उपनिषदों में किसका उल्लेख मिलता है.....
उपनिषद्- उपनिषद् शब्द का अर्थ है वह शास्त्र या विद्या जो गुरु के निकट बैठकर एकांत में सीखी जाती है। उपनिषद् ज्ञान पर बल देता है एवं ब्रह्म एवं आत्मा के संबंधों को निरूपित करता है। उपनिषदों की रचना की परंपरा मध्य काल तक चलती रही। माना जाता है कि अल्लोपनिषद् अकबर के युग में लिखा गया। इसलिए उपनिषदों की संख्या बहुत बड़ी है। मुक्तिका उपनिषद् के अनुसार कुल 108 उपनिषद् हैं।
शंकराचार्य ने 11 उपनिषदों पर टीकाएं लिखी हैं। 13 उपनिषद् बहुत महत्वपूर्ण है इसमें से दो ऐतरेय एवं कौषतिकी उपनिषद् ऋग्वेद से संबंधित है। दो अन्य छांदोग्य एवं केन उपनिषद् सामवेद से संबंधित हैं। चार, तैत्तिरीय, कठ, श्वेताश्वतर तथा मैत्रायिणी का संबंध कृष्ण यजुर्वेद से है, तो वृहदारण्यक तथा इश उपनिषद शुक्ल यजुर्वेद से। मुंडक, मांडुक्य एवं प्रश्न उपनिषद् अथर्ववेद से संबंधित हैं। उपनिषद् को वेदान्त कहा गया है। कठ, श्वेताश्वर, ईश तथा मुडक उपनिषद् छदोबद्ध है। केन और प्रश्न उपनिषद् के कुछ भाग छंद एवं कुछ भाग गद्य है। शेष सात गद्य हैं। तत्त्वमसि तुम अर्थात् पुत्र के प्रति कथित शब्द उपनिषदों का प्रधान प्रसंग है।
पी.एल. भार्गव नामक इतिहासकार ने उपनिषदों की क्रमावली बनायी है:
मूल रूप में ब्रह्म सिद्धांत उल्लेख करने वाले वृहदाराण्यक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, कौषितकी, केन तथा ईश उपनिषद् सबसे प्राचीन हैं। वृहदारण्यक उपनिषद् से संकेत मिलता है कि प्राचीनकाल के बुद्धिमान मनुष्य संतान नहीं चाहते थे।
सांख्य शब्दों की जानकारी तथा विष्णु के प्रति झुकाव के कारण कठ उपनिषद् उसके बाद का है। कठोपनिषद् में आत्मा को पुरूष कहा गया है। वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद बड़ा रोचक है। उसी प्रकार कठोपनिषद् का यम-नचिकेता संवाद उल्लेखनीय है। मुण्डकोपनिषद् में यह घोषित किया गया कि सत्यमेव जयते।
श्वेताश्वतर उपनिषद् में परमात्मा को रूद्र कहा गया है, इस आधार पर इसे कठ उपनिषद् के बाद का माना जाता है।
मैत्रायिणी उपनिषद् में त्रिमूर्ति तथा चार आश्रमों के सिद्धांत का उल्लेख है। साथ ही इसमें पहली बार निराशावाद के तत्व मिलते हैं। अत: इसे सबसे बाद का उपनिषद् माना जाता है। नृसिंहपूर्वतापनी उपनिषद् संभवत: सबसे प्राचीन उपनिषद् था। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार, धर्म के तीन स्कंध होते हैं- 1. यज्ञ, अध्ययन और दान , 2. तप और 3. गुरू के आश्रम में ब्रह्मचारी के रूप में रहना।
छांदोग्य उपनिषद् में सर्वखल्विदं ब्रह्म अर्थात बह्म ही सब कुछ है कहकर अद्वैतवाद की प्रतिष्ठा की गई है।
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