अर्थात् पुरुष/विष्णु/ब्रह्म) व्याप्त हो, वह तत्व कहलाता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार तत्व केवल मूल पदार्थ होता है। वस्तुत: तत्त्व और तत्व में बहुत अन्तर है।
जल की उत्पत्ति के संबंध में एक अन्य पुरातन- अवधारणा भी विचारणीय है। लगभग सभी पुराणों और स्मृतियों में यह श्लोक (थोड़े-बहुत पाठभेद से) दिया रहता है जो इस अर्थ का वाचक है कि जल की उत्पत्ति नर (पुरुष = परब्रह्म) से हुई है अत: उसका (अपत्य रूप में) प्राचीन नाम नार है, चूंकि वह (नर) नार में ही निवास करता है, इसलिए उस नर को नारायण कहते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार इस समग्र संसार के सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का सबसे पहला नाम नारायण है। दूसरे शब्दों में में भगवान का जलमय रूप ही इस संसार की उत्पत्ति का कारण है। हरिवंश पुराण भी इसकी पुष्टि करता है कि आप: सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं। हरिवंश में कहा गया है कि स्वयंभू भगवान् नारायण ने नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से सर्वप्रथम जल की ही सृष्टि की। फिर उस जल में अपनी शक्ति का आधीन किया जिससे एक बहुत बड़ा हिरण्यमय-अण्ड प्रकट हुआ। वह अण्ड दीर्घकाल तक जल में स्थित रहा। उसी में ब्रह्माजी प्रकट हुए। इस हिरण्यमय अण्ड के दो खण्ड हो गये। ऊपर का खण्ड द्युलोक कहलाया और नीचे का भूलोकÓ दोनों के बीच का खाली भाग आकाश कहलाया। स्वयं ब्रह्माजी आपव कहलाये। जल केवल नारायण ही नहीं, ब्रह्मा विष्णु और महेश (रूद्र) तीनों है।
वायु पुराण के अनुसार जल शिव की अष्टमूर्तियों में से एक है। दूसरे शब्दों में रूद्र की उपासना के लिए जो आठ प्रतीक निर्धारित हैं उनमें से एक जल है। ये आठ प्रतीक क्रमश: सूर्य, मही, जल, वह्नि (पशुपति), वायु, आकाश, दीक्षित ब्राह्मण तथा चन्द्र हैं। इनमें शिव का जो रसात्मक रूप है वह भव कहलाता है और जल में निवास करता है। इसलिए भव और जल से सम्पूर्ण भूत समूह (प्राणी) उत्पन्न होता है और वह सबको उत्पन्न करता है। अत: भवन-भावन-सम्बंध होने के कारण जल जीवों का संभव कहलाता है। इसी कारण कहा गया है कि जल में मल-मूत्र नहीं त्यागना चाहिए। न थूकना चाहिए। जलरूप भव की पत्नी उषा और पुत्र उशना माने गये हैं। पुराणों और स्मृतियों के अनुसार जल आधिदैविक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक तीनों रूपों में विद्यमान है।
वेदों में जल को आपो देवता कहा गया है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद - इन तीनों संहिताओं में, यद्यपि जल के लिए पूरे एक सौ पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
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