कम पानी में ज्यादा उत्पादन देने वाली मटका खेती
जोधपुर। खेती करने के अलग-अलग तरीके होते हैं। आधुनिक तकनीक के आ जाने से अब किसान कम लागत में अधिक लाभ पाने वाली खेती करने पर जोर दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण इलाकों के किसान भी अब नई तकनीक अपनाने में रुचि दिखा रहे हैं।
आज हम आपको एक ऐसे किसान के बारे में बता रहे हैं, जो राजस्थान में जोधपुर और पाली जिले के सीमा के पास बसे बिलाड़ा गांव के रहने वाले हैं। इस प्रगतिशील किसान का नाम है राजाराम शीरवी राठौड़। उन्होंने अपने क्षेत्र में पानी की कमी को देखते हुए मटका खेती विकसित की है। उनका मानना है कि इस तकनीक से एक तो सिंचाई के लिए पानी कम लगता , दूसरे अच्छी पैदावार भी ली जा सकती है। इसे जैविक जुगाड़ तकनीक कहा जा सकता है। इस प्रगतिशील किसान राजाराम शीरवी राठौड़ ने पहले तो पुराने मटके जमीन में गाड़े। इसमें उन्होंने जीवामृत और डीकंपोस्ट खाद भरी। मटके में जहां छेद किए गए हैं वहां कोई छोटा पत्थर रख दिया जाता है ताकि उसमें बाहर की मिट्टी न जा पाए। इसी छेद के पास बीज बोये जाते हैं।
इस विधि से बेलें सामान्य बुआई की अपेक्षा न सिर्फ काफी तेजी से बड़ी होती हैं, बल्कि वो रोगमुक्त भी होती हैं। इसमें फल भी अधिक आते हैं। उन्होंने अपनी मेढ़ों के किनारे तीन-तीन फीट पर मटके गाड़े हैं।
राजाराम राठौड़ बताते हैं, इस विधि से एक बार घड़े में पानी भरने से वो करीब 2 महीने तक चलता है। उनका कहना है कि बिना किसी रासायनिक कीटनाशक और उर्वरक के इस जैविक खेती में सामान्य से अधिक उत्पादन होता है। श्री राठौड़ का कहना है कि कद्दू, लौकी, करेला, लोबिया और तरोई जैसी बेल वाली फसलें लेने के लिए किसान मटका विधि का प्रयोग कर सकते हैं। मटके में वेस्ट डीकंपोजर या जीवामृत मिला पानी डालकर उसे ऊपर से ढंक देना होता है। मटके में भरे पानी से बीजों को नमी और माइक्रोन्यूटेंट मिलते रहते हैं, जिससे वो तेजी से बढ़ते हैं। राजाराम के मुताबिक इस विधि से किसानों को अपने खेतों की मेढ़ों के पास बुआई करने से ज्यादा फायदा मिलेगा। इस विधि में एक बार जमीन में दबाया गया मटका कई वर्षों तक काम करता रहता है। बस उसमें पानी भरते रहने चाहिए।
राजाराज राठौड़ करीब 150 बीघे खेत के मालिक हैं और वर्ष 2011 से जैविक खेती कर रहे हैं। अपने खेतों में वो जीरा, गेहूं, सौंफ, मिर्च, कपास जैसी फसल भी लेते हैं।
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