क्या है पाशुपत सम्प्रदाय
पाशुपत, संभवत: शिव को सर्वोच्च शक्ति मानकर उपासना करने वाला सबसे पहला हिंदू संप्रदाय। माना जाता है कि बाद में इस सम्प्रदाय ने असंख्य उपसंप्रदायों को जन्म दिया, जो गुजरात और महाराष्टï्र में कम से कम 12 वीं शताब्दी तक फले-फूले तथा जावा और कंबोडिया भी पहुंचे। इस संप्रदाय ने यह नाम शिव की एक उपाधि पशुपति से लिया है, जिसका अर्थ है पशुओं के देवता, इसका अर्थ बाद में विस्तृत होकर प्राणियों के देवता हो गया।
महाभारत में पाशुपत संप्रदाय का उल्लेख है। शिव को ही इस व्यवस्था का प्रथम गुरु माना गया है। बाद के साहित्य, जैसे वायु-पुराण में वर्णित जनश्रुतियों के अनुसार शिव ने स्वयं यह रहस्योद्घाटन किया था कि विष्णु के वासुदेव कृष्ण के रूप में अवतरण के दौरान वह भी प्रकट होंगे। शिव ने संकेत दिया कि वह एक मृत शरीर में प्रविष्टï होंगे और लकुलिन (या नकुलिन अथवा लकुलिश, लकुल का अर्थ है गदा) के रूप में अवतार लेंगे।
10 वीं तथा 13 वीं शताब्दी के अभिलेख इस जनश्रुति का समर्थन करते प्रतीत होते हैं, चूंकि उनमें लकुलिन नामक एक उपदेशक का उल्लेख मिलता है, जिनके अनुयायी उन्हें शिव का एक अवतार मानते थे। वासुदेव संप्रदाय की तरह कुछ इतिहासकार पाशुपत के उद्भव को दूसरी शताब्दी ई.पू. का मानते हैं, जबकि अन्य इसके उद्भव की तिथि दूसरी शताब्दी ई. मानते हैं।
पाशुपत द्वारा अंगीकृत की गई योग प्रथाओं में दिन में तीन बार शरीर पर राख मलना, ध्यान लगाना और शक्तिशाली शब्द ओम का जाप करना शामिल है। इस विचारधारा की ख्याति को तब धक्का लगा, जब कुछ रहस्यवादी प्रथाओं में अति की जाने लगी।
पाशुपत सिद्घांत से दो अतिवादी विचारधाराएं, कालमुख और कापालिक के साथ-साथ एक मध्यम संप्रदाय, शैव (जो सिद्घांत विचारधारा भी कहलाता है) का विकास हुआ। अधिक तार्किक तथा स्वीकार्य शैव से, जिसके विकास से आधुनिक शैववाद का उदय हुआ। भिन्न विशिष्टïता बनाए रखने के लिए पाशुपत तथा अतिवादी संप्रदाय अतिमार्गिक (मार्ग से भटकी हुई विचारधारा) कहलाए।
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