क्या हैं सोलह कलाएं
लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी (ईसवी) तक कला का प्रयोग अंश, भाग या खण्ड के लिए हुआ। सूर्य की गति को बारह भागों में बांटा गया जिसे राशि भी कहा गया। सूर्य की गति को बारह कलाओं या राशियों में बांटा गया और चन्द्रमा को सोलह कलाओं में। जयमंगल ने इन्हें 64 श्रेणियों में विभक्त किया। जिन्हें चौंसठ योगिनी के रूप में भी प्रसिद्धि, वज्रयानियों के प्रभाव से निर्मित खजुराहो आदि में मिली।
जिन सोलह कला का उल्लेख भगवान कृष्ण के लिए हुआ उसका संदर्भ अंश है न कि कोई आर्ट । इसके लिए वैदिक और पौराणिक दो मान्यता हैं। पूर्णावतार, ईश्वर के सोलह अंश (कला) से पूर्ण होता है। सामान्य मनुष्य में पांच अशों (कलाओं) का समावेश होता है यही मनुष्य योनि की पहचान भी है। पांच कलाओं से कम होने पर पशु, वनस्पति आदि की योनि बनती है और पांच से आठ कलाओं तक श्रेष्ठ मनुष्य की श्रेणी बनती है। अवतार नौ से सोलह कलाओं से युक्त होते हैं। पन्द्रह तक अंशावतार ही हैं। राम बारह और कृष्ण सोलह कलाओं से पूर्ण हैं।
एक मान्यता यह भी है कि राम सूर्यवंशी हैं तो सूर्य की बारह कलाओं के कारण, बारह कलायुक्त अंशावतार हुए। कृष्ण चंद्रवंशी हैं तो चन्द्रमा की सोलह कलाओं से युक्त होने के कारण पूर्णावतार हैं। कला की तरह ही अनेक ऐसे शब्द हैं जिनके अर्थ कालान्तर में बदल गए। जिनमें से एक शब्द संग्राम भी है। प्राचीन काल में विभिन्न ग्रामों के सम्मेलन को संग्राम कहते थे। इन सम्मेलनों में अक्सर झगड़े होते थे और युद्ध जैसा रूप धारण कर लेते थे। धीरे-धीरे संग्राम शब्द युद्ध के लिए प्रयुक्त होने लगा। शास्त्र शब्द को कला ने बहुत सहजता के साथ बदल दिया पाक शास्त्र , सौंदर्य शास्त्र, शिल्प शास्त्र आदि सब -पाक कला, सौन्दर्य कला, शिल्प कला आदि हो गए।
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