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- क्या आपने कभी "रेपो रेट" (Repo rate) के बारे में सुना है और सोचा है कि इसके बारे में आप और क्या जानते हैं? वित्त और अर्थशास्त्र (Finance and economics) की दुनिया में रेपो रेट एक महत्वपूर्ण अवधारणा हैं और इसका अर्थव्यवस्था पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इस ब्लॉग में, हम सरल शब्दों में बताएंगे कि रेपो दर (Repo rate) क्या है और यह अर्थव्यवस्था को कैसे प्रभावित करती है।रेपो रेट के बारे में जानेंसबसे पहले, आइए "रेपो रेट" (Repo rate) शब्द के मतलब को स्पष्ट करें। रेपो "पुनर्खरीद समझौते" (Purchase agreement) का संक्षिप्त रूप है और रेपो रेट (Repo rate) वह ब्याज दर है जिस पर कमर्शियल बैंक (Commercial bank) केंद्रीय बैंक (Central bank) से पैसा उधार ले सकते हैं। कई देशों में, केंद्रीय बैंक धन आपूर्ति को नियंत्रित करने और वित्तीय प्रणाली की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है।इसलिए, जब कमर्शियल बैंकों (Commercial bank) को अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने या अपने भंडार का प्रबंधन करने के लिए अतिरिक्त धन की आवश्यकता होती है, तो वे धन उधार लेने के लिए केंद्रीय बैंक (Central bank) से संपर्क कर सकते हैं। जिस ब्याज दर पर वे यह पैसा उधार लेते हैं वह रेपो रेट है।रेपो रेट कैसे काम करता है?कल्पना कीजिए कि आप एक कमर्शियल बैंक (Commercial bank) हैं, और आपको अपने ग्राहकों को भुगतान जैसी अल्पकालिक जरूरतों को पूरा करने के लिए कुछ पैसों की आवश्यकता है। आप किसी से उधार नहीं ले सकते; आप केंद्रीय बैंक (Central bank) जाएं. केंद्रीय बैंक आपको पैसा उधार देने के लिए सहमत है, लेकिन आपको बाद की तारीख में उतनी ही राशि, ब्याज सहित वापस करने का वादा करना होगा। यहीं पर रेपो रेट (Repo rate) काम आता है।रेपो दर के (Repo rate) ंद्रीय बैंक से पैसे उधार लेने की लागत की तरह है। यदि केंद्रीय बैंक उच्च रेपो रेट निर्धारित करता है, तो कमर्शियल बैंकों के लिए पैसा उधार लेना अधिक महंगा हो जाता है। इसके विपरीत, कम रेपो रेट का मतलब है कि उधार लेना अधिक किफायती है।अर्थव्यवस्था पर रेपो रेट का प्रभावअब, आइए देखें कि रेपो दर (Repo rate) व्यापक अर्थव्यवस्था को कैसे प्रभावित करती है:1. ब्याज दरों पर प्रभाव: रेपो रेट का पूरी अर्थव्यवस्था में ब्याज दरों पर प्रभाव पड़ता है। जब केंद्रीय बैंक रेपो रेट बढ़ाता है, तो कमर्शियल बैंक अक्सर उपभोक्ताओं और व्यवसायों के लिए लोन के लिए अपनी ब्याज दरें बढ़ाते हैं। इसके परिणामस्वरूप, सभी के लिए उधार लेना अधिक महंगा हो जाता है, जिससे घर, कार और निवेश जैसी चीज़ों पर खर्च कम हो जाता है।2. मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना: केंद्रीय बैंकों द्वारा रेपो रेट (Repo rate) का उपयोग करने का एक प्राथमिक कारण मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना है। जब अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से बढ़ रही हो और कीमतें बहुत तेज़ी से बढ़ रही हों, तो केंद्रीय बैंक रेपो रेट बढ़ा सकता है। इससे उधार लेना अधिक महंगा हो जाता है, जिससे खर्च धीमा हो सकता है और मुद्रास्फीति कम हो सकती है। दूसरी ओर, यदि अर्थव्यवस्था सुस्त है और मुद्रास्फीति (Inflation) बहुत कम है, तो केंद्रीय बैंक उधार लेने और खर्च को प्रोत्साहित करने के लिए रेपो रेट कम कर सकता है।3. बचत पर असर: रेपो रेट (Repo rate) में बदलाव का असर बचत पर भी पड़ता है। जब केंद्रीय बैंक(Central bank) रेपो रेट बढ़ाता है, तो बैंक बचत खातों पर उच्च ब्याज दरों की पेशकश करते हैं, जो बचतकर्ताओं के लिए अच्छी खबर है। इसके विपरीत, जब रेपो रेट गिरता है, तो बचत खाते की ब्याज दरें भी कम हो सकती हैं, जिससे आपकी बचत पर रिटर्न कम हो सकता है।4. विनिमय दरें: रेपो रेट विनिमय दरों को भी प्रभावित कर सकती है। उच्च रेपो दर अपने निवेश पर बेहतर रिटर्न चाहने वाले विदेशी निवेशकों को आकर्षित कर सकती है, जिससे देश की मुद्रा की सराहना हो सकती है। इसके विपरीत, कम रेपो रेट विदेशी निवेश को हतोत्साहित कर सकती है और कमजोर मुद्रा को जन्म दे सकती है।5. निवेश और आर्थिक विकास: व्यवसाय अक्सर विस्तार और निवेश के लिए ऋण पर निर्भर रहते हैं। जब रेपो रेट (Repo rate) अधिक होता है, तो उधार लेना महंगा हो जाता है, और व्यवसाय अपने निवेश में देरी या कटौती कर सकते हैं। इसके विपरीत, कम रेपो रेट व्यवसायों को उधार लेने और विकास में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है, जिससे संभावित रूप से आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा मिल सकता है।निष्कर्षरेपो रेट (Repo rate) एक महत्वपूर्ण उपकरण है जिसका उपयोग केंद्रीय बैंक अपने देश की अर्थव्यवस्था को प्रबंधित करने के लिए करते हैं। रेपो रेट में बदलाव करके, केंद्रीय बैंक उधार लेने की लागत, खर्च पैटर्न, मुद्रास्फीति दर और बहुत कुछ प्रभावित कर सकते हैं। यह समझना कि रेपो रेट कैसे काम करता है और अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव आपको सूचित वित्तीय निर्णय लेने में मदद कर सकता है और व्यापक आर्थिक रुझानों पर नज़र रख सकता है जो हम सभी को प्रभावित करते हैं।
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सिडनी, ऑस्ट्रेलिया के जंगलों, खेतों और बगीचों में जैसी ही सूरज ढलता है वैसे ही रात के कीड़ों की एक दबी-छिपी दुनिया जीवंत हो उठती है। ज्यादातर पारिस्थितिकी तंत्रों में विशेषकर दुनिया के गर्म हिस्सों में रात के समय कीड़ों की गतिविधियां चरम पर होती हैं। ये रात्रिचर जीव पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और परागण, अपशिष्ट अपघटन और कीट नियंत्रण जैसी सेवाएं प्रदान करते हैं। यहां कुछ महत्वपूर्ण कीड़ों के बारे में बताया गया हैं, जो अंधेरा होने के बाद बाहर आते हैं। आइए जानते हैं ये कीड़ें क्यों महत्वपूर्ण हैं।
पतंगा: रात्रि पाली का सितारा
चमकीली तितलियां दिन के समय अक्सर मन मोहने का काम करती हैं जबकि पतंगा रात के समय अपनी खूबियों से लोगों का दिल जीतता है। एक अनुमान के मुताबिक, ऑस्ट्रेलिया में पतंगा की करीब 22,000 प्रजातियां पाई जाती हैं और इनमें से अधिकांश (प्रजातियां) रात के समय अपनी गतिविधियां करती हैं हालांकि कुछ पतंगा प्रजातियां दिन में और कुछ सुबह व शाम को सक्रिय होती हैं। कई प्रजातियां अपने लंबे, 'स्ट्रॉ' जैसे मुंह के अंगों का उपयोग कर फूलों के रस से भोजन प्राप्त करती हैं और उड़ने से पहले फूलों के बीच पराग डालने का काम करती हैं। कुछ पतंगे कई तरह के पौधों पर भोजन करते हैं, वहीं अन्य पतंगों का कुछ विशिष्ट फूलों के साथ अत्यधिक विशिष्ट संबंध होता है। पतंगों के लार्वा, ‘कैटरपिलर' भी पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
उदाहरण के तौर पर ‘मैली' नामक पतंगों (ओकोफोरिडे) का लार्वा पत्ती के कूड़े में सूखी पत्तियों को खाता है और इसलिए वह कठोर, सूखे पौधों के अपघटन के लिए आवश्यक हो जाता है। अगर ये पतंगे अपनी कड़ी मेहनत से इन जैविक पदार्थों को नष्ट नहीं करते हैं तो इन पत्तियों का ढेर मनुष्यों के लिए एक समस्या के रूप में सामने आ सकता है। पतंगे और उनके लार्वा मनुष्यों सहित कई जानवरों के लिए वसा और प्रोटीन युक्त भोजन स्रोत प्रदान करते हैं।
रात में व्यस्त जुगनू ः
गर्मी के मौसम में रात के समय अंधेरे में नाचते इन जुगनुओं की चमकती रोशनी को देखना एक जादुई अनुभव है। जुगनू वास्तव में लैम्पाइरिडे परिवार के भौरे हैं और ऑस्ट्रेलिया में इनकी 25 प्रजातियां पाई जाती हैं। जुगनू की प्रत्येक प्रजाति संभावित साथियों के साथ संवाद करने के लिए अपनी स्वयं की विशिष्ट रोशनी का उपयोग करती है। जब एक ही प्रजाति के बहुत से जुगनू इकट्ठा होते हैं, तो वे अपने प्रकाश स्पंदनों को मिला सकते हैं, जिससे एक लुभावना दृश्य बनता है। जुगनू की ये विशिष्ट रोशनी ‘ल्यूसिफेरिन' नाम के अणु और ‘ल्यूसिफेरेज' नाम के एंजाइम से जुड़ी एक जैव रासायनिक प्रतिक्रिया के जरिये उत्पन्न होती है। जब जुगनू ऑक्सीजन की उपस्थिति में परस्पर क्रिया करते हैं, तो रोशनी उत्सर्जित होती है।
लेसविंग्स और मेंटिसफ्लाइ
‘लेसविंग्स', कीटों के एक प्राचीन समूह (न्यूरोप्टेरा) से ताल्लुक रखते हैं, जिनका नाम उनके पंखों पर नसों के नाजुक जाल के कारण रखा गया है। अधिकांश वयस्क ‘लेसविंग्स' रात में शिकार करते हैं और अपने शिकार से पोषक तत्वों को निकालने के लिए अपने खोखले, कैंची के आकार के मुंह का उपयोग करके छोटे-छोटे कीटों को खाते हैं। कई ‘लेसविंग्स' प्रजातियां प्रभावी कीट नियंत्रक हैं और इनका उपयोग कृषि में ‘एफिड्स' और ‘मीलीबग्स' जैसे कीटों के प्रबंधन के लिए किया जाता है। ‘मैन्टिसफ्लाई' नाम से मशहूर ‘मैन्टिड लेसविंग्स' मैन्टिस और मक्खी के बीच एक अजीब संकर जैसा दिखता है लेकिन वास्तव में यह ‘लेसविंग्स' के समान ही है। ‘मैन्टिसफ्लाई' के लार्वा का बहुत कम अध्ययन किया गया है लेकिन अधिकांश प्रजातियों को कीटों का शिकारी माना जाता है हालांकि कुछ मकड़ी के अंडों को खाते हैं। ‘मैन्टिसफ्लाई' अन्य कीटों को खाकर कीटों की आबादी को नियंत्रित करने में भूमिका निभाते हैं।
रात के समय काम करने वाले इन जीवों की सुरक्षा ः
रात में कृत्रिम रोशनी रात की पाली में काम करने वाले कीटों के लिए गंभीर व्यवधान पैदा कर रही है।
कीट अक्सर भ्रमित हो जाते हैं और चमकदार रोशनी के इर्द-गिर्द अंतहीन घेरे में उड़ते रहते हैं तथा अपनी ऊर्जा खर्च करते रहते हैं, जिस कारण वह मर जाते हैं। भ्रम के कारण होने वाली ये थकावट उनकी मृत्यु का कारण बन सकती है।
रात में कृत्रिम रोशनी कीटों के प्रजनन को भी बाधित कर सकती है। उल्लू और चमगादड़ आदि कृत्रिम रोशनी के इर्द-गिर्द शिकार करते हैं, क्योंकि इस प्रकार की रोशनी में उनका शिकार अधिक केंद्रित और कमजोर हो जाता है। हम कैसे मदद कर सकते हैं:
रात में अनावश्यक बाहरी लाइटें बंद करें, खासकर गर्मियों के दौरान जब कई कीट प्रजनन कर रहे होते हैं।
प्रकाश प्रदूषण को कम करने के लिए ‘मोशन एक्टिवेटेड' रोशनी का उपयोग करना और बगीचों में कीटनाशकों के उपयोग को कम या फिर समाप्त करना। हमारे पारिस्थितिकी तंत्र को स्वस्थ रखने के लिए रात भर कड़ी मेहनत करने वाले कीटों की रक्षा करने में छोटे-छोटे बदलाव बहुत बड़ा अंतर ला सकते हैं। -
बेंगलुरु. भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने रविवार को कहा कि अंतरिक्ष डॉकिंग प्रयोग करने के लिए प्रक्षेपित किए गए दो उपग्रहों को परीक्षण के तौर पर तीन मीटर की दूरी पर लाया गया और फिर सुरक्षित रूप से वापस ले जाया गया। अंतरिक्ष एजेंसी ने यह भी कहा कि ‘डॉकिंग' प्रक्रिया डेटा के विस्तृत विश्लेषण के बाद पूरी की जाएगी।
इसरो ने ‘एक्स' पर एक पोस्ट में कहा, ‘पहले 15 मीटर और फिर तीन मीटर तक पहुंचने का प्रयास किया गया। अंतरिक्ष यान को सुरक्षित दूरी पर वापस ले जाया जा रहा है। डेटा का विस्तृत विश्लेषण करने के बाद डॉकिंग प्रक्रिया की जाएगी।' ‘स्पेस डॉकिंग एक्सपेरीमेंट' (स्पेडेक्स) परियोजना पहले ही सात और नौ जनवरी को ‘डॉकिंग' प्रयोगों के लिए घोषित दो समय सीमा को चूक चुकी है। इसरो ने 30 दिसंबर को स्पेडेक्स मिशन को सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में भेजा था। श्रीहरिकोटा में सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से पीएसएलवी सी60 रॉकेट के जरिये दो उपग्रहों स्पेसक्राफ्ट ए (एसडीएक्स01) और स्पेसक्राफ्ट बी (एसडीएक्स02) को रवाना किया गया था। करीब 15 मिनट बाद 220-220 किलोमीग्राम वाले ये छोटे अंतरिक्ष यान योजना के अनुसार 476 किलोमीटर की वृत्ताकार कक्षा में दाखिल हो गए थे। इसरो के अनुसार, स्पेडेक्स परियोजना छोटे अंतरिक्ष यान का उपयोग करके अंतरिक्ष में ‘डॉकिंग' की प्रक्रिया के लिए एक किफायती प्रौद्योगिकी मिशन है। स्पेडेक्स में सफलता हासिल करने के बाद भारत उन जटिल प्रौद्योगिकियों में महारत हासिल करने वाला चौथा देश बन जाएगा जो इसके भावी मिशनों, जैसे भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन और चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्री को उतारने के लिए महत्वपूर्ण हैं। - वाशिंगटन. नदियों, झीलों और अन्य मीठे पानी के स्रोतों में रहने वाले लगभग एक चौथाई जीवों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। बुधवार को प्रकाशित नए शोध में यह जानकारी दी गयी। ब्राजील के सेरा संघीय विश्वविद्यालय की जीवविज्ञानी और अध्ययन की सह-लेखिका पैट्रिशिया चार्वेट ने कहा, “अमेजन जैसी विशाल नदियां शक्तिशाली प्रतीत हो सकती हैं, लेकिन साथ ही मीठे पानी का वातावरण बहुत संवेदनशील होता है।” इंग्लैंड में प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ की प्राणी विज्ञानी कैथरीन सेयर ने कहा कि मीठे पानी के आवासन क्षेत्र - जिनमें नदियां, झीलें, तालाब, जलधाराएं, दलदल और आर्द्रभूमि शामिल हैं - ग्रह की सतह के एक प्रतिशत से भी कम हिस्से में हैं, लेकिन वे इसकी 10 प्रतिशत जीव प्रजातियों का भरण-पोषण करते हैं। शोधकर्ताओं ने ड्रैगनफ्लाई, मछली, केकड़ों और अन्य जीवों की लगभग 23,500 प्रजातियों का परीक्षण किया, जो पूर्णतः मीठे जल के पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर हैं। उन्होंने पाया कि 24 प्रतिशत प्रजातियां प्रदूषण, बांध, जल निकासी, कृषि, आक्रामक प्रजातियों, जलवायु परिवर्तन और अन्य व्यवधानों से उत्पन्न खतरों के कारण विलुप्त होने के खतरे में हैं - जिन्हें संवेदनशील, संकटग्रस्त या गंभीर रूप से संकटग्रस्त के रूप में वर्गीकृत किया गया है। अध्ययन की सह-लेखक सेयर ने कहा, “अधिकांश प्रजातियों के लिए केवल एक ही खतरा नहीं है जो उन्हें विलुप्त होने के खतरे में डालता है, बल्कि कई खतरे एक साथ मिलकर काम करते हैं।” जर्नल ‘नेचर' में प्रकाशित इस शोध के आंकड़े में पहली बार शोधकर्ताओं ने मीठे पानी की प्रजातियों के लिए वैश्विक जोखिम का विश्लेषण किया है। पिछले अध्ययनों में स्तनधारियों, पक्षियों और सरीसृपों सहित थलीय जीवों पर ध्यान केंद्रित किया गया था।
- नयी दिल्ली. कृत्रिम बुद्धिमता (एआई) के परिणामों में पूर्वाग्रह के बारे में चिंताओं को दूर करने के उद्देश्य से आईआईटी-जोधपुर के शोधकर्ताओं ने भारतीय परिवेश में ‘एल्गोरिदम' में उपयोग के लिए 'निष्पक्षता, गोपनीयता और नियामक' पैमाने पर 'डेटासेट' की गणना करने के उ्देश्य से एक रूपरेखा तैयार की है। गणितीय समीकरणों को हल करने के लिए कुछ निर्धारित नियमों को ‘एल्गोरिदम' कहा जाता है।एआई विशेषज्ञों ने एआई-प्रणालियों के विकास में पश्चिमी डेटासेट के उपयोग पर लगातार चिंता व्यक्त की है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) जोधपुर के प्रोफेसर और इस रूपरेखा का वर्णन करने वाले शोधपत्र के लेखक मयंक वत्स ने कहा, ‘‘यदि मुझे विशेष रूप से भारत के लिए ‘चेहरा पहचान प्रणाली' बनानी हो, तो मैं केवल पश्चिमी देशों में विकसित डेटासेट पर निर्भर रहने के बजाय, यहां के लोगों के चेहरे की विशेषताओं और त्वचा के रंग की अद्वितीय विविधता को दर्शाने वाले डेटासेट के उपयोग को प्राथमिकता दूंगा।'' प्रोफेसर मयंक वत्स ने कहा, ‘‘पश्चिमी डेटासेट में भारतीय जनसांख्यिकी की बारीकियों को सटीक रूप से ग्रहण करने के लिए आवश्यक विशेषताओं का अभाव हो सकता है। '' डेटासेट, जो डेटा या सूचना का एक संग्रह है, जिसका उपयोग एआई-आधारित एल्गोरिदम को प्रशिक्षित करने के लिए किया जाता है, जिसे डेटा में पैटर्न का पता लगाने के लिए डिजाइन किया गया है। उन्होंने कहा, ‘‘जब हम एक जिम्मेदार एआई-आधारित प्रणाली या समाधान के निर्माण की बात करते हैं, तो इसके डिजाइन में पहला कदम यह पता लगाना होता है कि किस डेटासेट का उपयोग किया जाना है। यदि डेटासेट में समस्याएं हैं, तो यह उम्मीद करना अवास्तविक है कि एआई-मॉडल स्वचालित रूप से उन सीमाओं को पार कर लेगा।'' इस अध्ययन की सिफारिशों में विविध जनसंख्या से संवेदनशील पहलुओं जैसे लैंगिक और जाति आदि से संबंधित डेटा एकत्र करना शामिल था, तथा यह डेटा इस प्रकार प्रदान किया गया कि व्यक्तियों की गोपनीयता सुरक्षित रहे। शोधकर्ताओं ने कहा कि यह ढांचा, जो यह भी आकलन करता है कि क्या किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत डेटा सुरक्षित है, संभवतः 'जिम्मेदार डेटासेट' बनाने में सहायता कर सकता है और यह एआई के नैतिक मुद्दों को कम करने की दिशा में एक प्रयास है। 'जिम्मेदार एआई' की अवधारणा की परिकल्पना 1940 के दशक में की गई थी और यह मानव समाज द्वारा परिभाषित नियमों और नैतिकता का पालन करने वाली मशीनों पर केंद्रित थी।
- नयी दिल्ली. पृथ्वी पर 15 करोड़ वर्ष पहले विचरण करने वाले सबसे बड़े डायनासोरों में से एक 'वल्केन' के कंकाल की नीलामी 16 नवंबर को पेरिस में होगी। फ्रांसीसी नीलामी कंपनी कोलिन डु बोकेज और बारबारोसा ने घोषणा की कि नीलामी में ‘‘सबसे पूर्ण'' और सबसे बड़े डायनासोर के कंकाल को रखा जाएगा। नीलामी के लिए जुलाई में पूर्व-पंजीकरण बोली खुलने के बाद से इसकी मूल अनुमानित कीमत 1.1-2.2 करोड़ अमेरिकी डॉलर (लगभग 92-185 करोड़ रुपये) हो गई है। राजसी एपेटोसॉरस कंकाल की खोज 2018 में अमेरिका के व्योमिंग में की गई थी और इसकी लंबाई 20.50 मीटर है, जिसमें लगभग 80 प्रतिशत हड्डियां उसी डायनासोर की हैं। कॉलिन डु बोकेज के संस्थापक और नीलामीकर्ता ओलिवियर कॉलिन डु बोकेज ने एक बयान में कहा, ‘‘वल्केन सबसे बड़ा और सबसे पूर्ण डायनासोर है जो इन सभी से ऊपर है। यह जीवन भर की सबसे पुरानी खोज है।
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बीजिंग/जियुक्वान. चीन ने बुधवार को अपने अंतरिक्ष स्टेशन पर छह महीने के मिशन पर तीन अंतरिक्ष यात्रियों को सफलतापूर्वक भेजा जिसमें देश की पहली महिला अंतरिक्ष इंजीनियर भी शामिल हैं। ‘शेनझोऊ-19' अंतरिक्ष यान को उत्तरपश्चिमी चीन में जियुक्वान अंतरिक्ष लॉन्च केंद्र से बुधवार तड़के लॉन्ग मार्च-2एफ रॉकेट से भेजा गया। अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण के करीब 10 मिनट बाद ‘शेनझोऊ-19' अपने रॉकेट से अलग हो गया और उसने अपनी निर्धारित कक्षा में प्रवेश किया। चीन मानवयुक्त अंतरिक्ष एजेंसी (सीएमएसए) ने घोषणा की कि चालक दल के सदस्य अच्छी स्थिति में हैं और यह प्रक्षेपण पूरी तरह कामयाब रहा। चीन को इस आशंका से अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) से बाहर कर दिया गया था कि उसका अंतरिक्ष कार्यक्रम उसकी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) द्वारा संचालित किया जाता है। इसके बाद उसने अपना अंतरिक्ष स्टेशन बनाया था। वह अभी इकलौता देश है जिसके पास अपना अंतरिक्ष स्टेशन है।
इस महीने की शुरुआत में चीन ने चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्रियों को भेजने समेत अंतरिक्ष कार्यक्रमों के विकास की अपनी योजनाओं की घोषणा की थी। चीन ने अपना अंतरिक्ष स्टेशन बनाने के अलावा कई अंतरिक्ष मिशन भी भेजे हैं जिनमें पहली बार चंद्रमा के सुदूर हिस्से से नमूने एकत्रित करना और उन्हें वैज्ञानिक अध्ययनों के लिए पृथ्वी पर वापस लाने का चंद्र मिशन भी शामिल है। ‘शेनझोऊ-19' के चालक दल में मिशन कमांडर काई शुझे और अंतरिक्ष यात्री सॉन्ग लिंगडोंग और वांग होज शामिल हैं। सीएमएसए ने बताया कि वांग अभी चीन की इकलौती महिला अंतरिक्ष इंजीनियर और अंतरिक्ष में जाने वाली चीन की तीसरी महिला हैं। अंतरिक्ष में जाने वाले इस नए दल के कार्यों में अंतरिक्ष विज्ञान और अनुप्रयोग परीक्षण करना, अंतरिक्ष में मलबे के खिलाफ सुरक्षात्मक उपकरण स्थापित करना और अतिरिक्त वाहन पेलोड और उपकरणों की स्थापना और पुनर्चक्रण का प्रबंधन करना शामिल है। सीएमएसए के प्रवक्ता लिन शिकियांग ने मंगलवार को एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि यह चालक दल 86 अंतरिक्ष विज्ञान अनुसंधान और प्रौद्योगिक अनुप्रयोग करेगा जिसमें अंतरिक्ष जीव विज्ञान, अंतरिक्ष औषधि और नयी अंतरिक्ष प्रौद्योगिकियां शामिल हैं। यह चालक दल करीब छह महीने तक अंतरिक्ष स्टेशन में रहेगा।
लिन ने बताया कि चीन साझेदार देशों से अंतरिक्ष यात्रियों का चयन करने और उन्हें प्रशिक्षित करने पर भी चर्चा कर रहा है और अपने अंतरराष्ट्रीय साझेदारों को अपने अंतरिक्ष स्टेशन में शामिल होने के लिए आमंत्रित कर रहा है। पाकिस्तान से करीबी संबंधों पर विचार करते हुए उसका एक अंतरिक्ष यात्री भविष्य में अंतरिक्ष स्टेशन पर जा सकता है। -
नयी दिल्ली. अंतरिक्ष की यात्रा से अंतरिक्ष यात्रियों के पेट के अंदरूनी अंगों में ऐसे बदलाव आ सकते हैं जो उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली एवं चयापचय प्रक्रिया पर असर डाल सकते हैं। एक अध्ययन में यह जानकारी सामने आयी है। अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि ये नतीजे यह समझने में मदद करते हैं कि कैसे लंबी अवधि के अंतरिक्ष अभियान अंतरिक्ष यात्रियों के स्वास्थ्य पर असर डाल सकते हैं। कनाडा के मैकगिल विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं की अगुवाई में एक दल ने आनुवंशिक प्रौद्योगिकियों का इस्तेमाल कर तीन महीने की अवधि के लिए अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) पर गए चूहे की आंत, मलाशय और यकृत में परिवर्तनों का विश्लेषण किया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा या अन्य अंतरिक्ष एजेंसियों के अंतरराष्ट्रीय सहयोग से स्थापित आईएसएस पृथ्वी की कक्षा में स्थित एक अंतरिक्ष यान है। यह एक विशिष्ट विज्ञान प्रयोगशाला है और अंतरिक्ष में जाने वाले यात्रियों का ‘घर' है। अध्ययन के लेखकों ने आंत के बैक्टीरिया में परिवर्तन पाया जो चूहे के यकृत और आंतों के जीन में बदलावों को दर्शाता है। इससे पता चलता है कि अंतरिक्ष की यात्रा से प्रतिरक्षा प्रणाली पर दबाव पड़ सकता है और चयापचय प्रक्रिया में बदलाव आ सकता है। पत्रिका ‘एनपीजे बायोफिल्म्स एंड माइक्रोबायोम्स' में प्रकाशित अध्ययन में लेखकों ने लिखा, ‘‘ये अंत: क्रियाएं आंत-यकृत अक्ष पर असर डालने वाले संकेतों, चयापचय प्रणाली और प्रतिरक्षा कारकों में व्यवधान का संकेत देती हैं जो ग्लूकोज और लिपिड (वसा) के विनियमन को प्रेरित करने की संभावना रखते हैं।'' अनुसंधानकर्ताओं ने कहा कि अध्ययन के नतीजे सुरक्षा उपायों को विकसित करने और चंद्रमा पर दीर्घकालिक उपस्थिति स्थापित करने से लेकर मंगल ग्रह पर मनुष्यों को भेजने तक भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों की सफलता सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं।
- मैमथ यानी विशालकाय प्राचीन हाथी कैसे खत्म हुए, इस पर विज्ञान जगत में एक राय नहीं है। एक नया शोध बताता है कि उनकी विलुप्ति में सबसे बड़ा हाथ होमो सेपियंस का था।विज्ञान बताता है कि लगभग 20,000 साल पहले, प्राचीन हाथी या मैमथ और उनके रिश्तेदार धरती पर बहुत बड़ी संख्या में मौजूद थे. लेकिन लगभग 10,000 साल पहले, ये पूरी तरह से विलुप्त हो गए। जबकि वे लाखों वर्षों तक पृथ्वी पर जीवित रहे थे। इसकी एक बड़ी वजह जलवायु में हुए परिवर्तन को माना जाता है क्योंकि लगभग 11,000 साल पहले, पृथ्वी पर हिमयुग समाप्त हो गया था, लेकिन एक नए अध्ययन ने पाया है कि धरती का तापमान बढ़ना मैमथ के खत्म होने की मुख्य वजह नहीं था। ‘साइंस अडवांसेज' पत्रिका में प्रकाशित इस नए विश्लेषण के मुताबिक प्रारंभिक प्रोबोसाइडीन यानी हाथी, फर वाले मैमथ और उनके लंबे-नाक वाले रिश्तेदारों के पतन का संबंध इंसानों के आने और बढ़ने से है।स्विट्जरलैंड के फ्राइबर्ग विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकीविद् टॉर्स्टन हॉफे की अगुआई में हुए इस शोध के मुताबिक, "होमो सेपियंस के उदय ने विलुप्ति की दर को तेज कर दिया, जबकि क्षेत्रीय जलवायु का प्रभाव कम था।"शोधकर्ता कहते हैं कि उनका मॉडल पृथ्वी पर जीवन की विविधता को समझने के लिए एक नया दृष्टिकोण देता है। एक प्रजाति का विलुप्त होना अक्सर एक ही कारण का परिणाम नहीं होता, बल्कि कई परिस्थितियों का एक क्रम होता है जो किसी विशिष्ट जीव के जीवित रहने में बाधा डालता है।. जीवन के लिए असहज वातावरण, भोजन की कमी और प्रतिस्पर्धा और अन्य प्रजातियों द्वारा शिकार जैसे कारक मिलकर उस प्रजाति की विलुप्ति का कारण बनते हैं।विज्ञान बता चुका है कि आदिमानवों ने मैमथ का शिकार किया था। कई जगहों पर खुदाइयों में इन विशालकाय हाथियों की हड्डियां मिली हैं जिन पर कटने और मांस छीले जाने के निशान हैं. लेकिन शोधकर्ताओं के बीच इस बात पर एकराय नहीं है कि इस शिकार ने इन जानवरों के विलुप्त होने में कितना योगदान दिया।हॉफे और उनकी टीम ने यह जांचने की कोशिश की कि क्या आधुनिक मानवों के आगमन और मैमथ के पतन के बीच कोई संबंध पाया जा सकता है।कैसे हुआ शोधइसके लिए, उन्होंने एक न्यूरल नेटवर्क का उपयोग किया. उन्होंने एक एल्गोरिदम को प्रशिक्षित किया जो जीवाश्म रिकॉर्ड को स्कैन करता है, प्रोबोसाइडीन प्रजातियों की घटती संख्या को मापता है और इन संख्या को उनके पर्यावरणीय कारकों से मिलाता है।गोल हो गया है इंसान का दिमागमॉडल को 2,118 जीवाश्मों के डेटा पर प्रशिक्षित किया गया जो 3.5 करोड़ से 10,000 साल पहले तक जीवित थे। इनमें उनके दांतों के आकार जैसे रूपात्मक बदलाव शामिल थे। मॉडल ने 17 संभावित कारकों को देखा जो इन जानवरों की जनसंख्या को प्रभावित कर सकते थे। इनमें जलवायु और पर्यावरणीय डेटा तो शामिल था ही। साथ ही आधुनिक मानवों यानी होमो सेपियंस के विकास से भी तुलना की गई। 1,29,000 साल पहले होमो सेपियंस का आगमन हुआ था।शोधकर्ता कहते हैं कि उनका मॉडल पृथ्वी पर जीवन की विविधता को समझने के लिए एक नया दृष्टिकोण देता है। एक प्रजाति का विलुप्त होना अक्सर एक ही कारण का परिणाम नहीं होता, बल्कि कई परिस्थितियों का एक क्रम होता है जो किसी विशिष्ट जीव के जीवित रहने में बाधा डालता है।जीवन के लिए असहज वातावरण, भोजन की कमी और प्रतिस्पर्धा और अन्य प्रजातियों द्वारा शिकार जैसे कारक मिलकर उस प्रजाति की विलुप्ति का कारण बनते हैं।54,000 साल पहले निएंडरथालों के यूरोप में गए थे हमारे पूर्वजइससे शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रोबोसाइडीन की विलुप्ति में इंसान द्वारा शिकार एक बड़ी वजह हो सकता है।. वे लिखते हैं, "हमारा मॉडल, सभी अन्य कारकों का ध्यान रखते हुए मानवों के प्रभाव को अलग करता है।. यह दिखाता है कि आदिमानवों और होमो सेपियंस के कारण अनुमानित 5 से 17 गुना वृद्धि में अन्य कारकों का प्रभाव नहीं है। "शोधकर्ता कहते हैं कि हमने पाया कि पिछले लगभग 1,20,000 वर्षों में इंसान का प्रभाव सबसे अधिक रहा लेकिन शुरुआती मानवों का प्रभाव भी कुछ हद तक रहा है। यह निष्कर्ष उस सिद्धांत को और मजबूत करता है कि इंसान ने जैवविविधता को बड़ी हानि पहुंचाई है।
- नील आंदोलन (1859-60 ) आजादी के पहले अंग्रेजों के खिलाफ चलाए गए प्रमुख आंदोलनों में से एक था। यह मुख्य रूप से किसानों का आंदोलन था।अंग्रेजों के शासनकाल में किसानों का पहला जुझारू एवं संगठित विद्रोह नील विद्रोह था। 1859-60 ई. में बंगाल में हुये इस विद्रोह ने प्रतिरोध की एक मिसाल ही स्थापित कर दी। यूरोपीय बाजारों की मांग की पूर्ति के लिये नील उत्पादकों ने किसानों को नील की अलाभकर खेती के लिये बाध्य किया। जिस उपजाऊ जमीन पर चावल की अच्छी खेती हो सकती थी, उस पर किसानों की निरक्षरता का लाभ उठाकर झूठे करार द्वारा नील की खेती करवायी जाती थी। करार के वक्त मामूली सी रकम अग्रिम के रूप में दी जाती थी और धोखा देकर उसकी कीमत बाजार भाव से कम आंकी जाती थी। और, यदि किसान अग्रिम वापस करके शोषण से मुक्ति पाने का प्रयास भी करता था तो उसे ऐसा नहीं करने दिया जाता था।कालांतर में सत्ता के संरक्षण में पल रहे नील उत्पादकों ने तो करार लिखवाना भी छोड़ दिया और लठैतों को पालकर उनके माध्यम से बलात नील की खेती शुरू कर दी। वे किसानों का अपहरण, अवैध बेदखली, लाठियों से पीटना, उनकी एवं फसलों को जलाने जैसे हथकंडे अपनाने लगे।नील आंदोलन की शुरुआत 1859 के मध्य में बड़े नाटकीय ढंग से हुयी। एक सरकारी आदेश को समझने में भूलकर कलारोवा के डिप्टी मैजिस्ट्रेट ने पुलिस विभाग को यह सुनिश्चित करने का यह आदेश दिया, जिससे किसान अपनी इच्छानुसार भूमि पर उत्पादन कर सकें। बस, शीघ्र ही किसानों ने नील उत्पादन के खिलाफ अर्जियां देनी शुरू कर दी। पर, जब क्रियान्वयन नहीं हुआ तो दिगम्बर विश्वास एवं विष्णु विश्वास के नेतृत्व में नादिया जिले के गोविंदपुर गांव के किसानों ने विद्रोह कर दिया। जब सरकार ने बलपूर्वक युक्तियां अपनाने का प्रयास किया तो किसान भी हिंसा पर उतर आये। इस घटना से प्रेरित होकर आसपास के क्षेत्रों के किसानों ने भी उत्पादकों से अग्रिम लेने, करार करने तथा नील की खेती करने से इंकार कर दिया।बाद में किसानों ने जमींदारों के अधिकारों को चुनौती देते हुये उन्हें लगान अदा करना भी बंद कर दिया। यह स्थिति पैदा होने के पश्चात नील उत्पादकों ने किसानों के खिलाफ मुकदमे दायर करना शुरू कर दिये तथा मुकदमे लडऩे के लिये धन एकत्र करना प्रारंभ कर दिया। बदले में किसानों ने भी नील उत्पादकों की सेवा में लगे लोगों का सामाजिक बहिष्कार प्रारंभ कर दिया। इससे किसान शक्तिशाली होते गये तथा नील उत्पादक अकेले पड़ते गये। बंगाल के बुद्धिजीवियों ने इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उन्होंने किसानों के समर्थन में समाचार-पत्रों में लेख लिखे, जनसभाओं का आयोजन किया तथा उनकी मांगों के संबंध में सरकार को ज्ञापन सौंपे। हरीशचंद्र मुखर्जी के पत्र हिन्दू पैट्रियट ने किसानों का पूर्ण समर्थन किया। दीनबंधु मित्र से नील दर्पण द्वारा गरीब किसानों की दयनीय स्थिति का मार्मिक प्रस्तुतीकरण किया।स्थिति को देखते हुये सरकार ने नील उत्पादन की समस्याओं पर सुझाव देने के लिये नील आयोग का गठन किया। इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने एक अधिसूचना जारी की, जिसमें किसानों को यह आश्वासन दिया गया किउन्हें निल उत्पादन के लिए विवश नहीं किया जाएगा तथा सभी सम्बंधित विवादों को वैधानिक तरीकों से हल किया जाएगा। कोई चारा न देखकर नील उत्पादकों ने बंगाल से अपने कारखाने बंद करने प्रारम्भ कर दिये तथा 1860 तक यह विवाद समाप्त हो गया।
- पर्थ। नासा का डीएआरटी मिशन - दोहरा क्षुद्रग्रह पुनर्निर्देशन परीक्षण - मानवता का पहला वास्तविक दुनिया का ग्रह रक्षा मिशन था। सितंबर 2022 में, डीएआरटी अंतरिक्ष यान पृथ्वी से एक करोड़ 10 लाख किलोमीटर दूर एक छोटे क्षुद्रग्रह के साथी "चंद्रमा" से टकरा गया। इस टक्कर का लक्ष्य यह पता लगाना था कि अगर कोई इस तरह हमारी तरफ आ रहा हो तो क्या हम ऐसी चीजों को बढ़ावा दे सकते हैं। क्षुद्रग्रह के हमारी तरफ बढ़ने और इस तरह के टकराव के बाद बहुत सारे डेटा इकट्ठा करने से, हमें यह भी बेहतर अंदाज़ा मिलेगा कि अगर ऐसा कोई क्षुद्रग्रह पृथ्वी से टकराता है तो हमें क्या होगा। नेचर कम्युनिकेशंस में आज प्रकाशित पांच नए अध्ययनों में डिडिमोस-डिमोर्फोस दोहरे क्षुद्रग्रह प्रणाली की उत्पत्ति को जानने के लिए डीएआरटी और उसके यात्रा मित्र लिसियाक्यूब e से भेजी गई छवियों का उपयोग किया गया है। उन्होंने उस डेटा को अन्य क्षुद्रग्रहों के संदर्भ में भी रखा है।क्षुद्रग्रह प्राकृतिक खतरा हैंहमारा सौर मंडल ऐसे छोटे-छोटे क्षुद्रग्रहों के मलबे से भरा है जो कभी ग्रह नहीं बन पाए। जो सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की कक्षा के करीब आते हैं उन्हें नियर अर्थ ऑब्जेक्ट (एनईओ) कहा जाता है। ये हमारे लिए सबसे बड़ा जोखिम पैदा करते हैं, लेकिन सबसे सुलभ भी हैं। इन प्राकृतिक खतरों से ग्रहों की रक्षा वास्तव में उनकी संरचना को जानने पर निर्भर करती है - न कि केवल वे किस चीज से बने हैं, बल्कि वे एक साथ कैसे रखे गए हैं। क्या वे ठोस वस्तुएं हैं जो मौका मिलने पर हमारे वायुमंडल में घुस जाएंगी, या वे मलबे के ढेर की तरह हैं, जिन्हें बमुश्किल एक साथ रखा जा सकता है? डिडिमोस क्षुद्रग्रह, और इसका छोटा चंद्रमा डिमोर्फोस, एक द्विआधारी क्षुद्रग्रह प्रणाली के रूप में जाना जाता है। वे डीएआरटी मिशन के लिए एकदम सही लक्ष्य थे, क्योंकि टकराव के प्रभावों को डिमोर्फोस की कक्षा में परिवर्तन में आसानी से मापा जा सकता था। वे पृथ्वी के भी करीब हैं, या कम से कम एनईओ हैं। और वे एक बहुत ही सामान्य प्रकार के क्षुद्रग्रह हैं जिन्हें हमने पहले अच्छी तरह से नहीं देखा था। यह भी सीखने का मौका मिला कि द्विआधारी क्षुद्रग्रह कैसे बनते हैं, यह सोने पर सुहागा था। बहुत सी द्विआधारी क्षुद्रग्रह प्रणालियों की खोज की गई है, लेकिन ग्रह वैज्ञानिकों को ठीक से पता नहीं है कि वे कैसे बनते हैं। नए अध्ययनों में से एक में, अमेरिका में जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के ओलिवियर बार्नौइन के नेतृत्व में एक टीम ने सतह के खुरदरापन और क्रेटर रिकॉर्ड को देखकर सिस्टम की उम्र का अनुमान लगाने के लिए डीएआरटी और लिसियाक्यूब की छवियों का उपयोग किया। उन्होंने पाया कि डिडिमोस लगभग एक करोड़ 25 लाख वर्ष पुराना है, जबकि इसका चंद्रमा डिमोर्फोस 300,000 साल से भी कम समय पहले बना था। यह भले बहुत बड़ा लगे, लेकिन यह अपेक्षा से बहुत छोटा है।पत्थरों का ढेरडिमोर्फोस भी कोई ठोस चट्टान नहीं है जैसा कि हम आम तौर पर कल्पना करते हैं। यह पत्थरों का एक मलबे का ढेर है जो मुश्किल से एक साथ बंधे हुए हैं। इसकी कम उम्र के साथ, यह दर्शाता है कि बड़े क्षुद्रग्रहों के टकराव के मद्देनजर इन मलबे के ढेर वाले क्षुद्रग्रहों की कई "पीढ़ियाँ" हो सकती हैं। सूरज की रोशनी वास्तव में क्षुद्रग्रहों जैसे छोटे पिंडों के घूमने का कारण बनती है। जैसे ही डिडिमोस एक लट्टू की तरह घूमने लगा, उसका आकार पिचक गया और बीच में उभर आया। यह बड़े टुकड़ों के मुख्य ढेर से लुढ़कने के लिए पर्याप्त था, कुछ के तो निशान भी छूट गए। इन टुकड़ों ने धीरे-धीरे डिडिमोस के चारों ओर मलबे का एक घेरा बना दिया। समय के साथ, जैसे-जैसे मलबा आपस में चिपकने लगा, इससे छोटे चंद्रमा डिमोर्फोस का निर्माण हुआ। अमेरिका में ऑबर्न विश्वविद्यालय के मौरिज़ियो पाजोला के नेतृत्व में एक अन्य अध्ययन में इसकी पुष्टि के लिए बोल्डर वितरण का उपयोग किया गया। टीम ने यह भी पाया कि मनुष्यों द्वारा देखे गए अन्य गैर-बाइनरी क्षुद्रग्रहों की तुलना में वहां काफी अधिक (पांच गुना तक) बड़े पत्थर थे। एक अन्य नए अध्ययन से हमें पता चलता है कि अब तक जितने भी क्षुद्रग्रह अंतरिक्ष अभियानों (इटोकावा, रयुगु और बेन्नू) पर गए हैं, उन पर पत्थरों का आकार संभवतः एक ही तरह का था। लेकिन डिडिमोस प्रणाली पर बड़े पत्थरों की यह अधिकता बायनेरिज़ की एक अनूठी विशेषता हो सकती है। अंत में, एक अन्य पेपर से पता चलता है कि इस प्रकार के क्षुद्रग्रह में दरार पड़ने की संभावना अधिक होती है। यह दिन और रात के बीच ताप-शीतलन चक्र के कारण होता है: जमने-पिघलने के चक्र की तरह लेकिन पानी के बिना। इसका मतलब यह है कि अगर कोई चीज़ (जैसे अंतरिक्ष यान) इस पर प्रभाव डालती है, तो अंतरिक्ष में बहुत अधिक मलबा गिरेगा। इससे "धक्का" देने की मात्रा भी बढ़ जाएगी। लेकिन इस बात की अच्छी संभावना है कि सतह पर हमे जो दिखाई दे रहा है, सतह के नीचे वह उससे कहीं अधिक मजबूत है। यहीं पर यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का हेरा मिशन कदम रखेगा। यह न केवल डीएआरटी प्रभाव स्थलों की उच्च-रिज़ॉल्यूशन छवियां प्रदान करने में सक्षम होगा, बल्कि कम-आवृत्ति रडार का उपयोग करके क्षुद्रग्रहों के अंदरूनी हिस्सों की जांच करने में भी सक्षम होगा। डीएआरटी मिशन ने न केवल भविष्य के क्षुद्रग्रह प्रभावों से खुद को बचाने की हमारी क्षमता का परीक्षण किया, बल्कि हमें पृथ्वी के पास मलबे के ढेर और बाइनरी क्षुद्रग्रहों के गठन और विकास के बारे में भी बताया।
- बुरंजी असमिया भाषा में लिखी हुईं ऐतिहासिक कृतियाँ हैं। अहोम राज्य सभा के पुरातत्व लेखों का संकलन बुरंजी में हुआ है। प्रथम बुरंजी की रचना असम के प्रथम राजा सुकफा के आदेश पर लिखी गयी, जिन्होंने 1228 ई में असम राज्य की स्थापना की। आरंभ में अहोम भाषा में इनकी रचना होती थी, कालांतर में असमिया भाषा इन ऐतिहासिक लेखों की माध्यम हुई। इसमें राज्य की प्रमुख घटनाओं, युद्ध, संधि, राज्यघोषणा, राजदूत तथा राज्यपालों के विविध कार्य, शिष्टमंडल का आदान प्रदान आदि का उल्लेख प्राप्त होता है। राजा तथा मंत्री के दैनिक कार्यों के विवरण पर भी प्रकाश डाला गया है।असम में इनके अनेक वृहदाकार खंड प्राप्त हुए हैं। राजा अथवा राज्य के उच्चपदस्थ अधिकारी के निर्देशानुसार शासनतंत्र से पूर्ण परिचित विद्वान् अथवा शासन के योग्य पदाधिकारी इनकी रचना करते थे। घटनाओं का चित्रण सरल एवं स्पष्ट भाषा में किया गया है; इन कृतियों की भाषा में अलंकारिकता का अभाव है। सोलहवीं शती के आरंभ से उन्नीसवीं शती के अंत तक इनका आलेखन होता रहा।बुरंजी राष्ट्रीय असमिया साहित्य का अभिन्न अंग हैं। गदाधर सिंह के राजत्वकाल में पुरनि असम बुरंजी का निर्माण हुआ जिसका संपादन हेमचंद्र गोस्वामी ने किया है। पूर्वी असम की भाषा में इन बुरंजियों की रचना हुई है।बुरंजी मूलत: एक टाइ शब्द है, जिसका अर्थ है "अज्ञात कथाओं का भांडार"। इन बुरंजियों के माध्यम से असम प्रदेश के मध्य काल का काफी व्यवस्थित इतिहास उपलब्ध है। बुरंजी साहित्य के अंतर्गत कामरूप बुरंजी, कछारी बुरंजी, आहोम बुरंजी, जयंतीय बुंरजी, बेलियार बुरंजी के नाम अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्ध हैं। इन बुरंजी ग्रंथों के अतिरिक्त राजवंशों की विस्तृत वंशावलियाँ भी इस काल में हुई।आहोम राजाओं के असम में स्थापित हो जाने पर उनके आश्रय में रचित साहित्य की प्रेरक प्रवृत्ति धार्मिक न होकर लौकिक हो गई। राजाओं का यशवर्णन इस काल के कवियों का एक प्रमुख कर्तव्य हो गया।वैसे भी अहोम राजाओं में इतिहास लेखन की परंपरा पहले से ही चली आती थी। कवियों की यशवर्णन की प्रवृत्ति को आश्रयदाता राजाओं ने इस ओर मोड़ दिया।पहले तो अहोम भाषा के इतिहास ग्रंथों (बुरंजियों) का अनुवाद असमिया में किया गया और फिर मौलिक रूप से बुरंजियों का सृजन होने लगा।
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क्या आप जानते हैं कि एक कीड़े की कीमत 75 लाख रुपये हो सकती है? जी हाँ, 'स्टैग बीटल' (Stag Beetle) दुनिया के सबसे महंगे कीड़ों में से एक है। तो, क्या बात है जो इसे इतना ख़ास बनाती है? स्टैग बीटल महंगा है क्योंकि यह काफ़ी दुर्लभ है और इसे शुभ माना जाता है। कुछ लोग मानते हैं कि स्टैग बीटल रखने से रातों-रात अमीर बना जा सकता है। यह कीड़े "जंगल पारिस्थितिक तंत्र में एक महत्वपूर्ण सैप्रोक्सिलिक सभा का प्रतिनिधित्व करते हैं और अपने बड़े मैंडिबल्स और पुरुष बहुरूपदर्शिता के लिए जाने जाते हैं। " वैज्ञानिक डेटा जर्नल में हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में लिखा गया है। लंदन स्थित नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के अनुसार, ये कीड़े 2-6 ग्राम के बीच का वज़न होते हैं और उनका औसत जीवनकाल 3-7 साल होता है। जबकि नर 35-75 mm लंबे होते हैं, मादा 30-50mm लंबी होती हैं। इनका इस्तेमाल औषधीय उद्देश्यों के लिए भी किया जाता है स्टैग बीटल नाम नर बीटल पर पाए जाने वाले विशिष्ट मैंडिबल्स से लिया गया है, जो हिरण के सींग से मिलते-जुलते हैं.। नर स्टैग बीटल अपने विशिष्ट, सींग जैसे जबड़ों का इस्तेमाल एक दूसरे से लड़ने के लिए करते हैं। ताकि प्रजनन के मौसम में मादा से मिलन का मौका मिल सके।
ये कहां पाए जाते हैं?स्टैग बीटल गर्म, उष्णकटिबंधीय वातावरण में पनपते हैं और ठंडे तापमान के प्रति संवेदनशील होते हैं.। वे स्वाभाविक रूप से वन में रहते हैं, लेकिन हेजरो, पारंपरिक बागों और शहरी क्षेत्रों जैसे पार्कों और बागानों में भी पाए जा सकते हैं, जहां मृत लकड़ी बहुत ज़्यादा होती है।वे क्या खाते हैं?वयस्क स्टैग बीटल मुख्य रूप से मीठे तरल पदार्थ जैसे पेड़ का रस और सड़ते फलों का रस खाते हैं।. वे मुख्य रूप से अपने लार्वा अवस्था के दौरान एकत्र की गई ऊर्जा भंडार पर निर्भर रहते हैं, जो उनके पूरे वयस्क जीवन में उनका पोषण करता है.। स्टैग बीटल के लार्वा मृत लकड़ी खाते हैं। अपने तेज़ जबड़ों का इस्तेमाल करके रेशेदार सतह से छीलन निकालते हैं.।चूंकि वे सिर्फ़ मृत लकड़ी खाते हैं, इसलिए स्टैग बीटल ज़िंदा पेड़ों या झाड़ियों के लिए कोई खतरा नहीं होते, जिससे वे स्वास्थ्य वनस्पतियों के लिए हानिकारक नहीं होते। - वैदिक धर्म पूर्णत: प्रतिमार्गी हैं वैदिक देवताओं में पुरुष भाव की प्रधानता है। अधिकांश देवताओं की आराधना मानव के रूप में की जाती थी किन्तु कुछ देवताओं की आराधना पशु के रुप में की जाती थी। ऋग्वैदिक आर्यो की देवमण्डली तीन भागों में विभाजित थी।आकाश के देवता - सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत, आदिंत्यगग, अश्विनद्वय आदि।अंतरिक्ष के देवता- इन्द्र, मरुत, रुद्र, वायु, पर्जन्य, मातरिश्वन, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहिर्बुघ्न्य।पृथ्वी के देवता- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, तथा नदियां।ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय इन्द का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है, ऋग्वेद के कऱीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्हें वर्षा का देवता माना जाता था। उन्होंने वृक्ष राक्षस को मारा था इसीलिए उन्हे वृत्रहन कहा जाता है। अनेक किलों को नष्ट कर दिया था, इस रूप में वे पुरन्दर कहे जाते हैं। इन्द्र ने वृत्र की हत्या करके जल का मुक्त करते हैं इसलिए उन्हे पुर्मिद कहा गया। इन्द्र के लिए एक विशेषण अन्सुजीत (पानी को जीतने वाला) भी आता है। इन्द्र के पिता द्योंस हैं अग्नि उसका यमज भाई है और मरुत उसका सहयोगी है। विष्णु के वृत्र के वध में इन्द्र की सहायता की थी। ऋग्वेद में इन्द्र को समस्त संसार का स्वामी बताया गया है। उसका प्रिय आयुद्ध बज्र है इसलिए उन्हे ब्रजबाहू भी कहा गया है। इन्द्र कुशल रथ-योद्धा (रथेष्ठ), महान विजेता (विजेन्द्र) और सोम का पालन करने वाला (सोमपा) है। इन्द्र तूफ़ान और मेध के भी देवता है । एक शक्तिशाली देवता होने के कारण इन्द्र का शतक्रतु (एक सौ शक्ति धारण करने वाला) कहा गया है वृत्र का वध करने का कारण वृत्रहन और मधवन (दानशील) के रूप में जाना जाता है। उनकी पत्नी इन्द्राणी अथवा शची (ऊर्जा) हैं।ऋग्वेद में दूसरे महत्वपूर्ण देवता अग्नि थे, जिनका काम था मनुष्य और देवता के मध्य मध्यस्थ की भूमिका निभाना। अग्नि के द्वारा ही देवताओं आहुतियां दी जाती थीं। ऋग्वेद में कऱीब 200 सूक्तों में अग्नि का जि़क्र किया गया है। वे पुरोहितों के भी देवता थे। उनका मूल निवास स्वर्ग है। किन्तु मातरिश्वन (देवता) ने उसे पृथ्वी पर लाया। पृथ्वी पर यज्ञ वेदी में अग्नि की स्थापना भृगुओं एवं अंगीरसों ने की। इस कार्य के कारण उन्हें अथर्वन कहा गया है। वह प्रत्येक घर में प्रज्वलित होती थी इस कारण उसे प्रत्येक घर का अतिथि माना गया है। तीसरा स्थान वरुण का माना जाता है, जिसे समुद्र का देवता, विश्व के नियामक और शासक सत्य का प्रतीक, ऋतुु परिवर्तन एवं दिन-रात का कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य का निर्माता के रूप में जाना जाता है। ईरान में इन्हें अहुरमज्द तथा यूनान में यूरेनस के नाम से जाना जाता है। ये ऋतु के संरक्षक थे इसलिए इन्हें ऋत्स्यगोप भी कहा जाता था। वरुण के साथ मित्र का भी उल्लेख है इन दोनों को मिलाकर मित्र वरूण कहते हैं। ऋग्वेद के मित्र और वरुण के साथ आप का भी उल्लेख किया गया है। आप का अर्थ जल होता है। ऋग्वेद के मित्र और वरुण का सहस्र स्तम्भों वाले भवन में निवास करने का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में वरुण को वायु का सांस कहा गया है। इनकी स्तुति लगभग 30 सूक्तियों में की गयी है। देवताओं के तीन वर्गों (पृथ्वी स्थान, वायु स्थान और आकाश स्थान) में वरुण का सर्वोच्च स्थान है। ऋग्वेद का 7 वां मण्डल वरुण देवता को समर्पित है।
- आल्हाखण्ड लोककवि जगनिक द्वारा लिखित एक वीर रस प्रधान काव्य हैं जो परमाल रासो का एक खण्ड माना जाता है। आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं।आल्हाखण्ड में महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों- आल्हा और ऊदल (उदय सिंह) का विस्तृत वर्णन है। कई शताब्दियों तक मौखिक रूप में चलते रहने के कारण उसके वर्तमान रूप में जगनिक की मूल रचना खो-सी गयी है, किन्तु अनुमानत: उसका मूल रूप तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी तक तैयार हो चुका था। आरम्भ में वह वीर रस-प्रधान एक लघु लोकगाथा (बैलेड) रही होगी, जिसमें और भी परिवद्र्धन होने पर उसका रूप गाथाचक्र (बैलेड साइकिल) के समान हो गया, जो कालान्तर में एक लोक महाकाव्य के रूप में विकसित हो गया।पृथ्वीराजरासो के सभी गुण-दोष आल्हाखण्ड में भी वर्तमान हैं, दोनों में अन्तर केवल इतना है कि एक का विकास दरबारी वातावरण में शिष्ट, शिक्षित-वर्ग के बीच हुआ और दूसरे का अशिक्षित ग्रामीण जनता के बीच। आल्हाखण्ड पर अलंकृत महाकाव्यों की शैली का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई पड़ता। शब्द-चयन, अलंकार विधान, उक्ति-वैचित्र्य, कम शब्दों में अधिक भाव भरने की प्रवृत्ति प्रसंग-गर्भत्व तथा अन्य काव्य-रूढिय़ों और काव्य-कौशल का दर्शन उसमें बिलकुल नहीं होता। इसके विपरीत उसमें सरल स्वाभाविक ढंग से, सफ़ाई के साथ कथा कहने की प्रवृत्ति मिलती है, किन्तु साथ ही उसमें ओजस्विता और शक्तिमत्ता का इतना अदम्य वेग मिलता है, जो पाठक अथवा श्रोता को झकझोर देता है और उसकी सूखी नसों में भी उष्ण रक्त का संचार कर साहस, उमंग और उत्साह से भर देता है। उसमें वीर रस की इतनी गहरी और तीव्र व्यंजना हुई है और उसके चरित्रों को वीरता और आत्मोत्सर्ग की उस ऊँची भूमि पर उपस्थित किया गया है कि उसके कारण देश और काल की सीमा पार कर समाज की अजस्त्र जीवनधारा से आल्हखण्ड की रसधारा मिलकर एक हो गयी है।
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नॉर्मन गार्डन्स (ऑस्ट्रेलिया). ‘बैलरैट क्लेरेंडन कॉलेज' ने पिछले महीने पांचवीं से नौवीं कक्षा के छात्रों के लिए कक्षा में पानी की बोतलों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाकर एक परीक्षण किया। स्कूल के अनुसार, ‘‘प्रारंभिक प्रतिक्रिया'' से संकेत मिलता है कि ऐसा करने से कक्षा के दौरान शोर कम हुआ और शौचालय जाने के लिए छात्रों के ‘ब्रेक' लेने में कमी आई। पानी की बोतलें अब स्कूल के लिए जरूरी मानी जाती हैं लेकिन सवाल यह है कि बच्चों को एक दिन में कितना पानी पीने की जरूरत होती है? इसका उनके दिमाग पर क्या असर पड़ता है? बच्चों और किशोरों को कितने तरल पदार्थ की जरूरत होती है? यह मौसम और शारीरिक गतिविधियों पर निर्भर करता है कि बच्चों को कितने तरल पदार्थ की जरूरत है लेकिन सामान्य तौर पर: चार से आठ साल के बच्चों को प्रतिदिन लगभग 1.2 लीटर पानी पीना चाहिए।
नौ से 13 साल के लड़कों को 1.6 लीटर पानी पीना चाहिए।
नौ से 13 साल की लड़कियों को 1.4 लीटर पानी पीना चाहिए।
चौदह साल से अधिक उम्र के लड़कों को 1.9 लीटर पानी पीना चाहिए।
चौदह साल से अधिक उम्र की लड़कियों को 1.6 लीटर पानी पीना चाहिए।
आहार संबंधी ऑस्ट्रेलियाई दिशा-निर्देशों के अनुसार, सादा पानी पीना बेहतर होता है लेकिन यदि आपका बच्चा पानी पीना पसंद नहीं करता है, तो आप जूस की कुछ बूंदें इसमें मिला सकते है। शोध से पता चलता है कि कई स्कूली बच्चे पर्याप्त पानी नहीं पीते। कुल 13 देशों (ऑस्ट्रेलिया को छोड़कर) के 6,469 बच्चों (चार से 17 वर्ष की आयु वर्ग) को शामिल कर 2017 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 60 प्रतिशत बच्चे और 75 प्रतिशत किशोर पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थों का सेवन नहीं करते। हमें कितनी बार पानी पीना चाहिए?
इस बारे में कोई विशेष सलाह नहीं दी गई है कि बच्चों और किशोरों को कितनी बार पानी पीना चाहिए लेकिन शोध से मुख्य रूप से यह संदेश मिलता है कि छात्रों को सुबह उठते ही पानी पीना चाहिए। सुबह, सबसे पहले पानी पीने से शरीर और मस्तिष्क पानी का समुचित उपयोग करते हैं, जिससे पूरे दिन हमारा दिमाग बेहतर तरीके से काम करता है। हमारे मस्तिष्क के लिए पानी इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
मस्तिष्क के कुल द्रव्यमान का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा पानी है और हमारे दिमाग को काम करते रहने के लिए पानी की आवश्यकता होती है। पानी हार्मोन के स्तर को संतुलित करने, उचित रक्त प्रवाह बनाए रखने और मस्तिष्क में विटामिन, खनिज एवं ऑक्सीजन पहुंचाने में मस्तिष्क की कोशिकाओं और ऊतकों की मदद करता है। इसलिए यदि छात्रों को पर्याप्त मात्रा में पानी पिलाया जाए तो इससे उनकी एकाग्रता बढ़ती है।
पानी पढ़ाई में कैसे मददगार है?
जर्मनी के पांच और छह साल के बच्चों पर 2020 में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि जिन बच्चों ने सुबह चार घंटे की अवधि में पानी की अपनी दैनिक आवश्यकता का कम से कम 50 प्रतिशत (लगभग एक लीटर) पानी पिया, उनका दिमाग समग्र रूप से बेहतर कार्य करता है। बच्चों की दिनचर्या में पानी शामिल करें
नियमित समय पर पानी पीने से बच्चों और युवाओं के लिए नियमित दिनचर्या बनाने में भी मदद मिल सकती है। नियमित दिनचर्या ध्यान, भावनाओं और व्यवहार को प्रबंधित करने का एक महत्वपूर्ण तरीका है। ऐसा जरूरी नहीं है कि पानी पीने के लिए ‘ब्रेक' कक्षा के दौरान ही दिया जाए (खासकर अगर स्कूल को लगता है कि इससे पढ़ाई में बाधा पैदा होती है)। बच्चों के जागने पर, भोजन के समय, बच्चों के स्कूल पहुंचने पर, कक्षाओं की शुरुआत या समाप्ति पर और घर पहुंचने पर पानी पीना मददगार होगा। -
नयी दिल्ली. व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल होने वाली ‘ओजेम्पिक' और ‘वेगोवी' जैसी मधुमेह और वजन घटाने की दवाओं से पेट के पक्षाघात का खतरा बढ़ सकता है। नए अध्ययनों के निष्कर्ष से यह जानकारी मिली है। पेट का पक्षाघात यानी ‘गैस्ट्रोपैरेसिस' पेट की मांसपेशियों को कमजोर कर देता है, जिससे भोजन मुख्य पाचन अंग में लंबे समय तक पड़ा रहता है। ‘वेगोवी' वजन प्रबंधन के लिए अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा अनुमोदित दवा है और ‘ओजेम्पिक' ‘टाइप 2' मधुमेह के रोगियों में रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल की जाती है। मधुमेह के मरीजों को दी जाने वाली दवाओं और वजन घटाने के लिए दी जाने वाली दवाओं से मतली, उल्टी और दस्त जैसे ‘गैस्ट्रोइन्टेस्टनल' (जठरांत्र) से जुड़े दुष्प्रभाव के खतरे के बारे में सभी को जानकारी है लेकिन नए अध्ययन में पता चला है कि इनसे पेट के पक्षाघात, ‘इलियस' (आंत का सिकुड़कर अपशिष्ट को शरीर के बाहर ना निकाल पाना) और ‘पैन्क्रियाटाइटिस' (अग्नाशय में सूजन) का खतरे बढ़ने का भी पता चला है। ये अध्ययन 18 से 21 मई तक अमेरिका के वाशिंगटन डीसी में आयोजित सम्मेलन ‘पाचन रोग सप्ताह 2024' में पेश किए गए। ‘कन्सास' यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं सहित कई शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इन अध्ययनों में से एक अध्ययन ने मधुमेह या मोटापे से पीड़ित ऐसे 1.85 लाख रोगियों की पहचान की, जिन्हें एक दिसंबर 2021 से 30 नवंबर 2022 के बीच ये दवाएं दी गई थीं। शोधकर्ताओं ने पाया कि लगभग 0.53 प्रतिशत रोगियों में ‘गैस्ट्रोपैरेसिस' की समस्या पाई गई और उन्होंने अनुमान जताया है कि इस स्थिति का खतरा 66 प्रतिशत बढ़ गया है। एक अन्य अध्ययन में टाइप 2 मधुमेह की दवाएं लेने वाले रोगियों में ‘गैस्ट्रोपैरेसिस' के जोखिम का आकलन किया गया और उनमें इसका खतरा बढ़ने की पुष्टि हुई। ‘मायो क्लिनिक मिनेसोटा' के शोधकर्ताओं के एक अन्य अध्ययन में भी यही बात साबित हुई।
- हाइपरटेंशन या हाई ब्लड प्रेशर देखने में भले ही आम लगे, लेकिन वास्तव में यह एक गंभीर समस्या है, जिसे नजरअंदाज करना सेहत से जुड़ी कई गंभीर समस्याओं का कारण भी बन सकती है। हाइपरटेंशन कई बार हार्ट अटैक और स्ट्रोक का भी कारण बन सकता है। हर साल 17 मई को विश्व हाइपरटेंशन दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने के पीछे का मकसद लोगों में हाइपरटेंशन के प्रति जागरुकता फैलाना होता है। इस दिवस पर जगह-जगह कैंप लगाकर लोगों को जागरुक किया जाता है।विश्व हाइपरटेंशन दिवस का इतिहासहर साल 17 मई को विश्वभर में विश्व हाइपरटेंशन दिवस मनाया जाता है। इस दिवस की शुरुआत वर्ल्ड हाइपरटेंशन लीग (WHL) द्वारा 14 मई 2005 को की गई थी। आगे चलकर इस दिवस को 17 मई को मनाया जाने लगा। हर साल हाइपरटेंशन के बढ़ते मामलों को देखकर यह दिवस मनाया जाने लगा, जिससे लोगों में हाई बीपी की रोकथाम होने के साथ ही इसे बढ़ने से भी रोका जा सके। खराब लाइफस्टाइल और अनियंत्रित जीवनशैली के चलते यह समस्या लोगों में बढ़ती जा रही है। आंकड़ों की मानें तो हाई ब्लड प्रेशर के चलते हर साल दुनियाभर में 7.5 मिलियन लोगों की मौत होती है।विश्व हाइपरटेंशन दिवस मनाने का उद्देश्यविश्व हाइपरटेंशन दिवस मनाने के पीछे का उद्देश्य या फिर मकसद लोगों को हाइपरटेंशन से मुक्त करना है। इस दिन दुनियाभर में अलग-अलग जगहों पर सेमिनार और इवेंट्स आयोजित करके लोगों को हाइपरटेंशन से जीतने का हौंसला दिया जाता है। इस दिवस को मनाकर लोगों का हौंसला उफजाई किया जाता है। इस दिन लोगों को हाइपरटेंशन के कारण, लक्षण और इससे बचने के तरीकों के बारे में बताया जाता है। जिससे लोग अपना लाइफस्टाइल ठीक करके इस बीमारी से बचे रहें।विश्व हाइपरटेंशन दिवस की थीमविश्व हाइपरटेंशन दिवस की इस साल की थीम Measure Your Blood Pressure Accurately, Control It, and Live Longer है। इस थीम से यह समझ आता है कि ब्लड प्रेशर को सटीकता के साथ कंट्रोल किया जाना चाहिए। इसे कंट्रोल करके आप लंबे समय तक सामान्य रूप से अपना जीवन यापन कर सकते हैं। हाई बीपी के लक्षण दिखने पर इसे नजरअंदाज नहीं करें।
- नयी दिल्ली. वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) ने एक अनूठी पहल ‘‘रिंकल्स अच्छे हैं'' के तहत हर सोमवार को अपने कर्मचारियों को बिना इस्त्री किए हुए कपड़े पहनने के लिए कहा है जिससे कि करीब 1,25,000 किलोग्राम कार्बन उत्सर्जन से बचा जा सकता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) बंबई के प्रोफेसर चेतन सिंह सोलंकी ने यह जानकारी दी।हालांकि,सीएसआईआर ने स्पष्ट किया कि उसके मुख्यालय ने अपनी प्रयोगशालाओं को ऐसा कोई सुर्कलर या आदेश जारी नहीं किया गया है जिसमें कर्मचारियों को इस्त्री किए हुए कपड़े पहनने से बचने को कहा गया हो। सीएसआईआर ने एक पोस्ट में कहा, ‘‘23 अप्रैल 2024 को पृथ्वी दिवस समारोह के दौरान आईआईटी-बंबई के प्रोफेसर चेतन सोलंकी ने सीएसआईआर-मुख्यालय में जलवायु घड़ी स्थापित करने के बाद अपने भाषण में ऐसे विचार साझा किए थे।'' ‘रिंकल्स अच्छे है' पहल का उद्देश्य हर किसी को ऊर्जा बचाने, पर्यावरण की रक्षा करने और जलवायु परिवर्तन के बारे में जागरूकता फैलाने के बारे में याद दिलाना है। ‘एनर्जी स्वराज मूवमेंट' के संस्थापक चेतन सिंह सोलंकी ने कहा, ‘‘हम हर सोमवार को करीब 1,25,000 किग्रा. कार्बन उत्सर्जन कम कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के सबसे आसान समाधानों में से एक ‘कुछ न करना' है।'' उन्होंने कहा, ‘‘हमारा ‘रिंकल्स अच्छे हैं' (डब्ल्यूएएच/वाह) अभियान जोर पकड़ रह है। इसमें हम लोगों से सोमवार को बिना इस्त्री किए हुए कपड़े पहनने के लिए कह रहे हैं।'' उन्होंने कहा कि एक जोड़ी कपड़ा इस्त्री न करके हम 200 ग्राम तक कार्बन उत्सर्जन से बच सकते हैं।सोलंकी ने कहा, ‘‘हम लाखों लोग एक जैसा करते हैं तो बड़ी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन से बचते हैं और यह चलन बन जाता है। अभी हर सोमवार को 6,25,000 लोग इसमें शामिल हो रहे हैं। हम हर सोमवार को करीब 1,25,000 किग्रा. कार्बन उत्सर्जन से बच रहे हैं। मैं उम्मीद करता हूं कि इस वर्ष के अंत तक एक करोड़ से अधिक लोग इस ‘वाह' मंडे अभियान में शामिल होंगे।'' एक अधिकारी ने बताया कि सीएसआईआर अपनी सभी प्रयोगशालाओं में 10 फीसदी तक बिजली खपत को कम करने की भी योजना बना रहा है। प्रोफेसर सोलंकी ने हाल ही में जलवायु परिवर्तन और उसके दुष्प्रभावों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए सीएसआईआर इमारत के शीर्ष पर भारत की सबसे बड़ी जलवायु घड़ी स्थापित की है।
- बेंगलुरु. एक अध्ययन में पता चला है कि चंद्रमा के ध्रुवीय गड्ढों में बर्फ के रूप में पानी की अधिक मात्रा हो सकती है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने यह जानकारी दी। इसरो ने एक विज्ञप्ति में बताया कि यह अध्ययन अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र (एसएसी)/इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर, दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, जेट प्रोपल्शन प्रयोगशाला और आईआईटी (आईएसएम) धनबाद के शोधकर्ताओं के सहयोग से किया गया। विज्ञप्ति के मुताबिक हाल के अध्ययन से पता चलता है कि पहले कुछ मीटर में उपसतह बर्फ की मात्रा दोनों ध्रुवों की सतह पर मौजूद बर्फ की तुलना में लगभग पांच से आठ गुना अधिक है। अंतरिक्ष एजेंसी ने बताया कि ऐसे में बर्फ का नमूना लेने या दोहन करने के लिए चंद्रमा पर खुदाई भविष्य के मिशन और दीर्घकालिक मानव उपस्थिति के लिए अहम होगी। विज्ञप्ति के मुताबिक, ‘‘इसके अलावा अध्ययन से यह भी पता चलता है कि उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्र में बर्फ के रूप में पानी की मात्रा दक्षिणी ध्रुवीय क्षेत्र की तुलना में दोगुनी है।'' इसमें कहा गया कि इस बर्फ की उत्पत्ति के लिए अध्ययन इस परिकल्पना की पुष्टि करता है कि चंद्रमा के ध्रुवों में उपसतह जल बर्फ का प्राथमिक स्रोत इम्ब्रियन काल में ज्वालामुखी के दौरान निकलने वाली गैस है।
- ब्रह्म पुराण' गणना की दृष्टि से सर्वप्रथम गिना जाता है। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि यह प्राचीनतम है। काल की दृष्टि से इसकी रचना बहुत बाद में हुई है। इस पुराण में साकार ब्रह्म की उपासना का विधान है। इसमें 'ब्रह्म' को सर्वोपरि माना गया है। इसीलिए इस पुराण को प्रथम स्थान दिया गया है। कर्मकाण्ड के बढ़ जाने से जो विकृतियां तत्कालीन समाज में फैल गई थीं, उनका विस्तृत वर्णन भी इस पुराण में मिलता है। यह समस्त विश्व ब्रह्म की इच्छा का ही परिणाम है। इसीलिए उसकी पूजा सर्वप्रथम की जाती है।ब्रह्म पुराण सब पुराणों में प्रथम और धर्म अर्थ काम और मोक्ष को प्रदान करने वाला है,इसके अन्दर नाना प्रकार के आख्यान है।देवता दानव और प्रजापतियों की उत्पत्ति इसी पुराण में बताई गई है। लोकेश्वर भगवान सूर्य के पुण्यमय वंश का वर्णन किया गया है,जो महापातकों के नाश को करने वाला है। इसमें ही भगवान रामचन्द्र के अवतार की कथा है। सूर्य वंश के साथ चन्द्रवंश का वर्णन किया गया है। श्रीकृष्ण भगवान की कथा का विस्तार इसी में है। पाताल और स्वर्ग लोक का वर्णन नरकों का विवरण सूर्यदेव की स्तुति कथा और पार्वती जी के जन्म की कथा का उल्लेख लिखा गया है। दक्ष प्रजापति की कथा और एकाम्रक क्षेत्र का वर्णन है। पुरुषोत्तम क्षेत्र का विस्तार के साथ किया गया है,इसी में श्रीकृष्ण चरित्र का विस्तारपूर्वक लिखा गया है। यमलोक का विवरण पितरों का श्राद्ध और उसका विवरण भी इसी पुराण में बताया गया है। वर्णों और आश्रमों का विवेचन भी इसमें मिलता है। इसके अलावा इसमें योगों का निरूपण, सांख्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन, ब्रह्मवाद का दिग्दर्शन और पुराण की प्रशंसा की गई है। इस पुराण के दो भाग हैं।इस जगत् का प्रत्यक्ष जीवनदाता और कर्त्ता-धर्त्ता 'सूर्य' को माना गया है। इसलिए सर्वप्रथम सूर्य नारायण की उपासना इस पुराण में की गई है। सूर्य वंश का वर्णन भी इस पुराण में विस्तार से है। सूर्य भगवान की उपसना-महिमा इसका प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है।सम्पूर्ण 'ब्रह्म पुराण' में दो सौ छियालीस अध्याय हैं। इसकी श्लोक संख्या लगभग चौदह हज़ार है। इस पुराण की कथा लोमहर्षण सूत जी एवं शौनक ऋषियों के संवाद के माध्यम से वर्णित है। 'सूर्य वंश' के वर्णन के उपरान्त 'चन्द्र वंश' का विस्तार से वर्णन है। इसमें श्रीकृष्ण के अलौकिक चरित्र का विशेष महत्त्व दर्शाया गया है। यहीं पर जम्बू द्वीप तथा अन्य द्वीपों के वर्णन के साथ-साथ भारतवर्ष की महिमा का विवरण भी प्राप्त होता है। भारतवर्ष के वर्णन में भारत के महत्त्वपूर्ण तीर्थों का उल्लेख भी इस पुराण में किया गया है। इसमें 'शिव-पार्वती' आख्यान और 'श्री कृष्ण चरित्र' का वर्णन भी विस्तारपूर्वक है। 'वराह अवतार ','नृसिंह अवतार' एवं 'वामन अवतार' आदि अवतारों का वर्णन स्थान-स्थान पर किया गया है।सूर्यदेव का प्रमुख मन्दिर उड़ीसा के कोणार्क स्थान पर है। उसका परिचय भी इस पुराण में दिया गया है। उस मन्दिर के बारे में लिखा है-"भारतवर्ष में दक्षिण सागर के निकट 'औड्र देश' (उड़ीसा) है, जो स्वर्ग और मोक्ष- दोनों को प्रदान करने वाला है। वह समस्त गुणों से युक्त पवित्र देश है। उस देश में उत्पन्न होने वाले ब्राह्मण सदैव वन्दनीय हैं। उसी प्रदेश में 'कोणादित्य' नामक भगवान सूर्य का एक भव्य मन्दिर स्थित है। इसमें सूर्य भगवान के दर्शन करके मनुष्य सभी पापों से छुटकारा पा जाता है। यह भोग और मोक्ष- दोनों को देने वाला है। माघ शुक्ल सप्तमी के दिन सूर्य भगवान की उपासना का विशेष पर्व यहाँ होता है। रात्रि बीत जाने पर प्रात:काल सागर में स्नान करके देव, ऋषि तथा मनुष्यों को भली-भांति तर्पण करना चाहिए। नवीन शुद्ध वस्त्र धारण कर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके, ताम्रपात्र अथवा अर्क पत्रों से बने दोने में तिल, अक्षत, जलीय रक्त चन्दन, लाल पुष्प और दर्पण रखकर सूर्य भगवान की पूजा करें।"
- कुछ सबसे पसंदीदा पेट्स में से एक खरगोश भी होते हैं. लोग इन्हें पसंद भी खूब करते हैं और छोटे होने की वजह से इन्हें पालना भी बेहद आसान होता है. लोग इन्हें हाथों में लेकर खूब प्यार और दुलार करते हैं क्योंकि इनका वज़न भी कम होता है. हालांकि आज हम आपको जिस खरगोश से मिलवाने जा रहे हैं, वो न तो छोटा है, न ही हल्का बल्कि ये घर में पले तो आपको डॉग्स की तरह इसके लिए इंतज़ाम करना पड़ेगा.एक ऐसे खरगोश का वीडियो वायरल हो रहा है, जो देखने में किसी डॉग जितना लंबा चौड़ा है. इतना ही नहीं इसका वज़न इतना ज्यादा होता है कि इसे उठाना बच्चों का खेल नहीं होता. ये बेल्जियम की एक खरगोश (Belgium rabbits) की प्रजाति है, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा खरगोश (World’s Largest Breed of Rabbit) माना जाता है. अगर इसे किसी डॉग के साथ बिठाया जाए, तो फर्क करना ही मुश्किल हो जाएगा.डील-डौल में खरगोशों से अलगफ्लैमिश जाएंट बेल्जियम नाम के इस खरगोश का एक वीडियो इस वक्त वायरल हो रहा है, जिसमें एक शख्स इसे लेकर खड़ा है. आप देख सकते हैं कि खरगोश को हाथ में लेने में वो थका जा रहा है क्योंकि इनका वज़न 22 किलोग्राम तक हो सकता है. इनकी लंबाई 2 फीट से लेकर 4 फीट तक भी हो सकती है. फिलहाल शख्स के हाथ में ढाई फीट का खरगोश है. ये दिखने में भले ही भड़कीले हों, लेकिन पालने के लिहाज से ये काफी शांत और सौम्य होते हैं. जिसने भी वीडियो में इस भारी-भरकम खरगोश को देखा, वो हैरान रह गया.16वीं सदी से पाले जा रहे हैं ये खरगोशइन बड़े खरगोशों की डाइट भी दूसरे और छोटे खरगोशों की तुलना में ज्यादा होती है. अगर आप सोच रहे हैं कि ये कोई नई ब्रीड हैं, तो ऐसा नहीं है, रिपोर्ट की मानें तो इन जीवों के मिलने का दावा 16वीं सदी से किया जा रहा है. माना जाता है कि ये बेल्जियन स्टोन रैबिट से विकसित हुए हैं. इन्हें ज्यादातर फर और मांस के लिए पाला जाता है लेकिन ये काफी फ्रेंडली होते हैं. पालतू जानवर के तौर पर इन्हें अच्छा माना जाता है.
- बुरहानपुर. मुगल काल में राजा-महाराजा ऐसी वस्तुओं का इस्तेमाल करते थे, जिससे उनको कोई मार न सके. उस दौरान ऐसी तकनीक इस्तेमाल होता था, जो आज शायद ही कहीं देखने को मिले. ऐसा ही एक गिलास था, जो जहर पहचान सकता था. यह गिलास कासा-कांच से बनाया जाता था.इस गिलास में चारों ओर से कासा होता था और अंदर कांच लगा होता था. यह कांच जहर को पहचान लेता था. अगर कोई पानी या किसी पेय पदार्थ में जहर मिलाकर देता था तो ये गिलास साजिश का पर्दाफाश कर देता था. मुगल काल की इस निशानी को आज भी बुरहानपुर में संग्रहकर्ताओं ने संभाल कर रखा हुआ है.400 साल पुराना बर्तनपुरातत्व संग्रहणकर्ता और वैद्य डॉ. सुभाष माने ने बताया कि यह मुगल काल का 400 साल पुराना गिलास है, जो कासा धातु से बना होता था. इसके अंदर एक कांच लगा होता है. यह कांच जहर को पहचान लेता है. यदि पानी के साथ राजाओं को कोई कीटनाशक या जहर मिलाकर देता था तो गिलास में नीचे से अलग ही रंग दिखने लगता था, जिससे उनको साजिश का पता चल जाता था. राजा-महाराजा के समय में अक्सर जहर देकर मारने की साजिश रची जाती थी. ऐसे में गिलास काफी उपयोगी होता था.गिलास के नीचे से आता था रंगइस गिलास में यदि पानी के साथ जहर या कीटनाशक मिलाया जाता है तो जब कांच से आप देखते हैं तो उसमें हरा या लाल रंग नजर आने लगता है. इससे पुष्टि होती है कि इस पानी में कुछ मिलाया गया है. पहचान होने के बाद लोग इस पानी को नहीं पीते थे, जिससे उनकी जान बच जाती थी.शाहजहां-मुमताज की तस्वीरमुगल काल के कलाकारों ने इस गिलास पर शाहजहां और मुमताज की तस्वीर टकसाल से उकेरी है. इस गिलास की लंबाई आधा फीट की है. इसमें आधा लीटर पानी आता है.विद्यार्थियों को दे रहे फ्री जानकारीपुरातत्व संग्रहणकर्ता वैद्य डॉ. सुभाष माने 40 साल से पुरातत्व की वस्तुओं का संग्रह कर रहे हैं. वह स्कूली विद्यार्थियों को इस बारे में निशुल्क जानकारी भी देते हैं.
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साल का पहला चंद्र ग्रहण 25 मार्च (होली के दिन) लगने जा रहा है, तो 2024 का पहला सूर्य ग्रहण 8 अप्रैल को लगेगा। ज्योतिष शास्त्र में ग्रहण का काफी महत्व है, तो वहीं खगोलीय घटनाओं में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए यह बेहद खास होता है। चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण दोनों भारत में दिखाई नहीं देंगे। हम आपको ग्रहण को लेकर विज्ञान से जुड़ी बातें बताएंगे। चंद्र ग्रहण क्यों लगता है? सू्र्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण में क्या अंतर है? सबसे पहले जानते हैं कि चंद्र क्यों लगता है...
सूर्य का धरती परिक्रमा करती है, तो चंद्रमा सूर्य और धरती दोनों का चक्कर लगाता है। इस दौरान कई बार चंद्रमा और सूर्य के बीच धरती आ जाती है। इसकी वजह से सूर्य की सीधी रोशनी चंद्रमा तक नहीं पहुंच पाती है और पृथ्वी की परछाई चंद्रमा पर पड़ती है। इसकी घटना को चंद्र ग्रहण कहते हैं। हालांकि पूरी तरह आसमान में चंद्रमा गायब नहीं होता है, बल्कि लाल रंग का नजर आता है।
क्यों लाल हो जाता है चंद्रमा?
धरती के वायुमंडल से टकराकर रोशनी चंद्रमा तक पहुंचती, जिसकी वजह से चंद्रमा लाल नजर आता है। इस दौरान धरती की परछाई भी दो तरह की होती है। पहला उम्ब्रा और दूसरी पेनुंब्रा। उम्ब्रा परछाई काफी गहरी होती है, जबकि पेनुंब्रा हल्की होती है। 25 मार्च को चंद्र ग्रहण के बाद 8 अप्रैल को सूर्य ग्रहण लगेगा। यह सूर्य ग्रहण पूर्ण ग्रहण होगा, जो अमेरिका में दिखाई देगा।
क्या होता है सूर्य ग्रहण?
जब सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा एक सीध में आ जाते हैं यानी सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा आ जाता है, तो ऐसी स्थिति को सूर्य ग्रहण कहा जाता है। अमावस्या को ही सूर्य ग्रहण लगता है। सूर्य और पृथ्वी के बीच जब चंद्रमा आता है, तो पृथ्वी पर उसकी छाया पड़ती है। इस दौरान वह सूर्य के प्रकाश को पूरी तरह या आंशिक रूप से ढक लेता है। बता दें कि एक साल में चार या पांच ग्रहण लग सकते हैं। इनमें सूर्य और चंद्र ग्रहण दोनों होते हैं।
50 साल बाद लगेगा ऐसा सूर्य ग्रहण
8 अप्रैल 2024 को पहली बार सबसे लंबा सूर्य ग्रहण लगेगा। पूर्ण सूर्य ग्रहण का ऐसा अद्भुद नजारा 50 साल पहले दिखाई दिया था। 8 अप्रैल को लगने वाला सूर्य ग्रहण करीब 7.5 मिनट तक रहेगा। इस दौरान सूर्य नजर नहीं आएगा, सिर्फ उसका कोरोना दिखाई देगा। इससे पहले साल 1973 में इतना लंबा सूर्य ग्रहण दिखाई दिया था।
100 साल बाद होली के दिन होगा ऐसा
गणना के मुताबिक, 100 साल बाद होली और चंद्र ग्रहण एक ही दिन होंगे। खगोलविदों के मुताबिक, अगर आसमान साफ हो तो चंद्र ग्रहण को धरती से रात के समय देखा जा सकता है। कुछ स्थानों पर चंद्र ग्रहण नजर आएगा, तो वहीं अन्य इलाकों में ग्रहण के दौरान चंद्रमा उदय या अस्त होगा। भारत में चंद्र ग्रहण दिखाई नहीं देगा। चंद्र ग्रहण सुबह 10.23 मिनट से शुरू होगा और दोपहर बाद 3.02 बजे समाप्त होगा। यह चंद्र गहण उपछाया ग्रहण होगा।
इन देशों में नजर आएगा चंद्र ग्रहण
यह चंद्रग्रहण भारत में नहीं नजर आएगा। इस खगोलीय घटना को आयरलैंड, बेल्जियम, स्पेन, इंग्लैंड, दक्षिण नॉर्वे, इटली, पुर्तगाल, रूस, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड और फ्रांस के कुछ इलाकों में देखा जा सकेगा। भारतीय उपमहाद्वीप में यह ग्रहण नहीं दिखेगा, जिसकी वजह से होली के त्योहार पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा।
जानिए कहां दिखेगा सूर्य ग्रहण
साल का पहला सूर्य ग्रहण भारत में नजर नहीं आएगा। 8 अप्रैल को लगने वाला सूर्य ग्रहण पश्चिमी यूरोप पेसिफिक, अटलांटिक, आर्कटिक मेक्सिको, उत्तरी अमेरिका, कनाडा, मध्य अमेरिका, दक्षिण अमेरिका के उत्तरी भाग, इंग्लैंड के उत्तर पश्चिम क्षेत्र और आयरलैंड में नजर आएगा। -
वाशिंगटन. खगोलविदों को हमारे सौर मंडल में तीन ऐसे चंद्रमा दिखे हैं जो पहले अज्ञात थे। इनमें से दो चंद्रमा वरुण और एक चंद्रमा अरुण के चारों ओर चक्कर लगा रहा है। हवाई और चिली में शक्तिशाली भूमि-आधारित दूरबीनों का उपयोग करके दूर स्थित इन छोटे चंद्रमाओं को देखा गया, और अंतरराष्ट्रीय खगोलीय संघ (आईएयू) के लघु ग्रह केंद्र ने शुक्रवार को इसकी घोषणा की। इसी के साथ वरुण के चारों ओर चक्कर लगा रहे चंद्रमा की ज्ञात संख्या 16 और अरुण के चारों ओर घूम रहे चंद्रमा की ज्ञात संख्या 28 हो गई है। इस खोज में मदद करने वाले वाशिंगटन स्थित ‘कार्नेगी इंस्टीट्यूशन फॉर साइंस' के खगोलशास्त्री स्कॉट शेपर्ड ने बताया कि वरुण के नए चंद्रमाओं में से एक की ज्ञात कक्षीय यात्रा अब तक सबसे लंबी है। उन्होंने बताया कि छोटे बाह्य चंद्रमा को सूर्य से सबसे दूर स्थित विशाल बर्फीले ग्रह वरुण के चारों ओर एक चक्कर पूरा करने में लगभग 27 साल लगते हैं। उन्होंने बताया कि अरुण की परिक्रमा कर रहा नया चंद्रमा इस ग्रह के चंद्रमाओं में संभवतः सबसे छोटा है और इसका अनुमानित व्यास केवल पांच मील (आठ किलोमीटर) है। उन्होंने कहा, “हमें लगता कि अभी ऐसे कई और छोटे चंद्रमा हो सकते हैं, जिनकी खोज की जानी बाकी है।
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